लोकतंत्र के महापर्व में जागृत होता बंगाल और ममता दीदी की बौखलाहट

चुनावी बिगुल बज चुके हैं, देश के पाँच राज्यों में अगले कुछ महीनों में चुनाव होने वाले हैं। लेकिन सबसे ज्यादा रोचक जिस राज्य का चुनाव हो गया है वो है पश्चिम बंगाल। और इसे रोचक बनाने वाले शख्स का नाम है ममता बनर्जी, जिन्हें उनके समर्थक और आलोचक सभी ममता दीदी के नाम से पुकारते हैं। वे पिछले दस सालों से पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री हैं और दस सालों में उन्होंने बंगाल का जो हाल बना दिया है उस वजह से उन्हें लगातार सत्ता विरोधी लहर का सामना करना पड़ रहा है। ये वही ममता दीदी हैं जिन्होंने लगातार 34 साल सत्ता में रहने वाले वाम दलों को सत्ता से ऐसा उखाड़ फेंका कि वे आज तक संभल नहीं पाए हैं। वाम दलों के कुशासन के जवाब में बंगाल की जनता ने ममता को चुना था लेकिन उन्होंने भी कोई बेहतर शासन व्यवस्था नहीं दी और आज बंगाल भारतीय जनता पार्टी की ओर आशा भरी निगाहों से देख रहा है। लोकतंत्र में कोई भी हमेशा के लिए सत्ताधारी नहीं होता, जनता तय करती है कि कौन रहेगा और कौन जायेगा। आज ममता दीदी को अपनी कुर्सी जाती नजर आ रही है। सत्ता के जिस अहंकार ने वामपंथियों को ज़मींदोज किया उसी अहंकार का शिकार ममता भी हो चुकी हैं। यही वजह है कि उनकी बौखलाहट गाहे-बगाहे नज़र आती रहती है।

ममता दीदी की बौखलाहट का एक नज़ारा पिछले दिनों पूरे देश ने देखा जब नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के 125वें जन्मदिवस के अवसर पर आयोजित ‘पराक्रम दिवस’ के कार्यक्रम में प्रधानमंत्री की मौजूदगी में ममता जी ने अशालीन व्यवहार किया और नेताजी के बारे में बिना एक शब्द कहे मंच से चली गयीं। ममता को लगता है कि नेताजी केवल बंगाल के हैं और उनके बारे में बोलने का, उन्हें सम्मान देने का हक़ सिर्फ बंगाल के लोगों को है। उन्हें यह पसंद नहीं आया कि देश अपने भुला दिए गये सर्वोच्च सेनानी को इतनी शिद्दत से क्यों याद कर रहा है। इसलिए वे बार बार बंगाली और ‘बाहरी’ की बाइनरी बनाने की कोशिश करती रहती हैं। उन्हें यह पसंद नहीं कि कोई हिंदी भाषी बंगाल में जाकर क्यों वहाँ की जनता से जुड़ने की कोशिश करता है। यह कितनी निम्न कोटि की सोच है कि आप अपनी तुच्छ राजनीति के दायरे में अपने महापुरुषों को भी घसीट लायें। स्वाधीनता आंदोलन के दिनों में जब एक भाषा हिंदी के तले देश को एकता के सूत्र में पिरोने की कोशिश हो रही थी, हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्ज़ा देने की वकालत करने वालों में सबसे आगे नेताजी ही थे। उन्होंने अपने सबसे ज्यादा भाषण खासकर आज़ाद हिन्द फौज के सेनापति के तौर पर, हिंदी में ही दिए। आज ममता ऐसे बयान दे रही हैं कि कोई गुजराती बंगाल में आकर नहीं जीत सकता। क्या यह बयान देश की अखंडता के खिलाफ नहीं है? हमारा राष्ट्रगान कहता है “पंजाब सिंध गुजरात मराठा, द्रविड़ उत्कल बंग”। यानि अलग-अलग भाषा-भाषी लोगों की एक पहचान है – भारतीयता की पहचान। इस गीत के रचयिता कविगुरु रविन्द्रनाथ ठाकुर भी उसी बंगाल की धरती के पुत्र थे। आज वे जीवित होते तो ममता जी के बयान पर कैसे प्रतिक्रिया देते? क्या आज इस अखंड भारतभूमि को चुनावी फायदों के लिए फिर से बाँटने की कोशिश की जाएगी? ममता दीदी को ठहरकर सोचना चाहिए। वे न सिर्फ भारत विरोधी बयान दे रही हैं, बल्कि हमारे महापुरुषों का अपमान भी कर रही हैं।

