इसराइल और फ़लस्तीन संघर्ष का इतिहास

दशको के बाद इसराइल और फ़लस्तीन के मध्य संघर्ष  अपने चरम पर पहुंचता दिख रहा है। इस बार इस संघर्ष में हमास, गाजा से इसराइल के तरफ लंबी दूरी की मिसाइलें बहुसंख्या में दाग रहा है। हमास की इस बड़ी कार्यवाही को पूर्व नियोजित बताया जा रहा है। यह संघर्ष ऐसे समय हो रहा है जब रमजान का अंतिम सप्ताह और जेरूसलम दिवस का अंतिम दिन बाकी था। तत्कालीन  विवाद का मुख्य कारण पूर्वी जेरूसलम में स्थित शेख जर्राह नाम का स्थान है। यहूदियों का दावा है की शेख जर्राफ़ में स्थित बहुत सारी जमीनें औटोमॅन समराज्य के अंतिम समय में फ़लस्तीन के लोगों से उनके पूर्वजों ने खरीद ली थी और वे उस भूमि पर अपना मालिकाना हक वापस पाना चाहते हैं।

यह विवाद नवीन नहीं है 2014 से ही शेख जर्राफ़ को लेकर दोनों पक्षों में तनाव की स्तिथि बरकरार है। हाँलकी की कोर्ट का फैसला यहूदियों  के पक्ष में है परंतु इस फैसले से बाकी फ़लस्तीन जनता नाराज है। विवाद तब अधिक बढ़ गया जब इस्राइएली पुलिस ने अलेक्सा मस्जिद के परिसर में प्रवेश किया और मस्जिद को सील कर दिया। यहूदी अलेक्सा मस्जिद के परिसर को (जिसे वे हर-हावाईयत नाम से पुकारते हैं) अत्यधिक पवित्र मानते हैं और  ऐतिहासिक रूप से उसमे दाखिल नहीं होते। यहूदी लोगों का विश्वास है कि ईश्वर ने यहीं की मिट्टी से पहले मनुष्य एडम की रचना की थी। यहूदी का ये भी मानना है की अब्राहम के पुत्र इसाक की बली भी ईश्वर ने मांगी थी तब अब्राहम ने इसी स्थान पर इसाक को बली देने के लिए बुलाया था इस घटना से ईश्वर खुश हुए थे।

हिब्रू बाइबल में यह स्थान ईश्वर द्वारा अब्राहम को देने का वादा किया गया था जिसके कारण यहूदी इस स्थान को promise land मानते हैं। अब्राहम के बेटे इसाक और इसाक के बेटे जैकॉब का नाम इसरेल पड़ा जिसके नाम पर यह स्थान आज है। ओल्ड टेस्टामेंट में फ़लस्तीन लोगों और इसरैलियों के मध्य एक युद्ध का वर्णन है। जिसमे इस्राइएल का नेत्रत्व करने वाले डेविड ने फिलिस्टीनी लड़के गोलायत को हराया था। बाद के काल में राजा  सोलोमन ने इस स्थान पर प्रथम मंदिर का निर्माण कराया था। बेबीलोन के शासक ने प्रथम मंदिर को तोड़  कर दिया था। 512 बीसी में दूसरे मंदिर के स्थापना हुई जिसे बाद में रोमन ने तोड़ दिया। दूसरे मंदिर की एक दीवार आज भी मौजूद है। कुछ यहूदी समूह दूसरे मंदिर की फिरसे स्थापना चाहते हैं। इस कार्य को करने के लिए वे अलेक्सा मस्जिद और डोम ऑफ रॉक को गिराने के लिए संघर्षरत हैं।

इस्लामिक मान्यता के अनुसार 621CE में पैगंबर मोहम्मद साहब अपने उड़ने वाले घोड़े से इस स्थान पर उतरे थे और जन्नत की सीढ़ियों से जन्नत गए थे। जिस स्थान पर मोहम्मद साहब का घोड़ा उतरा था उस स्थान पर उमईयत खलिफाओं ने अलेक्सा मस्जिद का निर्माण कराया था। अरबी में अलेक्सा का अर्थ होता है सबसे दूर। मक्का और मदीना के बाद यह स्थान इस्लाम के लिए तीसरा सबसे महत्तवपूर्ण स्थान है।

