धर्म नाशक धर्मनिरपेक्षता हिंदुओं के अंत के लिए

विध्वंस के विखंडित से अब हम नवनिर्माण करवाएंगे
अंधकारों से तर कर अब हम भोर का अलख जगायेंगे
बेड़ियों को पिघलाकर अब हम शस्त्र निर्माण कराएंगे
जीवन युद्ध को जो जीतेंगे वो सैनिक सम्राट कहलाएंगे
जीवन तो है एक संघर्ष-समर्पण अंततः विजय हम ही पाएंगे
हम फिर लौटकर आएंगे हम फिर लौटकर आएंगे

लोकतंत्र- यूं तो इसकी जड़े भारत में ही मौजूद हैं। हमने भारत के लिच्छवि गणराज्य के बारे में सुना है जिसमें सभी नागरिक आपसी सहमति से निर्णय लेते थे। हमने द्वारका मे श्री कृष्ण के शासन के बारे में सुना है जहां सुधर्मा सभा अपने निर्णय लेती थी। परंतु वर्तमान काल का जो लोकतंत्र है जो पश्चिम से अत्याधिक प्रभावित है जिसमे तथाकथित सेकुलर होने का ढोंग रचा जाता है। जिसके नाम पर हिंदुओं का शोषण होता है।

अक्सर हम को सुनने में आता है कि लोकतंत्र के चार स्तंभ हैं। पर ये चारों वर्तमान काल में हमारी गली के खंभे हो चुके हैं। जिनके आसपास अनेकों कुत्ते अपना मूत्र विसर्जन करके जाते हैं और अपनी निशानियां छोड़ जाते हैं। पहले के 3 खंभों के बारे में तो हम जो चाहे वह कह सकते हैं। उन्हें भला-बुरा कह सकते हैं। परंतु यह चौथा स्तंभ अपने आपको धर्म स्तंभ मान रहा है इसके आसपास कितना मूत्र अवशिष्ट पदार्थ जमा हो चुका है जब वहां से कोई व्यक्ति गुजरता है तो वहां सड़ी हुई व्यवस्था से बदबू आती है।

वैसे तो कोई भी उसको खंबे के पास से कभी गुजरना नहीं चाहता। परंतु वह वहां से गुजरता है और जब नाक बंद करता है तो वहां के कुत्ते जोर जोर से भौंकने लगते हैं और कहते हैं कि यह हमारी अवमानना हो रही है। और यह हमारा अपमान हो रहा है। बार-बार इन चारों व्यवस्थाओं के द्वारा हिंदुओं के ऊपर किए जाने वाला प्रहार हिंदुओं के विनाश के लिए है। हिंदुओं के अपने धार्मिक स्थानों का नियंत्रण उनके मामलों में हस्तक्षेप बहुत ही बेशर्मी के द्वारा इन चारों व्यवस्थाओं द्वारा किया जाता है। उसके पश्चात हमारे ही धन से हमारे ही दुश्मनों को पाला जाता है और यह तथाकथित इस देश की धर्मनिरपेक्षता के नाम पर किया जाता है।

जिस देश में धर्म का ही शासन है जिस देश की संस्कृति में धर्म को ही संसार का शासक बताया गया है उसी देश को धर्मनिरपेक्ष कह कह कर इस देश को बर्बाद कर दिया गया है। यह तथाकथित व्यवस्थाएं हमारे अंत के लिए हैं और हमें इन व्यवस्थाओं को मिटाना है। आप भूल जाइए कि कुछ होगा कुछ बदलेगा हमारे चुने हुए प्रतिनिधि जाकर कुछ करेंगे। वह इसी व्यवस्था का अंग है वह इसे नहीं बदलेंगे। उन्हें मालूम है हम उनके लिए धन देने वाली गाय की तरह है। बार-बार इन व्यवस्थाओं के निर्णय हमारी अस्मिता हमारी संस्कृति हमारी पहचान पर आघात कर रही हैं। अब हमें स्वयं ही अपने उद्धार के लिए कुछ करना होगा। अपने प्रतिनिधियों और अपनी चुनी हुई सरकारों से कुछ भी उम्मीद करना अपने आप के साथ धोखा करना है।

अब हमको ही इस अन्याय के खिलाफ धर्मयुद्ध करना होगा।

हम फिर लौट कर आएंगे

विध्वंस के विखंडित से अब हम नवनिर्माण करवाएंगे
अंधकारों से तर कर अब हम भोर का अलख जगायेंगे
उदासी से भरी उन आंखों पर अब हम ह्रदय स्पर्शी मुस्कान लाएंगे
पराजय को पीछे छोड़ अब हम अजय-अमरत्व के लिए टकराएंगे
सर्द अंधेरी रातों से अब हम उष्मित सूर्य खींच लाएंगे
आशंकित है मन जो आज अब हम उसमें आशा के दीप जलाएंगे
जीवन तो है एक संघर्ष-समर्पण अंततः विजय हम ही पाएंगे
हम फिर लौटकर आएंगे हम फिर लौटकर आएंगे

समक्ष रख सिद्धांतों को अब हम साक्ष्यों से समीक्षा करवाएंगे
भीरुता से मन को अब हम विजयरथ तक ले जाएंगे
गृह से गमन कर अब हम गंतव्यो तक पहुंच जाएंगे
प्रतिरक्षा से अब हम प्रथम-प्रहार करके आएंगे
भाग्यहीनता से अब हम वैभवशील-भव्यता की ओर जाएंगे
संकोचो से निकलकर अब हम स्पष्टता से बतलाएंगे
जीवन तो है एक संघर्ष-समर्पण अंततः विजय हम ही पाएंगे
हम फिर लौटकर आएंगे हम फिर लौटकर आएंगे

