पत्रकार राजकुमार केसवानी का निधन: वो पत्रकार जिसकी बात तब सरकार मानती तो नहीं होती भोपाल गैस त्रासदी

सुबह सो कर उठा, फेसबुक खोला और किसी की पोस्ट दिखी राजकुमार केसरवानी जी नहीं रहे। इनसे पहला परिचय टेंथ में एक भूगोल का प्रोजेक्ट बनाते हुए हुआ था। सामसामयिक जागरूकता ना के बराबर थी। मगर फिर भी इतनी भयावाह त्रासदी से अनजान नहीं था। सो बात रोचक लगी, इनका नाम भी कहीं जिक्र में आया था, सो याद रह गया। उसके बाद कभी तफ्सील से इनके बारे में पढ़ने का मौका नहीं मिला। आज जब इनकी मौत की खबर मिली, तुरंत से इनको पढ़ा, लेक्चर्स सुने, इंटरव्यू देखे। कुल मिलाकर एक चीज समझ आयी कि, आखिर क्यों हम वक़्त रहते चीजों को नहीं समझ पाते।

इसी बहाने अगर कोरोना महामारी के प्रसार में सबसे बड़ी वजह जिसको माना जाये वो दूरदर्शिता की कमी मानी जाएगी। या यूँ कहें कि हर महामारी प्रसार तात्कालिक सत्ताधीशों या उन लोगों की दूरदर्शिता की कमी की वजह से ही होता है, जो समय रहते चेत जाते तो इतनी बड़ी संख्या में राह चलते लोग पुतले न बन जाते।

उस वक़्त भी ऐसे ही तमाम वो लोग जिनपर लोगों के मुस्तकबिल का ठेका था, वो नहीं चेते थे। एक युवा पत्रकार लगातार, अनुमान से कहें तो तीन साल से लगातार लिख रहा था। हुक्मरानों को चेता रहा था, उनको सावधान कर रहा था। कि अब भी इस महामारी को होने से रोका जा सकता है। मगर किसी ने तनिक भी गौर नहीं किया। और जो हुआ वो ऐसी कहानी के रूप में जाने कितनी सदियों तक याद रखा जाएगा, जो अगर एक बार याद आ जाये तो जाने कितनी रातों की नींदें उड़ जाएँगी।

देश में चुनाव होने वाले थे। दो दिसंबर 1984 की रात, दिन की पाली के मजदूर घर जा चुके थे, रात की पाली वाले अपने कामों पर जुटे थे। भोपाल शहर लगभग ठंडा पड़ चुका था, यानि सो चुका था। दिन रविवार था, कुछ युवा नौ से बारह की पिच्चर देख के लौट रहे थे। राजीव गाँधी ने नयी नयी सत्ता संभाली थी, इंदिरा गाँधी का क़त्ल हो चुका था। मुमकिन है, वो राजीव कैसे सत्ता चलाएंगे। इसको लेकर अपने मत दे रहे हों, या हाल में दिखी किसी खूबसूरत बाला के नैन नख्स पर बाते कर रह हों। अचानक से उनको दम घुटने जैसा महसूस हुआ। और इसके बाद जो हुआ वो मानवता के इतिहास में मानव निर्मित सबसे बड़ी त्रासदी साबित हुई। छह लाख से अधिक लोग सीधे तौर पर प्रभावित हुए। तकरीबन बीस हजार लोग महज एक सरकारी आंकड़ा बनाकर रह गए।

ये सब एक रात में नहीं हुआ था। इसकी पटकथा लिखी जानी तकरीबन पांच साल से शुरू हो गयी थी। भारत सरकार और यूनियन कार्बाइड के 49-51 के आनुपातिक हिस्सेदारी में सेविन नामक कीटनाशक बनाया जाता था। फैक्ट्री का उत्पादन 2500 टन सालाना था। 1980 का दशक आया, बाजार की मांग, उत्पादन से काफी कम थी। सो ये हुआ कि कीटनाशक को स्टोर करना पड़ा। उत्पादन बढ़ रहा था, मांग घट रही थी। इसी से जुडी एक घटना को केसवानी ने एक आलेख में लिखा था, “1981 के क्रिसमस के समय की बात है। मेरा दोस्त मोहम्मद अशरफ यूनियन कार्बाइड कारखाने में प्लांट ऑपरेटर था और रात की पाली में काम कर रहा था। फॉस्जीन गैस बनाने वाली मशीन से संबंधित दो पाइपों को जोड़ने वाले खराब पाइप को बदलना था। जैसे ही उसने पाइप को हटाया, वह जानलेवा गैस की चपेट में आ गया। उसे अस्पताल ले जाया गया पर अगली सुबह अशरफ ने दम तोड़ दिया। अशरफ की मौत मेरे लिए एक चेतावनी थी। जिस तरह मेरे एक दोस्त की मौत हो गई, उसे मैंने पहले ही गंभीरता से क्यों नहीं लिया? मैं अपराधबोध से भर गया। उस समय मैं पत्रकारिता में नया था. कुछ छोटी-मोटी नौकरियां की थीं। बाद में 1977 से अपना एक साप्ताहिक हिंदी अखबार ‘रपट’ निकालने लगा था”।