ऐतिहासिक रूप से जेरूसलम को लेकर विवाद तीनों अब्राहमीक धर्म को मानने वाले लोगों के मध्य रहा है। पहला धार्मिक युद्ध ही जेरूसलम को लेकर लड़ा गया जिसमे ईसाइयों ने मुस्लिमों को परास्त किया लेकिन यह सफलता स्थायी नहीं रही। 1187 CE में मुस्लिमों ने जेरूसलम को वापस जीत लिया और हरम-अल-शरीफ (अलेक्सा) के प्रबंध के लिए वक्फ बोर्ड की स्थापना की और गैर मुस्लिम का इस परिसर में प्रवेश निषेध कर दिया।  तब से यहूदी वेस्टर्नवाल की ही पूजा करते हैं।

प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति  के बाद फीलिस्टीन इंग्लैंड के अधिकार क्षेत्र  में आ गया। वर्तमान इस्राइएल के निर्माण का मसौदा 1917 के बेलफोर्ड घोंषणा पत्र से शुरू हुआ जिसे इंग्लैंड ने तैयार किया था। धीरे-धीरे हिटलर के आतंकों से पीड़ित होकर यहूदी भारी मात्र में दुनिया भर से इस स्थान पर पहुँचने लगे। 1935  में पील कमीसन ने फीलिस्टीन के बटवारे का एक मसौदा तैयार किया। 1947 में यूएन ने रेसोल्यूशन 181 पास किया जिसके अनुसार फिलिस्टीनियों को 45 प्रतिसत भू भाग दिया गया और जेरूसलम को अंतर्राष्ट्रीय शहर घोषित  करने का प्रस्ताव दिया गया। इस प्रस्ताव को यहूदी ने स्वीकार तथा फिलिस्टीनियों ने अस्वीकार कर दिया। 1948 में इस्राइएल की स्थापना हुई और इसी के साथ में युद्धक संघर्ष भी शुरू हुए। 1967 में अलेक्सा मस्जिद के प्रबंध का अधिकार जोर्डन को दे दिया गया जो अभी तक मौजूद है।

दिसम्बर 1987 में इस्राइएल के खिलाफ पहला इंतिफादा शुरू किया गया इसी के साथ शेख अहमद यासीन ने हमास की स्थापना की। हमास के दो लक्ष्य महत्तपूर्ण थे पहला इस्राइएल का विनाश, दूसरा फीलिस्टीन में इस्लामिक राज्य की स्थापना। 1993 में इस्राइएल और फीलिस्टीन के मध्य संबंधों  का नया दौर शुरू हुआ जब फिलिस्टीनी लिब्रेसन ऑर्गनाईसेसन के मुखिया यासिर अराफ़ात ने इस्राइल के प्रधानमंत्री राबबिन के साथ ओस्लो समझौता को मान लिया यह समझौता कैम्प डेविड समझौते के बड़ी सफलता था। PLO का मकसद हमास के बढ़ते कद को रोकना था जिसके तहत उसने इस्राइएल को मान्यता प्रदान की और गाजा  और पश्चिमी बैंक में स्वायत सरकार की स्थापना की। हमास इन सभी शांति वार्ताओं का विरोधी  बना रहा जुलाई 2000 में वाशिंगटन में कैम्प डेविड समझौता विफल हो गया जिसके बाद सितंबर 2000 में इस्राइयली प्रधानमंत्री ऐरिएल शेरोन ने टेम्पल माउंट की यात्रा की जिसके विरूद्ध स्वरूप द्वितीय इंतिफादा शुरू हुआ। 2004 में यासिर अराफ़ात की मृत्यु के बाद महमूद अब्बास PLO के नए मुखिया के रूप में कुछ नया करने में विफल रहे। हमास का कद बढ़ने लगा फलस्वरूप हमास को PLO के मुकाबले ज्यादा सीटे चुनाव में प्राप्त होने लगी और गाजा में उसका प्रभाव स्थापित हो गया जबकि वेस्ट बैंक में PLO की सरकार कायम रही। 2006 के बाद अभी तक कोई नया चुनाव नहीं हुआ जिसका कारण हमास की बढ़ी हुई लोकप्रियता है।

