बंगाल में भाजपा की नैतिक जीत

हमसब इतिहास में यह देखते आए हैं कि किसी भी सेना की असली जीत तभी मानी जाती थी, जब उसका सेनापति जीवित होता था। मारे गए सेनापति की सेना स्वयं समर्पण कर देती थी, लेकिन अब समय लोकतन्त्र का है, यहाँ सेनापति की हार के बाद भी जश्न मनाया जाता है, हारे हुए सेनापति को बड़ी विजेता के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। हम बात कर रहे हैं बंगाल में हुए राज्य चुनावों के परिणामों की, जिसमें ममता बनर्जी स्वयं के विधान सभा क्षेत्र से हार चुकी हैं, फिर भी तथाकथित लिबरल गैंग और तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग ममता बनर्जी को देश के कद्दावर नेता और प्रधानमंत्री मोदी के विकल्प के रूप में देख रहे हैं।

विगत 2 मई को पाँच राज्यों में हुए विधानसभा के चुनाव के नतीजे घोषित हुए, उसमें सबसे ज्यादा बंगाल के परिणामों पर सबकी ध्यान टिकी थी। जैसे ही नतीजे टीएमसी के पक्ष में आया, कि तथाकथित सेकुलरवादी पार्टियों के नेता और बुद्धिजीवी वर्ग ममता बनर्जी के विषय में प्रशंसा में कसीदे पढ़ने लगे, मानों ऐसा कारनामा ममता बनर्जी ने कर दिखाया हो, जो आज तक भारतीय राजनीति में कभी नहीं हुई हो। हालांकि उनकी गलती नहीं है, जब सभी जगहों से कोई आश नहीं बची हो, तो कहीं से कोई उम्मीद मिलने से ऐसे ही हालत होती है, क्योकि वर्तमान समय में सारे विपक्षी मुद्दा विहीन राजनीति करने को मजबूर हैं।

हार तो उसकी हुई है जो सबसे पुरानी पार्टी का होने का दंभ करती है। हार के विषय में कांग्रेस से ज्यादा चिंता करने की जरूरत किसी को नहीं है, फिर भी कांग्रेस खुश है, उसे पहले से ही मालूम था कि हम किसी कीमत पर जितना तो दूर की बात है, सम्मानजनक सीट भी लाना मुश्किल है, इसलिए कोरोना के आड़ लेकर राहुल गांधी का चुनावी रैली को रद्द करना यह एक हार से बचाने का बहाना था। कांग्रेस यह बात से खुश है कि भाजपा की सरकार नहीं बन पायी, भाजपा जीत नहीं पायी। कांग्रेस अपनी हार के पीड़ा से अधिक भाजपा के हार से अधिक खुश है, यूं कहें तो कांग्रेस अब किसी भी प्रदेश में बराबर की लड़ाई लड़ने के लिए तैयार नहीं है, उसे आत्ममंथन करने की आवश्यकता है, क्योंकि राहुल गांधी से उम्मीद करके राहुल गांधी के कंधे पर भार देना न्याय नहीं है।

अगर भाजपा 3 सीट से 76 सीट पर पहुँचती है, तो क्या उसकी नैतिक जीत नहीं कही जा सकती है? क्या मोदी शाह की जोड़ी को सफल नहीं कहा जा सकता है। जहां इतने सीटों की उम्मीद नहीं थी, वहीं 76 सीट जीतकर अपनी विजय रथ को आगे बढ़ाने में सक्षम हुई है, और खासकर मुख्यमंत्री को हराकर जिस तरह से विजय प्राप्त की है, वह केंद्रीय नेतृत्व का श्रेय जाता है। जब भाजपा भारतीय राजनीति के अस्तित्व में आया था, तो उस समय उसकी लोकसभा में सीट 2 थी, लेकिन आज वह विश्व की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी है। हाँ भाजपा और बड़ी सफलता हासिल कर सकती थी, लेकिन देश के हालात परिस्थिति के अनुकूल नहीं थे। कोरोना महामारी के कारण लोग वोट देने घर से नहीं निकले, जो समान्यतः भाजपा के वोटर थे और ऊपर से यह दुष्प्रचार यह किया कि कोरोना के समय में भाजपा के तरफ से रैलियों को ज्यादा महत्व दिया गया, और दुष्प्रचार बहुत हद तक सफल भी हो गयी क्योंकि केंद्र में भाजपा की सरकार है, इसलिए लोगों को लगा कि सरकार रैलियों में व्यस्त है और कोरोना के प्रति ध्यान नहीं दे रही है। और दूसरी बात है कि जो देश में तथाकथित शांतिप्रिय समुदाय हैं, जो अल्पसंख्यक कहे जाते हैं, वे कोरोना से वेफिक्र सिर्फ भाजपा को किसी तरह सत्ता में नहीं आने देने के लिए घर से निकले और वोट किए, हालांकि इसमें वर्षो से विश्वनीय अपनी पार्टी कांग्रेस को भी दगा दे गए।

हमें यह सोचना होगा कि हमने किस तरह से विकास की बात करने वाले को न चुनकर एक ऐसी सरकार को पुनरावृति किए हैं, जो चुनाव परिणाम अपने पक्ष में आने के साथ ही हिंसा करने लगी है। क्योंकि जिस प्रकार पिछले दस सालों में सांप्रदायिकता और तुष्टीकरण की राजनीति करके सरकार चलायी गयी है, वह जगजाहिर है। भाजपा को यह रणनीति बनानी होगी कि बाहरी होने का आरोप जिस प्रकार से लगाया गया है, उसे जबाब देते हुए एक ऐसी स्थानीय नेता को स्थापित करे, जो बंगाल की धरती से हो। क्योंकि भाजपा कभी हारती नहीं है’, ‘या तो वह जीतती है, या वह सीखती है’’। यही भाजपा का मूलमंत्र है।

ज्योति रंजन पाठक –औथर व कौलमनिस्ट

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