समान नागरिक संहिता- देश की जरूरत

देश में जब भी समान नागरिक संहिता की बात की जाती है, तब राजनीतिक सरगर्मी बढ़ जाती है, राजनीतिक पार्टियां धर्म के हवाला देकर जनता में यह अविश्वास पैदा करने में जुट जाती है कि यह कानून धार्मिक स्वछ्न्द्ता को छिनने वाली है, लेकिन भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है, यह अपने नागरिकों के अपने –अपने धर्म की आस्था के अनुसार उन्हे उपसाना पद्धति की छुट तो देता है, किन्तु यह लोकतांत्रिक देश होने के कारण नागरिकों की आधारभूत समानता में भी विश्वास करता है। हालांकि मौजूदा भारत सरकार यानी भारतीय जनता पार्टी समान नागरिक संहिता कानून के पक्ष में हमेशा से खड़ी रही है। लेकिन अन्य राजनीतिक दलों का समर्थन नहीं मिलने के कारण समान नागरिक संहिता नहीं बनाया जा सका है, किन्तु जब एक देश –एक टैक्स लागू किया जा सकता है, और एक देश –एक चुनाव की बात चल रही है, तो समतामूलक समाज निर्माण के उदेश्य की पूर्ति हेतु एक देश एक कानून क्यों नहीं लागू किया जा सकता है।

समान नागरिक संहिता यानी यूनिफ़ोर्म सिविल कोड का अर्थ है भारत में रहने वाले प्रत्येक नागरिक के लिए एक समान कानून का होना, चाहे वह किसी भी धर्म या संप्रदाय के हों। शादी, तलाक और जमीन जायदाद के बांटबारे में सभी धर्मो के लिए एक ही कानून होगा। संविधान के अनुसार अनुच्छेद 44 के तहत राज्य की यह ज़िम्मेदारी बनती है कि यह कानून को लागू किया जाय, लेकिन राजनीतिक फायदा हेतु इस को कानून नहीं लाया गया है। हालांकि इस पर बहस समय –समय पर होती रही है। अलग-अलग धर्मों के अलग कानून से न्यायपालिका पर अतिरिक्त बोझ पड़ता है। न्यायलयों में मामलों कि सुनबाई लंबित रहते हैं, क्योंकि ज्यादा मामला होने कारण फैसला जल्द नहीं हो पाती है। जब देश एक संविधान से चलता है, तो अलग-अलग कानून की आवश्यकता क्यों? दूसरी तरफ देखें तो अपने ही देश में गोवा में कौमन सिविल कोड लागू है, यहाँ तक कई मुस्लिम देश जैसे पाकिस्तान, बांग्लादेश, मलेशिया, तुर्की, इन्डोनेशिया, सुडान और इजीप्ट में कौमन सिविल कोड लागू है लेकिन भारत में धर्मो की आजादी छिनने की बात कह कर यह कानून का विरोध होते रहा है।

वर्तमान समय के नजरिये से बात करें तो हमारा देश समान नागरिक संहिता के मुद्दे पर राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक आधार पर दो श्रेणियों में बंटा हुआ प्रतीत होता है। राजनीतिक रूप से, भाजपा समान नागरिक संहिता के पक्ष में खड़ी है, वहीं कांग्रेस एवं गैर भाजपा दल समान नागरिक संहिता का विरोध कर रही है। सामाजिक रूप से, जहां देश के चिंतक, विशेषज्ञ और देश का पढ़ा –लिखा व्यक्ति समान नागरिक संहिता के विषय में लाभ –हानि के विषय का विश्लेषण कर सकते हैं। धार्मिक संदर्भ में देखा जाय तो देश का बहुसंख्यक हिन्दू समुदाय और अल्पसंख्यक मुसलमान समुदायों में गहरा मतभेद है। हालांकि यह मतभेद धार्मिक रूप से है । देश संविधान से चलता है न कि धार्मिक ग्रंथो के आधार पर। देश में किसी भी समुदायों में क्रीमनल मामलों की सुनवाई देश के एक ही क़ानूनों के द्वारा अदालतों में होती है, तो सिविल मामलों का निपटारा अलग–अलग क़ानूनों के तहत क्यों?

समान नागरिक संहिता एकता को मजबूत करने वाली कानून है। देश के तमाम राजनीतिक पार्टियां अपनी दलगत राजनीति से परे जाकर देश के नागरिकों के विषय में सोचते हुए इस कानून को एकमत से समर्थन करना चाहिए। अगर धर्म के हवाला देकर तथाकथित धार्मिक गुरुओं द्वारा भोली -भाली जनता को इस कानून का डर दिखाकर देश में मतभेद पैदा करने की कोशिश भी करें, तो ऐसे में राजनीतिक पार्टियां देशहित में एक साथ एकजुट होकर इस कानून का पक्ष लेकर देश की जनता के साथ खड़ा होना चाहिए, क्योंकि यह कानून बहुत ही अच्छा परिणाम देने वाला है। इसमें जनता की ही भलाई है। अगर सभी नागरिकों के लिए समान कानून रहेंगे, तो लोगों में अविश्वास का भाव पैदा नहीं होगा। उंच–नीच की खाई एवं धार्मिक श्रेष्ठता साबित करने के लिए जो देश में सांप्रदायिक माहौल बनाया जाता है, उस पर हम बहुत हद तक काबू कर पाने सक्षम सिद्ध होंगे।

इसलिए तमाम राजनैतिक द्वेष से परे जाकर सभी राजनीतिक दलों को इस विषय पर गंभीरता से विचार करना चाहिए, और देश हित के खातिर अपनी राजनीतिक महत्वकांक्षा को दरकिनार करते हुए समान नागरिक संहिता का समर्थन करते हुए देश में लागू करना चाहिए।

जे आर पाठक -औथर –‘चंचला ‘ (उपन्यास)

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