शोषित से अब हम शीर्ष-शक्ति बनकर दिखलाएंगे
प्रतीक्षा से अब हम प्रगति-पथ पर आएंगे
सीमित से अब हम सनातन-सत्य हो जाएंगे
दिशाहीनता को छोड़कर अब हम देश को दिशा दिखलाएंगे
दलित-दमित से अब हम देवाधिराज-देवेंद्र कहलाएंगे
पगडंडियों से निकलकर अब हम पर्वतों से टकराएंगे
जीवन तो है एक संघर्ष-समर्पण अंततः विजय हम ही पाएंगे
हम फिर लौटकर आएंगे हम फिर लौटकर आएंगे

उदय से अब हम उत्कृष्ट-उत्थान को पाएंगे
कल्पित संसार को अब हम कर्म-कुरुक्षेत्र में लाएंगे
कर्महीनो को अब हम कृष्ण-कर्मयोग समझाएंगे
नारी को अपमानित करे ऐसे दु:शासनो की छाती के लहू से द्रोपदी के केश धुलवाएंगे
आह्वान कर रण-चंडी का अब हम रक्तबीजों को मिटाएंगे
मां यशोदा के गोपाल अब कृष्ण बन गीता उपदेश सुनाएंगे
जीवन तो है एक संघर्ष-समर्पण अंततः विजय हम ही पाएंगे
हम फिर लौटकर आएंगे

हम फिर लौटकर आएंगे वंचना को छोड़ अब हम वीर बलिदानी कहलायेंगे
याचना को त्यागकर अब हम युद्ध की रण-भेरी बजाएंगे
पीड़ित से अब हम पराक्रमी-प्रताप बनकर दिखलाएंगे
अभिमान है जिनको अपनी ऊंचाईयों का उन पर्वतों को भी झुकाएंगे
धर्म-धुरंधर हम अब अधर्म को मिटाएंगे
वेरी का ह्रदय दहल उठे अब हम ऐसा विप्लव मचाएंगे
जीवन तो है एक संघर्ष-समर्पण अंततः विजय हम ही पाएंगे
हम फिर लौटकर आएंगे हम फिर लौटकर आएंगे

आशुतोष स्वरूप से निकलकर अब हम वीरभद्र बन जाएंगे
अपयश को छोड़कर अब हम अजय-आलोक को पाएंगे
तृष्णित जीवन त्यागकर अब हम त्रिलोक-अधिपति कहलाएंगे
चिर निद्रा को त्यागकर अब हम नित्य-चैतन्य को पाएंगे
अधिकार ही हमसे अब हम अधिपती कहलाएंगे
पुरातन को त्याग कर अब हम परम परिवर्तन लाएंगे
जीवन तो है एक संघर्ष-समर्पण अंततः विजय हमें पाएंगे
हम फिर लौटकर आएंगे हम फिर लौटकर आएंगे

लघुत्व को लांघकर अब हम भव्य-विराटत्व को पाएंगे
परावर्तन को पीछे छोड़कर अब हम नव-युग भास्कर कहलाएंगे
पर्वतों के सीने चीरकर अब परिश्रम से पगडंडियां बनाएंगे
दमनशील दानवों को अब हम अदम्य साहस से मिटाएंगे
अनुगमन को त्यागकर अब हम नई राह बनाएंगे
मनोहर मनुहार छोड़ अब हम नित्य भैरवी गाएंगे
जीवन तो है एक संघर्ष-समर्पण अंततः विजय हम ही पाएंगे
हम फिर लौटकर आएंगे हम फिर लौटकर आएंगे

अव्यवस्था की अवस्था को छोड़कर अब हम नवनीत व्यवस्था बनाएंगे
मधुर वीणा को त्याग कर अब हम घनघोर डमरू नाद बजाएंगे
मृत्यु को क्षीरसागर में लेकर अब हम अमृत्व को प्राप्त हो जाएंगे
खंड खंड भूमि से अब हम अजय निर्माण करवाएंगे
धीर धरातल रसताल से अब हम ध्रुव धैर्य तक जाएंगे
अणुओं का संग्रह कर अब हम एक नया ब्रह्मांड बनाएंगे
जीवन तो है एक संघर्ष-समर्पण अंततः विजय हम ही पाएंगे
हम फिर लौटकर आएंगे हम फिर लौटकर आएंगे

बेड़ियों को पिघलाकर अब हम शस्त्र निर्माण कराएंगे
इंदु तट से अचल हिमालय तक अब हम विजय पताका फहराएंगे
शास्त्र की रक्षा के लिए अब हम शस्त्र संग्राम में आएंगे
जीवन युद्ध को जो जीतेंगे वो सैनिक सम्राट कहलाएंगे
कुमारी से कैलाश तक अब हम धर्म ध्वज लहराएंगे
अपूर्व आभा पाकर अब हम नित्य ही अश्वमेघ अनुष्ठान करवाएंगे
जीवन तो है एक संघर्ष-समर्पण अंततः विजय हम ही पाएंगे
हम फिर लौटकर आएंगे हम फिर लौटकर आएंगे

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