राजनीतिक विमर्श की भाषा सुधरे

कुछ दिनों पहले ही एक टीवी डिबेट के दौरान एक राष्ट्रीय पार्टी के प्रवक्ता द्वारा केंद्र में सत्ताधारी दल के प्रवक्ता को ‘नाली के कीड़े’ जैसे अमर्यादित एवं अशोभनीय भाषा के साथ संबोधित किया गया। बता दें कि दोनों पार्टी के प्रवक्ता किसी मुद्दे पर बहस के लिए बुलाये गए थे। दोनों में मुद्दों पर बहस होते –होते बात यहाँ तक पहुँच गयी कि एक दूसरे पर निजी हमले करने लगे और ऐसी भाषा के इस्तेमाल कर गए, जो समाज में स्वीकार्य नहीं है। लेकिन ऐसी वाक्या किसी एक दिन की नहीं है, आए दिन इस तरह की घटना किसी न किसी मीडिया प्लेटफॉर्म पर दिख ही जाती है।

पिछले एक डेढ़ दशक से भारतीय राजनीतिक विमर्श की भाषा में जो गिरावट आई है, वह चिंतनीय है। वह पार्टियों के प्रवक्ताओं द्वारा चैनलों पर बहस के दौरान या राजनेताओं द्वारा जनसमुदाय को संबोधित करने के क्रम में या सभाओं में नेता द्वारा ऐसी भाषा का इस्तेमाल कर बैठते हैं, जो बिलकुल हीं संस्कारहिनता का परिचायक होता है, स्वभाव बिल्कुल साफ नजर आती है जो असभ्यता का परिचायक दिखाई पड़ती है। नेताओं का बयानबाजी एवं आए दिन किसी न किसी प्लेटफॉर्म जैसे टीबी चैनलों पर बैठकर एक दूसरे को नीचा दिखते हुए ऐसे –ऐसे भाषा का प्रयोग कर बैठते हैं जो बिलकुल भी एक सभ्य समाज में नजरअंदाज नहीं कर सकते हैं और वह भी देश के जिम्मेबार राजनीतिक पार्टियों के नुमाइंदों द्वारा। शायद उनके प्रमुखों द्वारा सहमति रहती हो, जो जितना विरोधी पार्टी के प्रवक्ताओं और उनके पार्टी को और भद्दी और गलत शब्दों द्वारा गलत साबित करेगा, उसे प्रमोशन के तौर पर पुरष्कृत किया जाएगा।

आज राजनीतिक विमर्श के भाषा के गिरने के कारण कई तरह की अनियमितता देखने को मिलती है, लेकिन आजादी के उपरांत कांग्रेस, सोशलिस्ट पार्टी ,जनसंघ और कौम्युनिस्ट चार धाराएँ थीं। परंतु चारों में अघोषित रूप से आम सहमति थी –क्षेत्रवाद, भाषावाद, जातिवाद और सांप्रदायिकता को हराना। इन सभी मुद्दे पर आम सहमति होती थी, साथ यह भी ख्याल रखा जाता था कि भाषा की चयन इस तरह की जाय जो जनता के बीच में अच्छा संदेश जाय। लेकिन नयी पीढ़ियों को सामाजिक संस्कृतियों से कमजोर लगाव के कारण इन आदर्शों को कुचलते जा रहे हैं। आज के जमाने के राजनीतिज्ञ यह भूल चुके हैं कि हम देश के नेतृत्व करने वाले लोग हैं। उन्हे यह भी बात का ख्याल नहीं है कि जब हम हीं इस तरह के बात करेंगे तो लोगों से क्या उपेक्षा रखी जा सकती है। जेपी, विनोबा जैसे व्यक्तित्व और उनके द्वारा चलाये गए सामाजिक आंदोलन इनके अनुपम उदाहरण हैं। अभी के समय मे इनकी भी अनुपस्थिति ने नेताओं को स्वछंद बना दिया है। अब न जेपी के आदर्शों पर चलने वाले लोग हैं न लोहिया के विचारों के साथ खड़े होने को तैयार हैं। हाँ सिर्फ भाषणों या उनकी जयंती पर उनके आदर्शों एवं विचारों की खूब बातें होती है।

जब राजनीतिक संस्कृति या वातावरण में गिरावट आती है, तो वह देश की व्यवस्था को भी नुकसान करने लगती है, तब समाज के बुद्धिजीवियों की निश्चित रूप से राजनीतिक भूमिका होती है। यह भूमिका निभाते हुए साहित्यकार और कलाकार किसी पार्टी के कार्यकर्ता बनने की आवश्यकता नहीं है। इसका एक बड़ा उदाहरण 70 के दशक का है। जब जेपी आंदोलन शुरू हुआ, तो उसके केंद्र में राजनीतिक पार्टियां आ खड़ी हुई, उसके समर्थन में धर्मभारती ने कविता लिखी। जो एक-एक साहित्यकार का राजनीति में गहरा हस्तक्षेप था। मर्यादित संकेतों द्वारा लोकतान्त्रिक शक्तियों को मनोबल, आत्मविश्वास और उसकी शक्ति को एक साहित्यकार एवं कलाकार ऐसे में बढ़ाता है। परंतु ऐसे में बुद्धिजीवियों राजनीतिक कार्यकर्ताओं, नेता की भूमिका में जनादेश के पक्ष –विपक्ष में काम करना शुरू किया तो उनकी भाषा बिगड़ने की संभावना और बन जाती है।

प्रश्न तो यह है की इस समस्या का समाधान क्या है? जिन लोगों ने अपनी स्वतंत्रता बचाए रखी है उनकी भूमिका विमर्श और राजनीतिक की संस्कृति को बदलने में काम कर सकती है। भारत के राजनीतिक विमर्श कितना भी न्यूनतम स्तर तक चला जाए परंतु सामान्य लोग उसे प्रभावित नहीं होते हैं क्योंकि राजनीतिक पूर्ण संख्यात्मक बन चुकी है वह सामान्य जनता की परवाह नहीं करता है, वह सामान्य जन मानस के बारे में नहीं सोचता है। विचारकों, चिंतकों कवि, लेखक, कलाकार जिनका जागने से भारत की राजनीतिक विमर्श की भाषा में पूर्णउत्थान का प्रारम्भ होने की उम्मीद की जा सकती है। बुद्धिजीवियों के द्वारा एक बार फिर राजनीतिक विमर्श में बदलाव या सुधार किया जा सकता है। चुनावी सभाओं से लेकर टीबी स्टूडियो तक जुबानी भाषा में जो गिरावट आई है जो सामान्य जन मानस को सोचने पर मजबूर कर सकता है। हमारे देश में विमर्श की एक संस्कृति का लंबा सुसज्जित एवं स्वस्थ्य इतिहास एवं परम्पराएँ रही है। पुरानी पीढ़ी और नयी पीढ़ी के बीच खाई तभी भर सकती है जब इतिहास से सीख लेकर अहम कोशिशें होगी, तो सामाजिक सत्ता मजबूत होगी।

ज्योति रंजन पाठक -औथर व कौलमनिस्ट

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