पुस्तक- ईमानदार मार्गदर्शक

यह निर्विवाद सत्य है कि पुस्तक इन्सान की सबसे बढ़िया दोस्त/साथी/मार्गदर्शक होती हैं। पुस्तक ज्ञान का भंडार होती है। फिर चाहे वे धार्मिक हो, शैक्षिक या मनोरंजक हो। हमारे वेद पुराणों के समय से, जब से उन्हें पुस्तकों के रूप में लिखा गया है, तब से लेकर आज तक एवं आगे आने वाले समय मे भी पुस्तक के महत्व एवं उपयोगिता को नकारा नही जा सकता। इसके बावजूद आज के समय में कम्प्यूटर और इन्टरनेट के प्रति लोगों का लगाव अधिकाधिक हो जाने से पुस्तकों का महत्व कम होता दिखाई दे रहा है। वर्तमान में पुस्तक का उपयोग करना आजकल की पीढ़ी को कठिन लगता है क्योंकि उनके हाथ में उनका अपना गूगल सदैव रहता है और वे उसी से प्रभावित है। किन्तु उसके दुष्परिणाम भी जग जाहिर है। जैसा कि सभी जानते हैं की नेट पर लगातार बैठने से आँखों और मस्तिष्क पर भी बुरा असर अनुभव किया जा रहा है। इसी कारण पुस्तकों के प्रति लोगों में आकर्षण पैदा करने की आवश्यकता महसूस हुई। दूसरे शब्दों में जब पुस्तकों से लोगों का लगाव कम होना परिलक्षित हुआ, तब 193 सदस्य देश तथा 6 सहयोगी सदस्यों की संस्था संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) को किताबों और मनुष्यों के बीच बढती दूरी को पाटने के लिये ‘विश्व पुस्तक दिवस’ मनाने का सोचना पड़ा। 

उपरोक्त निर्णय के बाद 23 अप्रैल, सन 1995 को पहली बार ‘पुस्तक दिवस’ मनाया गया, जबकि इसकी नींव तो 1923 में स्पेन में पुस्तक विक्रेताओं द्वारा प्रसिद्ध लेखक मीगुयेल डी सरवेन्टीस को सम्मानित करने हेतु आयोजन के समय ही रख दी गई थी। आप की जानकारी के लिये 23 अप्रैल वाला दिवस साहित्यिक क्षेत्र में अत्यधिक महत्वपूर्ण है इसलिये ही इसका चयन एक  निश्चित विचारधारा के अंतर्गत किया गया था यानि लेखकों को श्रद्धांजलि देने के लिये, पूरे विश्व भर के लोगों का ध्यान खींचने के लिये इस तारीख की घोषणा यूनेस्को द्वारा की गयी।

सुप्रसिद्ध विश्वविख्यात लेखक विलियम शेक्सपीयर, जिनकी कृतियों का विश्व की समस्त भाषाओं में अनुवाद हो रखा है, का देहांत 23 अप्रैल, 1564 को हुआ था और मीगुयेल डी सरवेन्टीस का भी देहांत 23 अप्रैल को ही हुआ । इन दोनों के अलावा भी इस तारीख को साहित्य जगत के अनेक विभूतियों जैसे  गारसिलआसो डी लाव्हेगा, मारिसे ड्रयन, के. लक्तनेस, ब्लेडीमीर नोबोकोव्ह, जोसेफ प्ला तथा मैन्युएल सेजीया का या तो जन्म अथवा निधन हो रखा है। इसी कारण यूनेस्को ने 23 अप्रैल, सन 1995 से ‘विश्व पुस्तक दिवस’ मनाना शुरू किया जबकि भारत में भारत सरकार ने 2001 से इस दिन को विश्व पुस्तक दिवस के रूप में मनाने की मान्यता दी। इस तरह अंतरराष्ट्रीय सहयोग तथा विकास की भावना से प्रेरित होकर आज विश्व के 193 देशों में लाखों नागरिक, सैकड़ों स्वयंसेवी संगठन, शैक्षणिक, सार्वजनिक संस्थाएँ, व्यावसायिक समूह तथा निजी व्यवसाय से जुड़े व्यक्ति इस पुस्तक दिवस को मनाते हैं। जबकि इंग्लैंड तथा आयरलैंड स्थानीय कारणों से यह आयोजन 3 मार्च को करते हैं। 2001 से लेकर आज तक हर साल 23 अप्रैल को भारत में भी पुस्तक दिवस निरन्तर मनाया जा रहा है।

