लोकतंत्र में हिंसा एवं अराजकता के लिए कोई स्थान नहीं


लोकतंत्र में हिंसा एवं अराजकता के लिए कोई स्थान नहीं- लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति गहन आस्था, विकास एवं सुधार को राजनीति की केंद्रीय धुरी बनाने, आम नागरिकों के साथ प्रत्यक्ष संवाद स्थापित करने की कला में माहिर होने तथा गहरी प्रशासनिक सूझ-बूझ के कारण प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता तमाम चुनौतियों के बीच भी अब तक बरक़रार रही है। स्वाभाविक है कि उनके विरोधी भी नित नवीन अवसर की ताक में रहते हैं।

पहले जेएनयू-जामिया-एएमयू के विद्यार्थियों को उकसाकर, फिर शाहीनबाग में चल रहे धरने-प्रदर्शन को हवा देकर, फिर हाथरस में हुई कथित दलित उत्पीड़न की घटना को विश्व-पटल पर उछालकर और अब किसान-आंदोलन को खुला समर्थन देकर विपक्षी पार्टियों ने येन-केन-प्रकारेण दिल्ली की सत्ता को पाने की तीव्र लालसा एवं अंधी महत्त्वाकांक्षा को प्रकट करने में रंच मात्र भी संकोच नहीं दिखाया है। न ही न्यूनतम नैतिकता का परिचय दिया है। देखना दिलचस्प होगा कि किसानों की आड़ लेकर चली जा रही इन राजनीतिक चालों से प्रधानमंत्री मोदी कैसे उबरते हैं? वैसे बारह दौर की वार्त्ता, निरंतर किसानों से संपर्क और संवाद साधे रखने के प्रयास, उनकी हर उचित-अनुचित माँगों को मानने की पेशकश, यहाँ तक की कृषि-क़ानून को अगले डेढ़ वर्ष तक स्थगित रखने  के प्रस्ताव के बावजूद सरकार और किसानों के मध्य गतिरोध ज्यों-का-त्यों बना हुआ है। सरकार बार-बार कह रही है कि वह किसानों से महज़ एक कॉल की दूरी पर है।  बातचीत के लिए सदैव तैयार एवं तत्पर है, फिर भी किसान-नेता आंदोलन पर अड़े हुए हैं? सवाल यह है कि किसानों-मज़दूरों-विद्यार्थियों-दलितों आदि के नाम पर चलाए जा रहे इन आंदोलनों से आख़िर देश को क्या हासिल होगा?

26 जनवरी को आंदोलन के नाम पर इन कथित किसानों ने जो किया उसके बाद तो यह तय हो गया कि उनकी नीयत में ही खोट है। जिस प्रकार उन्होंने लाल किले को निशाना बनाया, तिरंगे को अपमानित किया, पुलिस-प्रशासन पर हिंसक हमले किए, बच्चों-महिलाओं आम लोगों तक को नहीं बख़्शा, जैसे नारों-झंडों-भाषाओं का इस्तेमाल किया, जिस प्रकार वे लाठी-डंडे-फरसे-तलवार-बंदूकों से लैस होकर सड़कों पर उग्र प्रदर्शन करते दिखाई दिए- वे सभी स्तब्ध एवं व्यथित करने वाले हैं। बल्कि किसी के लिए यह विश्वास करना कठिन है कि ये किसान हैं और हमारे देश के किसान ऐसे भी हो सकते हैं? यहाँ तक कि उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए दिशानिर्देशों एवं ट्रैक्टर-रैली निकालने से पूर्व सरकार से किए गए वायदों की भी खुलेआम धज्जियाँ उड़ाईं। उन्होंने इन सबको करने के लिए जो दिन चुना, वह भी अपने भीतर गहरे निहितार्थों को समाविष्ट किए हुए है। देश जानना चाहता है कि गणतंत्र-दिवस का ही दिन क्यों?