लेकिन ममता ने कभी देश की परवाह ही नहीं की, उनके लिए चुनाव जीतना ही हमेशा महत्वपूर्ण रहा। चुनाव जीतने के इसी लालच में उन्होंने बांग्लादेशी घुसपैठियों को भी पश्चिम बंगाल में आने दिया। न सिर्फ आने दिया बल्कि उनको बसाया भी। सीएए के खिलाफ हमेशा बयान देती रहीं। मुस्लिम वोट बैंक के लालच में बंगाल की संस्कृति को भी ताक पर रख दिया। दुर्गापूजा और सरस्वती पूजा वहाँ धूमधाम से मनाई जाती रही है।  ममता ने इस बार सरस्वती पूजा मनाने पर रोक लगा दी। ऐसा उन्होंने पहली बार नहीं किया है, 2017 में भी उन्होंने मुहर्रम और दुर्गापूजा मूर्ति विसर्जन एक ही दिन होने पर मुहर्रम की अनुमति तो दे दी थी लेकिन विसर्जन को रोक दिया था। तुष्टिकरण की इस राजनीति में उन्होंने सीएए के खिलाफ विरोध प्रदर्शनों को भी खूब हवा दी। उनकी बौखलाहट इस कदर बढ़ी हुई है कि वे ‘जय श्रीराम’ का नारा सुनकर भी भड़क उठती हैं। यह कितना विडम्बनापूर्ण है कि आजाद भारत में हिन्दू न सरस्वती पूजा मना पायें और न अपने आराध्य श्रीराम का जयकारा कर पायें। गृह मंत्री अमित शाह ने इसपर ठीक ही प्रतिक्रिया दी है कि, “अगर लोग यहाँ जय श्रीराम नहीं बोलेंगे तो क्या पाकिस्तान में बोलेंगे”।  ममता बनर्जी की इन्हीं नीतियों की वजह से पश्चिम बंगाल में आज सामाजिक अराजकता और आतंक का माहौल है। तृणमूल के कार्यकर्ताओं को खुलेआम गुंडागर्दी करने की छूट दे दी गयी है और कानून व्यवस्था को ताक पर रख दिया गया है। ममता किसी भी केन्द्रीय संस्था को पश्चिम बंगाल में हस्तक्षेप नहीं करने दे रहीं जिस वजह से वहाँ कानून व्यवस्था चौपट हो गयी है और लोगों में भय का माहौल बना हुआ है। पिछले दिनों भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा जी के काफिले पर तृणमूल कार्यकर्ताओं द्वारा किया गया हमला इसका जीवंत उदाहरण है। कल्पना की जा सकती है कि वहाँ आम भाजपा कार्यकर्ता के साथ क्या सुलूक हो रहा होगा। बंगाल में अबतक 100 से ज्यादा भाजपा कार्यकर्ताओं की हत्या हो चुकी है और उनकी रैलियों पर लगातार हमले हो रहे हैं। क्या यह लोकतांत्रिक व्यवस्था में जायज है? केन्द्रीय गृह मंत्री ने साफ़ कर दिया है कि अगर भाजपा चुनाव जीतती है तो सरकार में आने के बाद हरेक गुनाहगार को सजा मिलेगी, हत्यारों को जेल भेजा जायेगा। वस्तुतः यह ममता के अलोकतांत्रिक और फासीवादी रवैये को दर्शाता है। वे किसी भी कीमत पर सत्ता में आना चाहती हैं। मासूम लोगों की हत्या करके भी और लोकतंत्र को ख़त्म करके भी। उनका यह रवैया उनकी अपनी पार्टी में भी है। तृणमूल कार्यकर्ताओं की नहीं बल्कि सिर्फ ममता बनर्जी की पार्टी है। वहाँ कोई आतंरिक लोकतंत्र नहीं है, हर बात में सिर्फ ममता की ही चलती है। यही वजह है कि एक-एक करके उसके सभी बड़े नेता तृणमूल छोड़कर जा रहे हैं। अभी-अभी पूर्व रेल मंत्री और तृणमूल के कद्दावर नेता दिनेश त्रिवेदी भी भाजपा में शामिल हो गये। मुकुल राय, शुभेंदु अधिकारी, राजीव बनर्जी, वैशाली डालमिया, प्रवीर घोषाल आदि अनेक नेताओं-विधायकों की लंबी लिस्ट है तृणमूल छोड़ने वालों में।

वस्तुतः तृणमूल कांग्रेस एक डूबता हुआ जहाज हो गयी है जिसके कप्तान को जहाज के साथ ही डूबना होता है। उसके वोट प्रतिशत लगातार कम हो रहे हैं। 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने 42 में 18 सीटें जीतकर बंगाली जनता के बदलते रुझान को स्पष्ट कर दिया है। 40 प्रतिशत वोटों के साथ भाजपा तृणमूल (44%) से कुछ ही पीछे थी और इस विधानसभा चुनाव में आगे निकल जाने को पूरी तरह से तैयार है। तैयारी दरअसल किसी भी पार्टी से ज्यादा मतदान करने वाली जनता ने कर रखी है। बंगाल की प्रबुद्ध जनता बदलाव के लिए तैयार है और प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में बदलते भारत की दौड़ में शामिल होना चाहती है। वो यह समझ गयी है नहीं बदलने का अर्थ मृत हो जाना है। वामपंथियों के बाद ममता ने भी बंगाल को नए दौर की जरूरतों के हिसाब से बदलने नहीं दिया और विकास विरोधी राजनीति करती रहीं। बंगाल की जनता मोदी का समर्थन न करने लगे इसलिए ममता जी ने केंद्र की योजनाओं का लाभ तक बंगाल के गरीब जरूरतमंद लोगों तक नहीं पहुँचने दिया। बंगाल के 11 करोड़ किसानों का 14 हजार रुपया प्रति किसान परिवार अभी तक बकाया है जो उन्हें दो साल से नहीं मिला। क्या ऐसी राजनीति की कोई जगह स्वस्थ लोकतंत्र में होनी चाहिए जो गरीबों के पेट पर लात मारकर, उनकी हत्याएं कर की जा रही हो। इसलिए ममता दीदी को इस बार जाना ही होगा। उनका जाना लोकतंत्र के और इस देश के हित में है। बंगाली जनता फिर एक बार नवजागरण के लिए तैयार है और उसकी ध्वजवाहक भारतीय जनता पार्टी है।

Shailendra Kumar Singh: Social Entrepreneur and Activist, Bagaha, West Champaran, Bihar
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