किताबों का हमारे जीवन में क्या महत्व है, इसके बारे में बताने के लिए ‘विश्व पुस्तक दिवस’ पर शहर के विभिन्न स्थानों पर सेमिनार आयोजित किये जाते हैं। जहाँ एक तरफ इन सेमिनारों के माध्यम से  स्कूलों में बच्चों को पढ़ाई की आदत डालने के लिए सस्ते दामों पर पुस्तकें बाँटने जैसे आयोजन किये जाते हैं वहीँ पुस्तकालयों में विचार गोष्ठी आयोजित कर सभी को समझाया जाता है कि पुस्तकें न सिर्फ ज्ञान देती हैं, बल्कि कला, संस्कृति, लोकजीवन, सभ्यता के बारे में भी बताती हैं। इसी तरह सभी को यह भी बताया जाता है कि पुस्तकें  ही हम सभी में  में अध्ययन की प्रवृत्ति, जिज्ञासु प्रवृत्ति, सहेजकर रखने की प्रवृत्ति और संस्कार रोपित करती हैं।इन गोष्ठीयों में  किताबों के चयन और लेखन दोनों पर खुल कर विचार-विमर्श भी किया जाता है।

निष्कर्ष में यही बताना चाहूँगा कि किताबें सोच बनाने व बदलने का माद्दा रखती हैं क्योंकि किताबें हमें अतीत, वर्तमान और भविष्य तीनों काल की जानकारी देती है। इसी कारण से ही कहा जाता है कि एक अच्छी किताब हमें सफलता के शिखर तक पहुंचाने में सहायक हो सकती है। इसलिये जो भी ब्यक्ति पढ़ेगा, लिखेगा फिर उस पर अमल भी करेगा तो नि:सन्देह वह एक काबिल नेता बन पायेगा। यहाँ नेता से मतलब केवल राजनेता नहीं बल्कि उस उच्च पद से है जो वो अपने समुदाय, समाज या कहीं और भी हासिल करता है यानि वहाँ वह अपनी उस अग्रणी भूमिका को सफलतापूर्वक निभा भी पायेगा और यश व सम्मान भी हासिल कर पायेगा। इसलिये ही 20वीं शताब्दी की सुप्रसिद्ध लोकप्रिय अमरीकी नारीवादी लेखिका, पत्रकार, दार्शनिक और साहित्य समीक्षक मार्गरेट फुलर ने कहा था- “आज पढ़ने वाला कल नेता होगा।”

उपरोक्त सभी तथ्यों से यह तो स्पष्ट होता ही है कि पुस्तकें हमारी सच्ची मित्र हैं, ईमानदार साथी भी है और मार्गदर्शक भी, जो प्रत्येक परिस्थिति में बखूबी साथ निभाती है और इन्हीं तथ्यों को संक्षेप में विश्व विदप्रथम व्याकरणाचार्य स्व.पंडित कामता प्रसाद की पौत्री तथा स्वनाम धन्य भाषाविद् डॉ. राजेश्वर गुरू की विद्वान पुत्री डॉ. अनामिका रिछारिया, जो एक डॉक्टर के साथ साथ ख्यातिप्राप्त कवियित्री भी हैं, ने “सूझे ना जब कोई निदान, पुस्तक से मिले समाधान” उल्लेखित कर हम सभी को पुस्तकों से लगाव न छोड़ने का आग्रह किया है। इसलिये हमें कम्प्यूटर और इन्टरनेट पर समय व्यतीत करने के बजाय हमेशा ज्ञानवर्द्धक पुस्तकों को पढ़ते रहना  चाहिये यानि पठन-पाठन वाली परम्परा कायम रखनी चाहिये ताकि आने वाली पीढ़ी में ज्ञान हस्तांतरित करने के इस  सशक्त माध्यम को गतिशील बनाये रखने में हमारी  सक्रिय भूमिका दर्ज रहे।

गोवर्धन दास बिन्नाणी ‘राजा बाबू’

Disqus Comments Loading...