कथित किसानों के परेड की ज़ुनूनी ज़िद क्यों? लालकिला पर हिंसक हमला क्यों? उस लालकिले पर जो देश के गौरव एवं स्वाभिमान, संस्कृति एवं विरासत का जीवंत प्रतीक है। उस लालकिले पर जिसके प्राचीर से प्रधानमंत्री देश को संबोधित करते हैं। लालकिले ने इससे पूर्व भी विदेशियों-विधर्मियों के हमलों के बहुत-से ज़ख्म झेले हैं। पर उसका ताज़ा ज़ख्म व घाव उससे कहीं गहरा एवं मर्मांतक है, क्योंकि यह अपनों ने दिया है।  इसमें कोई संदेह नहीं कि इन तथाकथित किसानों ने लालकिले पर 26 जनवरी जैसे राष्ट्रीय-दिवस पर जैसा उत्पात मचाया है, किले के गुंबदों को जो क्षति पहुँचाई है उससे लोकतंत्र शर्मसार हुआ है। उससे पूरी दुनिया में हमारी छवि धूमिल हुई है, हमारे मस्तक पर हमेशा-हमेशा के लिए कलंक का टीका लगा है। और उससे भी अधिक विस्मयकारी यह है कि अभी भी कुछ नेता, तथाकथित बुद्धिजीवी इस हिंसक आंदोलन को जन-आंदोलन की संज्ञा देकर महिमामंडित करने की कुचेष्टा कर रहे हैं।

इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि लोकतंत्र में जन-भावनाओं एवं जन-आंदोलनों की अपनी महत्ता एवं भूमिका होती है। पर जन-आंदोलनों की कुछ तो कसौटियाँ होती होंगीं, उसकी कुछ तो मूल पहचान-प्रवृत्तियाँ होंगीं, उसकी कुछ तो मर्यादाएँ होंगीं। स्वतंत्रता-पूर्व से लेकर बाद के अनेक सार्थक-सकारात्मक बदलावों में जन-आंदोलनों की सचमुच महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। चाहे वह स्वतंत्रता से पूर्व का असहयोग, सविनय अवज्ञा, भारत छोड़ो या विदेशी वस्त्रों एवं वस्तुओं के बहिष्कार का आंदोलन रहा हो या स्वातंत्रत्योत्तर-काल का भूदान, संपूर्ण क्रांति, श्रीरामजन्मभूमि या अन्ना-आंदोलन। इन सबमें जनसाधारण की स्वतःस्फूर्त सहभागिता रही। तभी वे जन-आंदोलन का स्वरूप ग्रहण कर सके। इन सभी जन-आंदोलनों में यह सामान्य प्रवृत्ति देखने को मिली कि इनका नेतृत्व अपने ध्येय एवं नीति-नीयत-प्रकृति-परिणाम को लेकर भ्रमित या दिशाहीन बिलकुल नहीं रहा। बल्कि स्वतंत्रता-आंदोलनों में तो गाँधी जैसा दृढ़ एवं आत्मानुशासित नेतृत्व था, जो आंदोलनकारियों के हिंसक हो उठने पर अच्छे-भले सफल आंदोलन को भी स्थगित करने का नैतिक साहस व संयम रखता था। चौरी-चौरा में आंदोलनकारियों के हिंसक हो उठने के बाद उन्हें रोक पाना गाँधी जैसे नैतिक एवं साहसी नेतृत्व के लिए ही संभव था। सांस्कृतिक संगठनों को यदि छोड़ दें तो कदाचित राजनीतिक नेतृत्व से ऐसे उच्च मापदंडों की आज कल्पना भी नहीं की जा सकती।

यह वह दौर था जब आंदोलन के भी सिद्धान्त या आदर्श हुआ करते थे। विदेशी सत्ता से लड़ते हुए भी उन आंदोलनों में स्वानुशासन, नैतिक नियमों एवं मर्यादित आचरण का पालन किया जाता था। सरकारी नीतियों-क़ानूनों का प्रतिकार या असहमति प्रकट करते हुए भी व्यक्तियों-संस्थाओं-प्रतीकों की गरिमा को ठेस न पहुँचाने का यत्नपूर्वक प्रयास किया जाता था। लोकतांत्रिक मूल्यों एवं संयम-संवाद के प्रति आम भारतीयों की आस्था ही रही कि आज़ादी के बाद भी जागरूक एवं प्रबुद्ध नेतृत्व द्वारा कमोवेश इन नैतिक मानदंडों का ध्यान रखा जाता रहा। और जिस नेतृत्व ने इन मानदंडों का उल्लंघन किया जनमानस ने उन्हें बहुत गंभीरता से कभी नहीं लिया। उनका प्रभाव और प्रसार अत्यंत सीमित या यों कहें कि नगण्य-सा रहा। भारत ने सदैव संवाद और सहमति की भाषा को ही अपना माना। धमकी, दबाव, हिंसा, आक्रामकता और मर्यादाविहीन भाषा से भारतीय जन-मन की स्वाभाविक दूरी रही।

