समाजवाद और वर्ग संघर्ष

उत्तरप्रदेश में चुनावी माहौल गरमाया हुआ है, राष्ट्रवादी कही जाने वाली BJP और खुद को लोहिया और जयप्रकाश के समाजवाद का उत्तराधिकारी बताती सामजवादी पार्टी आमने सामने है.

मुझे एक किस्सा याद आ रहा है, समय था 1952 का भारत को आजादी मिल चुकी थी. भारत में कैसी व्यवस्था आदर्श होगी इसे लेकर उहापोह की स्थिति थी देश में दो बड़े नेता थे पंडित जवाहरलाल नेहरू और जेपी नाम से प्रचलित जयप्रकाश नारायण. जयप्रकाश जी अपने 21 दिन के उपवास के बाद मार्क्सवादी विचारधारा को पूरी तरह से त्याग चुके थे और आप पूर्ण रूप से समाजवादी हो चुके थे. नेहरू भी खुद को समजवादी मानते थे. दोनो ने राजनीति की शुरवात भले कांग्रेस से ही की थी पर लोकतंत्र में विपक्ष की भी अहम भूमिका होती है इसी वजह से कांग्रेस का समाजवादी धड़ा जेपी के नेतृत्व में उससे अलग हो गया समाजवादी धड़े ने आचार्य नरेंद्र देव, लोहिया जैसे बड़े नाम थे जबकि कांग्रेस के नेता नेहरू थे.

देश में प्रथम आम चुनाव हुए सोशलिस्ट पार्टी को काफी कम सीटें मिली. पंचमढ़ी मध्यप्रदेश में विशेष अधिवेशन बुला कर हार के कारणों की चर्चा हुई जिसमे जेपी ने पार्टी के महामंत्री के तौर पर ये विचार रखा की समस्त विरोधी दलों में एकता होनी चाहिए. लोहिया ने भी समर्थन किया. छोटी छोटी कई पार्टियां तब तक अस्तित्व में आ चुकी थी जिसमे जेबी कृपलानी की किसान मजदूर प्रजा पार्टी एक प्रमुख पार्टी थी जिसके विचार सोशलिस्ट पार्टी से काफी मिलते थे. दोनो के विलय की बात आई. दोनो पार्टियों के शीर्ष नेतृत्व में चर्चा हुई और एक आम सहमति बनी विलय की जिसमे अशोक मेहता ने सक्रिय भूमिका निभाई. सितंबर 1952 में दोनो पार्टियों आखिर कार मिलकर प्रजा सोशलिस्ट बनी, नई पार्टी की रूपरेखा और नीति तैयार हुई.

आचार्य नरेंद्रदेव इस समय सद्भावना यात्रा पर चीन गए थे. जब उन्होंने देखा कि पार्टी की नीति में वर्ग संघर्ष को छोड़ दिया गया था तो उनके कहने पर उसे भी पार्टी की नीति का हिस्सा बनाया गया. “उनका कहना था कि बिना वर्ग संघर्ष समाजवाद का कोई अस्तित्व नहीं..” आचार्य जी की यही बात याद रखना काफी जरूरी है, समाजवाद बिना वर्ग संघर्ष के कुछ नही. समाजवाद और मार्क्सवाद दोनो का ही विचार यही है. मार्क्सवाद में वर्ग संघर्ष को खत्म करने के लिए “शोषक”(उनकी शब्दवाली) को शोषित वर्ग (फिर से उनकी शब्दावली) को विद्रोह करना चाहिए और कमान अपने हाथ में लेनी चाहिए. विद्रोह आज तक हिंसात्मक ही रहा है.

समाजवाद और मार्क्सवाद में काफी साम्य है समाजवाद में भी कुछ ऐसा ही बात की जाती है पर विद्रोह का तरीका अहिंसावाद पर आधारित होता है और बंटवारा बराबरी से होने की बात होती है जबकि मार्क्सवाद में proletariat वर्ग का हर चीज पर आधिपत्य होता है. आपको कुछ आइडिया तो लग गया होगा इन दोनो वायरसों का दोनो में ही संघर्ष की बात की जाती है, समाज को विभाजित दिखाया जाता है और उसे फिर अंत में एक करने की बात की जाती है मार्क्सवाद में मजदूर वर्ग के हाथ में दे दिया जाता है जबकि समजवाद में एक सरकार होती है जिसके हाथ में शक्तियां निहित होती है. पर यह ध्यान में रखना आवश्यक है की आज संघर्ष और शांति दोनो एक साथ नही रह सकते और संघर्ष से संघर्ष मुक्त समाज की स्थापना करना हास्यास्पद बात है. शायद यही कारण है पूरे विश्व में गिने चुने देशों को छोड़ दोनो को विचारधाराओं को लगभग नकार दिया गया है.

जेपी और लोहिया जी जैसे लोग के सम्मान का कारण शायद ये है की उन्हे अपनी विचारधारा पता थी और वो उसको स्थापित लिए प्रयासरत थे और असल मायने में वो समाजवादी थे और उसकी कमियां भी उन्हें पता थी जिन्हे वो आम जनता से छुपाते न हम थे.और वो तन मन से समाजवादी समाज बनाने के लिए काम करते थे जो वर्ग हीन, वर्णहीन था. आज के समाजवादियों की तरह नही जिनके लिए सब कुछ एक परिवार मात्र तक सीमित है और काम एक जाति मात्र तक.समाजवाद का एक मात्र का चुनाव लडना नही था, पर आज वहीं तक समाजवाद सीमित रह गया है.

जेपी जी को भी बाद में विनोबा भावे के भूदान आंदोलन में समिल्लित होने पर अहसास हुआ था की कार्य का मतलब केवल वर्ग संघर्ष खड़ा करना नही होता है. और प्रजा सोशलिस्ट पार्टी से इस्तीफा देते वक्त उन्होंने एक लंबा पत्र पार्टी के साथियों के लिए लिखा जिसमे उन्होंने लिखा की कुछ वर्ष पूर्व सामने स्पष्ट हो गया की आज जिसे हम समाजवाद समझते हैं, वह मनुष्य जाति को स्वतंत्रता, समता, भ्रातृत्व एवम शांति को ऊंचे लक्ष्यों तक पहुंचा नही पाएंगे.

– अमन

Aman Dubey: Student of politics in Lucknow University Student Activist Writer Orator Scribbler
Disqus Comments Loading...