जातिगत जनगणना या सरकारी नौकरी, वोट बैंक और सुविधाओं का बंदर बाँट?

देश में जातिगत जनगणना को लेकर एक बार फिर से चर्चा जोर पकड़ रही है। बिहार से उठी इस मांग के बाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव, हिंदुस्तान अवाम मोर्चा से पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी, बीजेपी की ओर से बिहार में मंत्री जनक राम समेत कयी पार्टी के नेताओं ने हाल ही में दिल्ली में प्रधानमंत्री मोदी से मुलाकात कर इसपर अपना पक्ष रखा और उसके बाद वे ये भी दावा कर रहे हैं कि सरकार ने उनकी बात को नकारा नहीं है।

दरअसल भारत में जातियों का जो रजिस्टर है, वो लगभग 90 साल पुराना है। देश में पहली बार जनगणना 1881 में हुई लेकिन उस समय फोकस जाति पर नहीं बल्कि शिक्षा, रोजगार और मातृभाषा के सवाल पर हुआ करता था। देश में आखिरी बार जाति आधारित जनगणना 1931 में हुई थी। 1931 की जनगणना के हिसाब से देश में 52 फीसदी ओबीसी आबादी है। 2011 में जनगणना के लिए जाति की जानकारी ली गई लेकिन प्रकाशित नहीं की गई। फिलहाल 90 साल से देश को ये पता नहीं है कि किस जाति के कितने लोग हैं और यही वजह है कि जातियों की फिर से गिनती का सवाल उठता रहा है, लेकिन इसका उद्देश्य केवल राजनीतिक लाभ रहा है। राजनीतिक दलों के लिए जाति ही प्राणवायु है। जातिगत वोट बैंक का सटीक पता हो तभी सियासी मोर्चेबंदी भी सटीक हो सकती है, विकास तो अपनी जगह है जो सिर्फ कागजों और मुद्दों तक सीमित रहता है।

बिहार में जातीय जनगणना के मुद्दे पर नीतीश कुमार, लालू यादव और उनकी पार्टी आरजेडी का मत एक है।

साफ तौर पर देखा जा सकता है कि जातीय जनगणना का मकसद केवल ये साबित करना है कि पिछड़ी जातियों की संख्या ज्यादा है और उनकी संख्या के मुताबिक ही सरकारी नौकरियों, शिक्षण संस्थानों में उनका प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया जाए। गवर्नेंस की ये सोच कितनी व्यावहारिक और तर्कसंगत है ये तो हम छोड़ ही देते हैं। पहले तो सिर्फ बिहार की जातिगत राजनीति और उससे हुए परिवर्तन के बारे में बात कर लेते हैं।

जब भारत अविभाजित था तो भारत में सिर्फ तीन फ्लाइंग क्लब थे उनमें से एक पटना में हुआ करता था। दूसरा फ्लाइंग क्लब कराची(अब पाकिस्तान) में और तीसरा मुंबई में था। भारत ही नहीं दुनिया की पहली महिला कमर्शियल पायलट दुर्बा बनर्जी बिहार की रहनेवाली थीं और पटना फ्लाइंग क्लब से उनकी ट्रेनिंग हुई थी। लेकिन पिछले तीन-चार दशकों में बिहार की उपलब्धियां क्या रहीं? आजादी के 74 साल में करीब 37 साल तक बिहार में दलित, मुस्लिम और पिछड़ी जातियों के मुख्यमंत्रियों का शासन रहा है। इन 37 साल में सिर्फ 5 दलित और पिछड़ी जातियों के मुख्यमंत्रियों का प्रतिनिधित्व रहा है। नीतीश कुमार और लालू यादव अगर जनसंख्या के अनुपात में ही हिस्सेदारी चाहते हैं तो दलित, पिछड़ी जातियों में गैर यादव, गैर कुशवाहा, गैर कुर्मी और गैर पासवान जातियों को मुख्यमंत्री बनने का मौका क्यों नहीं मिला?

नीतीश कुमार और लालू यादव के पास करीब 31 साल से बिहार की सत्ता है। इस दौरान दुनिया कहां से कहां पहुंच गई पर इनका राज्य जहां था आज भी वहीं का वहीं है। जाति के नाम पर आये थे और आज भी सिर्फ जाति के नाम पर बचे रहना चाहते हैं।

सत्य ये है कि भारत में केवल तीन प्रतिशत लोगों को सरकारी नौकरी मिलती हैं, बस उन्हीं की बंदर बाँट के लिए इस गणना की चर्चा है। उन्हीं के वोट के कारण राजनीति इसपर गरमाई रहती है। शेष 97% का क्या होगा, न हमारी जाति के नेता सोचते है, न हम सोचते है।

Abhishek Singh: Columnist : Politics. National Issues. Public Policies.
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