जातिवाद का नया रूप

जातिवाद से पीड़ित व्यक्ति सामान्यतः जातिवाद के किन दोषों की बात करता है।

१. सामाजिक तिरस्कार २. न्याय ना मिलना ३. शिक्षा ना मिलना ४. नौकरी ना मिलना ५. बैंक इत्यादि सामाजिक सुविधाओं का लाभ ना मिलना। ये सभी दोष नए रूप में पनप रहे जातिवाद अधिक प्रचण्ड मात्रा में है। और इस जातिवाद का नाम है, अंग्रेजी भाषा का हर क्षेत्र में प्रयोग। बिना अंगेजी के प्राइवेट नौकरी नहीं। न्यायालय अंग्रेजी में काम करते है, बिना अंग्रेजी के न्याय नहीं। उच्च शिक्षा अंग्रेजी में है, बिना अंग्रेजी के शिक्षा नहीं। और बैंक इत्यादि भी अंग्रेजी में ही काम करते है ये सुविधाएँ भी बिना अंग्रेजी के नहीं। और ये भारतीय अंग्रेज अन्यों को हेय दृष्टि से भी देखते है, इसमें भरपूर सामाजिक तिरस्कार भी है। जैसे तथाकथित ऊँची जाती वाले अपने को अन्यो से श्रेष्ठ समझते थे ऐसे ही अंग्रेजी वाले भी करते है। यानी जिस जातिवाद से भारत सौ से अधिक वर्षों से लड़ रहा है, उसका एक बिल्कुल नया, छद्म रूप, कालनेमी राक्षस की तरह, सामने आया है। इसका क्षद्म रूप भी पुराने जातिवाद जैसा ही है, श्रेष्ठ होने का दिखावा। और इसका जातिवाद का सर्वाधिक लाभ किस श्रेणी को है? जो पहले से सम्पन्न है।

नए जातिवाद से सर्वाधिक पीड़ित वही है जो पुराने जातिवाद से पीड़ित है। पर जातिवाद का झण्डा उठाने वालों के मुद्दों में अब तक ये समस्या है नहीं है। मानवाधिकारों की बात करने वालों के लिए मातृभाषा का अधिकार केवल भारत में मानवाधिकारों में नहीं आता। डाक्टर भीमराव अम्बेडकर के बाद शायद ही किसी ने समस्या का गहन अध्ययन किया हो, या समस्या के समाधान के लिए उसके मूल कारणों में जाने का प्रयास किया हो। क्योंकि समस्या हल करने का प्रयास कठिन होता है, घृणा पर रोटियाँ सेकना उससे कहीं सरल।

अब इसकी जड़े काफी गहरी हो चुकी है पर पुराने जातिवाद जितनी गहरी नहीं हुई है . यदि आवाज उठाई जाएगी और समस्या पर नए ढंग से बात होगी तो समाधान दिखने लगेंगे। पहला काम समस्या को पहचानना और ये देखना होता है कि उसकी जड़े कहाँ है। यदि जड़ (मूल) पर वार नहीं होता तो समस्या समाप्त नहीं होती।

अंग्रेजी की समस्या को भेदभाव और जातिवाद के परिपेक्ष में पहले नहीं देखा गया और अगर प्रयास हुए भी तो समस्या की जड़ पर नहीं हुए.एक समय था जब मातृभाषा माध्यम के स्कूलों को स्तर अच्छा था और स्कूल लोकप्रिय भी थे। फिर क्या हुआ ये लोगों की पहली पसंद नही रह गए। केवल स्कूलों पर जोर देने ये समस्या नही जाने वाली। अंग्रेजी के जातिवाद की जड़ नौकरी व रोजगार है। स्कूलों में कितना भी मातृभाषा कर लो, लोग वहाँ जाते जहाँ नौकरी दिखती है।

आज गरीब लोग भी अंग्रेजी स्कूलों की और इस भ्रम में जा अंग्रेजी से तो नौकरी मिल ही जाएगी। नहीं मिलेगी। क्योंकि इस प्रजाति ने अंग्रेजी स्कूल में नहीं सीखी है, इसने अंग्रेजी घर में सीखी है। ये अंग्रेजों की शैली में बात करना पसन्द करते है। गरीब लोग जिन अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में बच्चों को भेजते है, उनके अध्यापक इस प्रजाति से नहीं आते। ऊपर से बच्चे को समझने में जो मुश्किल आती है वो अलग। इसलिए यह एक भ्रम है कि अंग्रेजी स्कूल में पढ़कर कुछ भला होने वाला है।

सामान्य अनुभव के आधार पर ही हम देख सकते हैं, कि भारत के विद्यार्थी करीब ३०% समय तो अंग्रेजी सीखने पर ही लगा देते है. जब विद्यार्थी व्यवसाय में प्रवेश करता है तो ये समय केवल बात करने के काम आता है जो विधार्थी मातृभाषा में कर ही सकता था। इतना समय एक मातृभाषा में अध्ययन करने वाले अंग्रेज, फ्रेंच, जर्मन, जापानी, कोरियाई या चीनी को नहीं लगाना पड़ता, वो इस समय का उपयोग विषयों पर गहन पकड़ के लिए कर सकते है। पर भारत के विद्यार्थियों के पास ये विकल्प नहीं है, फिर हम कैसे गहन शोध की अपेक्षा रख सकते है।