अपनी माँगों को लेकर अहिंसक एवं शांतिपूर्ण प्रदर्शन या आंदोलन आंदोलनकारियों का लोकतांत्रिक अधिकार है। और लोकतंत्र में इसके लिए सदैव स्थान रहता है। यह सरकार और जनता के बीच उत्पन्न गतिरोध एवं संवादहीनता को दूर करने में प्रकारांतर से सहायक भी है। पर बीते कुछ वर्षों से यह देखने को मिल रहा है कि चाहे वह जे.एन.यू-जामिया-एएमयू में चलाया गया विद्यार्थियों का आंदोलन हो, चाहे नागरिकता संशोधन विधेयक के नाम पर शाहीनबाग में मुसलमानों का; चाहे दलितों-पिछड़ों के नाम चलाया गया आंदोलन हो या वर्तमान में कृषि-बिल के विरोध के नाम पर; ये सभी आंदोलन अपनी मूल प्रकृति में ही हिंसक और अराजक हैं। अपनी माँगों को लेकर देश की राजधानी एवं क़ानून-व्यवस्था को अपहृत कर लेना या बंधक बना लेना, हिंसक एवं अराजक प्रदर्शनों द्वारा चुनी हुई लोकतांत्रिक सरकार पर परोक्ष-प्रत्यक्ष दबाव बनाना, सरकारी एवं सार्वजनिक संपत्ति को क्षति पहुँचाना, आने-जाने के मुख्य मार्गों को बाधित एवं अवरुद्ध करना, निजी एवं सरकारी वाहनों में तोड़-फोड़ करना, घरों-दुकानों-बाज़ारों में लूट-खसोट, आगजनी करना, राष्ट्रीय प्रतीकों एवं राष्ट्रध्वज का अपमान करना, मार-पीट, ख़ून-खराबे आदि को अंजाम देना- इनके लिए आम बात है।

ऐसी हिंसक, अराजक एवं स्वेच्छाचारी प्रवृत्तियाँ किसी भी सभ्य समाज या लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए मान्य एवं स्वीकार्य नहीं होतीं, न हो सकतीं। इन सबसे जान-माल की भारी क्षति और रोज़मर्रा की ज़िंदगी तो बाधित होती ही होती है। आम नागरिकों के परिश्रम और कर से अर्जित करोड़ों-करोड़ों रुपए भी व्यर्थ नष्ट होते हैं, पुलिस-प्रशासन की ऊर्जा अन्य अत्यावश्यक कार्यों से हटकर प्रदर्शनकारियों को रोकने-थामने पर व्यय होती है, विकास की गाड़ी पटरी से उतरती है, पूरी दुनिया में देश की छवि धूमिल होती है, विदेशी निवेश प्रभावित होते हैं, पर्यटन और व्यापार पर प्रतिकूल असर पड़ता है और अनुकूल एवं उपयुक्त अवसर की ताक में घात लगाकर बैठे देश के दुश्मनों को खुलकर खेलने और कुटिल चालें चलने का मौक़ा मिल जाता है।