इस तरह 1981 में यूनियन कार्बाइड से मचने वाली तबाही की कथा जमीन पर उतरने लगी थी। इधर बिक्री दर को घटता देख, कंपनी ने सेविन को सस्ता करने की योजना बनाई। उत्पादन गुणवत्ता, सुरक्षा मानक, स्टाफ, कलपुर्जों की गुणवत्ता इन सबमें बेतहाशा कमी की गयी। कंपनी धीरे धीरे पटरी पर आने लगी। उनको ये फार्मूला भा गया। सरकारी मुलाजिम अपना हिस्सा लेकर अनदेखी करने लगे। केंद्र में बैठे सत्ताधीशों के पास महज आठ लाख लोगों के बीच बसी कंपनी, जिसका लाइसेंस ही जान लेने की दवा बनाने का था, उसको देखने भर की फुर्सत नहीं थी, सो नहीं देखा।

केसवानी की रिपोर्टें वहां के आलाकमानों को पसंद नहीं आ रही थीं। सो नौकरी से हाथ धो बैठे। मगर जो मौत का साया कंपनी से निकलने वाले वेस्ट और वहां के कामगारों को आने वाले कल में चिताओं पर लेटे देख चुका हो, वह चुप कैसे बैठ सकता था। उन्होंने दो हजार की सर्कुलेशन वाला अखबार निकालना शुरू किया और इसको लेकर लगातार लिखना शुरू किया। अपने सिरे से इन्होने हर वो जानकारी और सुबूत दिए लेकिन जेबों में घूस और आँखों का पानी मार चुके उन मदान्ध सरकारी मुलाजिमों ने देखने से इंकार कर दिया। आख़िरत में दो दिसंबर की वो रात आई, साथ में आयी मानवता के इतिहास की सबसे बड़े मानव निर्मित तबाही। लोग मर रहे थे और मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह अपने फार्महाउस पर जाकर खुद को बचा रहे थे।

हादसे से 26 साल बाद आरोपी बनाये गए सात लोगों को दो दो साल की सजा मिली। एक भाषण में केसवानी कहते हैं कि “अगर प्रति व्यक्ति (मौत) का हिसाब लगाया जाए तो एक हत्या के बदले आरोपी को 35 मिनट की सजा”। इंसानी जात के इतिहास में एक जान की इतनी सस्ती कीमत कभी नहीं रही होगी। एक इंसान की जान की कीमत सत्ता के लिए क्या होगी इस आंकड़े को पढ़कर लगा सकते हैं। कंपनी का मालिक वारेन एंडरसन, इस व्यक्ति को मध्यप्रदेश सरकार के हवाई जहाज से दिल्ली ले जाया गया जहाँ से वो अमरीका भगा गया और मौत तक (2014) कभी लौट कर नहीं आया।

सवाल उठना लाजिम है, सवाल ये कि ये महामहिम की श्रेणी के लोग, देश के तीनों स्तम्भ के लोग, देश के चौथे स्तम्भ को सिरे से कैसे दरकिनार कर देते हैं। इनको तकलीफ होती है तो पूरे देश की व्यवस्था जुट जाती है। लेकिन, उस व्यवस्था का पोषण करने वाली आम जनता की समस्याओं को जब अखबारों में लिखा जाता है तो कैसे वो सबकी नजरों से छूट जाता है। केसवानी जैसे जाने कितने लोग लिखते हैं, बोलते हैं लेकिन कुछ लोगों के चश्मों के अंदर तक जा ही नहीं पाते। सवाल तो ये भी है कि किसी फिल्म में एक सेकंड के लिए किस धर्म, किस पार्टी या किस नेता की मानहानि हुयी ये पकड़ लेने वाले लोग, अखबार में क्या लिखा है, ये क्यों नहीं पकड़ पाते ?

ऐसी ही ना जाने कितनी तबाहियों की पटकथाओं के खुलासे अखबरों में केसवानी जैसे तमाम लोग करते रहते हैं। मगर कुछ खास चश्मों तक बात जाती ही नहीं। हर तबाही को लेकर समाज के घोषित बुद्धिजीवियों के अलावा भी लोग राय रखते हैं। और आमतौर पर उनकी प्लानिंग कमेटियों से बेहतर और कम समय में वो लोग वही बात कह देते हैं, जो एक भारी भरकम टीम और पैसा खर्च करने के बाद रिपोर्ट नहीं बल्कि, ड्राफ्ट बनकर महोदयों के सामने आता है। पसंदीदा बातों को गौर में लाया जाता है, शेष दरकिनार ही रहते हैं। कोरोना संक्रमण के प्रसार के लिए जितनी जिम्मेदार मेडिकल व्यवस्था है, उससे एक प्रतिशत ज्यादा जिम्मेदार वो लोग हैं, जिनका काम ऐसी परिस्थितियों में सोचना होता है।

सोचना जरुरी है, हम हर बार विफल हुए हैं तो एक बौद्धिक के तौर पर, हम छोटे फायदों के लिए अपने स्वतंत्र विचार को समेट देते हैं। और सौदे कर लेते हैं उनकी जान की कीमत का, जिनकी हम उम्मीदें हैं। घरों में आज भी ये बात होती है, साहब ने किया है तो सोचकर ही किया होगा। खैर, एक सोचने वाला हमारे बीच से चला गया। एक इंसानी दिमाग से उपजी तबाही से सबको बचाने की कोशिश की, दूसरी से खुद ही नहीं बचा सके। जिसने अपनी सोच को नहीं रोका। वो तबाही तो नहीं रोक सका, मगर रामसेतु बनने में उसके गिलहरी योगदान को नजरअंदाज किया जाना भी नामुमकिन है।

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