बीते पाँच सालों में इस्राइल ने अपने विरोधियों से भी बड़े राजनयिक संबंध स्थापित किए जिसमे UAE, बहरीन, मोरक्को और सूडान प्रमुख हैं। सऊदी अरब भी अब फीलिस्टीन के मामले में तटस्थ दिखाई पड़ता है। जबकि फीलिस्टीन का साथ देने वाले देशों में सीरिया, जॉर्डन मिश्र अब उसके साथ पहले जैसे नहीं हैं ये देश स्वयं के समस्या से ही जूझ रहे हैं। सिर्फ ईरान ही फीलिस्टीन का एक मात्र सहायक बचा है परंतु बीते सालों में वहाँ की भी आर्थिक स्थिती खराब रही है जिसके कारण ईरान फीलिस्टीन को बड़ी सहायता देने में असक्षम है।

वर्तमान विश्व व्यवस्था आर्थिक हितों पर आधारित है ऐसे में कोई देश अपने राष्ट्रीये हित को खतरे में डालकर किसी देश की सहायता नहीं कर सकते। इस्राइल के पास अन्य देशों को देने के लिए कई लुभावने आफ़र हैं जिसमे इस्राइल युद्ध तकनीकी, कृषि तकनीकी सबसे महत्तवपूर्ण है। इस्राइएल का हमास को शांति वार्ता में साथ न लाना भी इस क्षेत्र में अस्थिरता का बाद कारण है। हमास का मानवबम,राकेटों तथा मिसाइलों से इस्राइएल पर हमला शांति वार्ता की उम्मीदों को खत्म करता है। जबकि दूसरी तरफ फीलिस्टीन के पास किसी भी मित्र देश को आफ़र करने के लिए कुछ भी नहीं है जिसकी वजह से कोई देश फलिस्टीन के साथ खड़े हो।

बीते 50 वर्षों में इसरेल ने स्वयं को हर प्रकार से सफल साबित किया है चाहे वो विज्ञान का क्षेत्र हो या आर्थिक प्रगति का क्षेत्र या शिक्षा का क्षेत्र। भले ही इन सभी कार्यों के लिए उसको USA का पूरा सहयोग रहा हो। जबकि दूसरी तरफ फलिस्टीनी पक्षकारों ने फ़लस्तीन केवल युद्ध क्षेत्र में ही तब्दील किया है और वहाँ की बेरोजगारी और गरीबी  को एक मौके की तरह प्रयोग किया है, जिसका नतीजा लाखों बेगुनाह यहूदी और अरब फ़लस्तीनो की मौत के रूप में सामने है। ऐसे में जो युद्धक संघर्ष अभी चक रहे हैं उन्मे सबसे ज्यादा नुकसान हमेसा की तरह फ़लस्तीन का ही होगा। सैकड़ों बेगुनाहों का खून अब्राहम की पावन भूमि पर फिर बहेगा, फिर संघर्ष विराम होगा फिर कुछ समय बाद दोनो पक्षों के कट्टरपंथी आपस में नए विवाद का आरंभ करेंगे और फिर से यही घटना क्रम दोबारा दिखाई देगा। इस हिंसा में धार्मिक उन्माद सबसे चरम पर है और मानवता की कड़ी सबसे कमजोर। लेकिन इतिहास पैगंबरों की इस भूमि को कब शांति और लोगों को सद्बुद्धि प्रदान करेगा यह कहना अभी बहुत कठिन जान पड़ता है। लेकिन इतिहास सदैव किसी उम्मीद के इंतिजार में अपनी कहानी कहता है।

Disqus Comments Loading...