एक देश, एक विधान और एक संविधान क्यूँ भारत में मजाक बन कर रह गया है?

संविधान भारत के हर नागरिक को एक समान देखता है, कानून के आगे सब बराबर हैं, हमें संविधान ने बराबरी के हक ओ हुकूक दिए हैं। भारत का संविधान आपको बोलने की (किसी किसी को गाली देने की भी) आज़ादी देता है।

ये जुमले आपने अक्सर लोगों को कहते, लिखते सुना और पढ़ा होगा। अक्सर ये हमें सच लगता है, लेकिन कभी कभी ये सच, जमीनी हक़ीक़त से दूर आसमानी अफसानों के नजदीक दिखता है, दूर और धुंधला, स्पष्टता से बैर बांधे हुए।

इन बातों की बानगी आपको पुलिस के चलते डंडे (जिन पर सिर्फ आम आदमी का हक है) कर देते हैं, वहीं कहानी के दूसरे किरदारों (जिनमें सियासतदां और अपराधी प्रमुख हैं) पर उनकी जीहुजूरी आपके संवैधानिक हक़ ओ हुकूक का मजाक उड़ाती दिखती है।

मसलन, डोकलाम विवाद के समय, देश का एक प्रमुख राजनेता चीनी राजदूत से मिलने जाता है, रात के स्याह अंधेरों में मुलाकात होती है, और गौर कीजिये उसके बाद से ही वो राफेल डील के बेसुरे नगमे चिंघाड़ने लगता है। यहाँ सवाल ये है, कि क्यूँ इसमें आपको देशद्रोह नहीं दिखता? क्यूँ उसका हर दौरा विशेष रुप से गुप्त रखा जाता है? क्यूँ उसे गद्दारी करने दी जाती है? मीडिया गिरोह के इस लाडले, प्रतिष्ठित महामूर्ख को देश की बड़ी हस्ती के रुप में लिया जाता है, जबकि आप भी जानते है, वो ऐसा मल-ईन ईधन है, जो न लीपने के काम आ सकता है, न पोतने के, न थापने के, न चूल्हा सुलगने के।

कहानी का एक पहलु ये भी है, कि हमने नेताओं के पैरों में पड़े प्रशासनिक अधिकारी भी देखे हैं, लार टपकाते लेकिन जब आम आदमी से सामना हो तो बच्चे के सामने उसके पिता को “फ्लॉयड मोमेंट” देते उन पुलिसकर्मियों को शर्म भी नहीं आती। यहाँ कोई “गरीब लाइव मैटर्स” वाला कैंपेन नहीं चलता, क्यूंकि कोरोना नियम हमें इसकी इजाजत नहीं देते, यूपी वाले लाल टोपी टेढ़ी नाक भैया को देते हैं क्यूंकि बड़े नेता हैं वो।

बंगाल चुनाव में भीड़ जुटाते नेता, क्यूँ हमें स्कूल और कॉलेज नहीं जाने देते? मतलब त्वाडा कुत्ता टॉमी, साडा कुत्ता कुत्ता? इसके बाद कहते ही नहीं चीखते हैं, कि लोकतंत्र में सब बराबर हैं?

अचानक से एक मजहबी उन्मादी भीड़ आती है, आँखों में खून लिए(जो एक गोली चलते ही उलटे पैर दौड़ भी लेती है), जो अक्सर गैरकानूनी काम से पेट भरती है, उसकी तोड़फोड़, दंगे और आतंकवाद पर भी इटालियन अम्मा आंसू बहाती है लेकिन कश्मीरी पंडितों के बलात्कारी, हत्यारों के साथ देश का प्रधानमंत्री भी लंच करता है, नया वाला एक मजहब की लड़कियों की शादी पर पैसे बांटने की रवायात शुरू करता है, उसके बाद भी मजहब का दुश्मन बना रहता है, लेकिन वोटिंग पैटर्न के समीकरण हैं कि बदलते ही नहीं। उम्मीद है कि नोबल का शांति पुरस्कार ले सके, एक प्रदेश की महिला मुख्यमंत्री सरे आम केंद्रीय बालों को घेरने(जिसका असली मतलब मारने) के लिए कहती है और मृतप्राय चुनाव आयोग, सिर्फ 24 घंटे का चुनाव प्रसार ही बैन कर पता है, जिसके बदले में उस पार्टी का एक मुर्ख सांसद, लोकतंत्र की हत्या के गाने गाता है।

कहाँ बराबर हैं सब? बिहार के मुख्यमंत्री ने चारा तक खाया, उसके बाद इतने वर्षों तक सांसद रहा, अपनी अनपढ़ बीवी को मुख्यमंत्री बना गया, कुपढ़ और निकम्मे बेटों को, जिन्होंने ठीक से पैन पेपर नहीं देखे, उन्हें मंत्री बना गया, खुद रेल मंत्री रहा, विदूषक बन अब जेल गया और वहां से तबियत ख़राब का बहाना बना अस्पताल नुमा विला में ऐश काट रहा है। सोचिये बैंक में या रेलवे के बुकिंग ऑफिस में, कोई क्लर्क, हिसाब किताब न मिला पाए, तो गबन का आरोप लगा नौकरी से निकल दिया जाता है, संपत्ति कुर्क हो जाती है, परिवार सड़क पर आ जाता है, लेकिन नेताओं और उनके चापलूस अफसरों के लिए कुछ नहीं।

एक राज्य के मुख्यमंत्री पर बलात्कार का आरोप भी लगा है, और वो आज भी अपनी कुर्सी के सुख भोग रहा है, वहीं कोई आम आदमी, जिसपर झूठे आरोप भी लग जाएं, तो उसका कानून क्या करता है हम सब जानते हैं।

आप मांगते रहिये यूनिफार्म सिविल कोड। कभी ये यूनिफार्म सिविल कोड आ भी गया तो देश में जो हज़ारों की तादाद में वीवीआईपी हैं, ये उनके ऊपर लागू नहीं होगा, और जनता तो है ही, ऐसे मूर्खों की महामूर्खता झेलने और अपने दुःख भोगने को।

जय लोकतंत्र, जय समाजवाद, जय भारत और उसको लूटते तथाकथित माननीय!!

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