उल्लेखनीय है कि गाँधी स्वयं सत्याग्रह, असहयोग, सविनय अवज्ञा, अनशन-उपवास जैसे प्रयोगों को कमज़ोरों-कायरों-दिशाहीनों के लिए सर्वथा वर्जित एवं निषिद्ध मानते थे। कदाचित वे इसके संभावित दुरुपयोग का अनुमान लगा चुके थे। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि प्रायः तमाम उपद्रवी एवं अराजक तत्त्व भी स्वतंत्रता-आंदोलन में आजमाए गए इन प्रयोगों की आड़ में अपने हिंसक एवं अराजक व्यवहार को उचित एवं सही ठहराने की दलीलें देते हैं। व्यवस्था-विरोधी या आंदोलनरत समूहों-संगठनों को यह याद रखना होगा कि उनकी लड़ाई अब किसी परकीय या विदेशी सत्ता से नहीं है। अपितु वे लोकतांत्रिक पद्धत्ति से चुनी हुई अपनी ही सरकार तक अपनी बातें-माँगें पहुँचाना चाहते हैं। विधायिका और कार्यपालिका का तो काम ही सुधार की दिशा में क़ानून बनाना है। भारत में कोई स्विस-संविधान की तरह जनमत का प्रावधान तो है नहीं। यहाँ चुने हुए विधायक-सांसद ही जनता के प्रतिनिधि माने जाते हैं। वे ही सरकार और जनता के बीच सेतु का काम करते हैं। सरकार तक अपनी भावनाओं को पहुँचाने के तमाम पारंपरिक माध्यम भी जनता के पास मौजूद हैं ही। वैसे भी लोकतंत्र में जनता ही सर्वोपरि होती है। हर चुनाव में सत्तारूढ़ दल के समर्थन या विरोध में उसे अपने मताधिकार के निर्णायक प्रयोग का अवसर मिलता है। आंदोलनरत स्वरों-समूहों को यह भी ध्यान रखना होगा कि जिन करोड़ों लोगों के समर्थन से कोई दल सत्तारूढ़ होता है, आख़िर उनके मत का भी कुछ-न-कुछ महत्त्व तो होता ही है! और होना भी चाहिए। क्या हम कल्पना में भी ऐसे समाज या तंत्र की कामना कर सकते हैं, जिसमें हल्ला-हंगामा करने वाले हुड़दंगियों-उपद्रवियों एवं अराजक तत्त्वों की तो सुनवाई हो, पर शांत-संयत-प्रबुद्ध-विधायी-अनुशासित नागरिक-समाज के मतों की उपेक्षा कर दी जाय?

संवेेेदनशील एवं सरोकारधर्मी सरकारों का अर्थ यह तो नहीं कि उसमें केवल प्रतिरोधी स्वर ही सुने जाएँ और समर्थक या बहुमत स्वरों की घनघोर उपेक्षा की जाय? दुर्भाग्य से अपने देश में धर्मनिरपेक्षता के नाम पर अधिकांश सरकारों ने यही किया और अब तमाम आंदोलनों के नाम पर यही हो रहा है। यह सरकार और विपक्ष दोनों की जिम्मेदारी बनती है कि वह उन नागरिकों को समुचित प्रश्रय एवं प्रोत्साहन दे जो राष्ट्रहित को सर्वोपरि रखते हुए ईमानदार करदाता एवं अनुशासित नागरिक के रूप में अपने कर्त्तव्यों का निर्वाह करते हैं। भिन्न-भिन्न प्रकार के आंदोलन या विरोध का नेतृत्व करने वाले नेताओं या समूहों की भी यह नैतिक जिम्मेदारी बनती है कि वे अपने भीतर के अराजक एवं उपद्रवी तत्त्वों की पहचान कर उन्हें बाहर का रास्ता दिखाएँ। संसदीय प्रक्रियाओं को खुलेआम चुनौती देने, संस्थाओं को धूमिल, ध्वस्त एवं अपहृत करने तथा क़ानून-व्यवस्था को बंधक बनाने की निरंतर बढ़ती प्रवृत्ति देश एवं लोकतंत्र के लिए घातक है। इन पर अविलंब अंकुश लगाना समय और सुव्यवस्था की माँग है। कदाचित एक भी सच्चा भारतवंशी नहीं चाहेगा कि दुनिया उसके महान एवं प्राणप्रिय भारतवर्ष की पहचान एक अराजक एवं स्वेच्छाचारी राष्ट्र-समाज के रूप में करे।


प्रणय कुमार

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