मातृभाषा में शिक्षा का अनुकूल प्रभाव होता है, ये वैज्ञानिक तथ्य है। यद्यापि निजी उद्योंगो में अंग्रेजी आवश्यक है, पर सर्वेक्षणों के अनुसार इनमे भी वही लोग अधिक सफल हो रहे है जिन्होंने शिक्षा मातृभाषा में प्राप्त की थी। लेकिन बाद में अंग्रेजी ना सीख पाने का भय लोगों को अंग्रेजी माध्यम स्कूलों के और मौड़ रहा है। हम विज्ञान विषयों में नोबेल पुरस्कार जीतने वाले लोगों की सूची देख सकते है, मातृभाषा का प्रभुत्व दिखेगा।

भाषाओँ का विश्व इतिहास दिखता है कि जब एक सम्पन्न वर्ग दूसरी भाषा से जुड़ जाता है तो ये दूसरी भाषा केवल दो तरह से छोड़ी जाती है, या तो किसी नई भाषा का फैशन आ जाये (नई गुलामी के कारण, जैसे भारत में अंग्रेजी ने फ़ारसी का फैशन समाप्त किया) या फिर कानूनी हस्तक्षेप।

भारत इस समस्या के पीछे इस कारण मुँह नहीं छुपा सकता कि यहाँ तो अनेको भाषाएँ है। ये के अत्यन्त लापरवाहीपूर्ण बहाना है। विश्व के कई देश अनेको भाषाओँ में काम करते है, राज्यों को पूरी तरह से अपनी अपनी भाषाओँ में काम करने और उसके लिए क़ानून बनाने की स्वतंत्रता होती है। कनाडा एक अच्छा उदाहरण है, जहाँ पर मुख्य भाषा अंग्रेजी है पर क्यूबैक प्रान्त की भाषा फ्रेंच है। क्यूबेक प्रान्त में कम्पनियों और व्यवसाइयों को अंग्रेजी के प्रयोग पर सजा हो सकती है। दूसरे हम युरोपियन यूनियन को देख सकते है, जहाँ २० से अधिक भाषाएँ है। वैसे तो ये अलग अलग देश है पर इनका एक ही वीजा है और एक ही मुद्रा है, यहाँ लोग भारत के राज्यों की तरह ही एक देश से दूसरे देश में आते जाते है।

हमे विश्व में उदाहरण मिल जायेंगे। हमे सामाजिक व राजनैतिक प्रतिबद्धता की आवश्यकता है। भारत में हर राज्य अपनी भाषा के मामले में पूर्ण स्वतन्त्र होने चाहिए, और अंग्रेजी के विरुद्ध कानून बनने चाहिए।

समाधान की विस्तार में बाते करना जल्दबाजी होगी, क्योकि प्रतीत होता है ये विषय समाज में चर्चित नहीं है। इसको समस्या माना जायेगा तभी समाधान होगा।

सन्दीप दीक्षित

[ये लेख मैंने quora, प्रतिलिप, फेसबुक (worth a read page) इत्यादि पर भी लिखा। वहाँ पर इसकी पहुँच सीमित होने के कारण मैं किसी बड़े मंच की तलाश में हूँ जिसके विचार मुझसे मिलते हों। मैंने करीब 20वर्ष सॉफ्टवेयर डेवलपमेंट क्षेत्र में काम किया है. इस काम के दौरान मैं अमरीका, कनाडा, जर्मनी, फ़्रांस देशो में यात्रा की है। व्यक्तिगत तौर पर मुझे अंग्रेजी के कारण हानि नहीं हुई है, बल्कि अंग्रेजी मेरे कार्य का हिस्सा रही है। मेरी अगली पीढ़ी के पास संसाधन पर्याप्त है कि वे कोई भी भाषा थोड़े श्रम में ही सीख सकते है। कहना के अर्थ ये है कि ये कोई अंग्रेजी के खिलाफ व्यक्तिगत भड़ास नहीं है, बल्कि बौद्धिक विकास और गहन शोध कर पाने की क्षमता के मातृभाषा से जुड़े होने के कारण ये लेख आया है। मातृभाषा भारत के पुनर्जागरण का मुख्य आधार बनेगी ऐसा मेरा विश्वास है। वर्तमान में मैं औरंगज़ेब काल के इतिहास के मूल प्रमाणों को हिंदी में अनुवाद कर एक पुस्तक लिख रहा हूँ। इस प्रकार मेरा प्रयास वामपंथ रचित इतिहास का झूठ उजागर करते हुए,मातृभाषा की भी सेवा करना है]

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