लोकतंत्र, अमेरिका और सत्ता परिवर्तन

सुदूर पश्चिम में प्राकृतिक संसाधनों और मानव के अनुशासन का एक बेहतरीन मिश्रण है जो तीसरी दुनिया के युवाओं के लिए ख्वाब-ओ-तसव्वुर-ए-जन्नत से ज्यादा ही कुछ है। नाम है अमरीका, यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ़ अमेरिका। क़ानून व्यवस्था, लोकतंत्र और सुचारु व्यवस्था के साथ पैसे और पावर का अद्भुत संगम, मोहल्ले का ऐसा शरीफ जिससे बड़ा गुंडा पुरे शहर में कोई भी नहीं। इस अमरीका में नए साल के पहले हफ्ते में बवाल हुआ, बवाली लोग अपने चचा ट्रंप के लोग थे। चचा के रिटायरमेंट में रिजॉइनिंग की गुंजाइश ढूंढ़ने कैपिटल हिल स्थित संसद में घुस लिए, बवाल काटा, गोलियां चलीं, चार लोग निपट भी गए और चचा को हासिल तो क्या ही कुछ होना था, बड़े बेआबरु होके तेरे कूचे से हम निकले वाला गाना बज गया। बैकडोर एंट्री की तमाम कोशिशें भी बेकार ही साबित हुईं। चचा को साथ वाले अकेला छोड़ गए। 

अब बात कि ये यकायक हुआ क्या और क्यूँ हुआ, पिछले साल हुए हैशटैग ब्लैक लाइव्स मैटर कैंपेन के बाद का सबसे बड़ा कांड यूँ अचानक कैसे हो गया जिसमे तमाम सांसदों को खतरा पैदा हुआ, जी हाँ, वही खतरा जिसमे इंसान रुख्सत-ए-दुनिया हो जाता है। अब बात ये है कि हमारे यहाँ की विधान सभाओं और संसद में तो ये काम माननीय लोग खुद ही कर लेते हैं, जनता को इस तकलीफ में नहीं डालते। अभी हाल में पहलवान-ए-राज्य सभा, संजय सिंह ने मेज पर नाच कर, मार्शलों से बदतमीजी कर  सांसदों का ही नहीं, पूरे देश का मनोरंजन किया, लेकिन अमरीका वाला बवाल लोकतंत्र का पूरी दुनिया को पाठ पढ़ते अमरीका को पहली बार मुकर्रर हुआ। वो अमरीका जिसने शांति और सुरक्षा के नाम पर अफगानिस्तान और सीरिया को लगभग निपटा दिया, इराक और मध्य पूर्व के देशों को आर्थिक सहायता के नाम पर दुनिया को जो दर्द दिया वो लोकतान्त्रिक कतई नहीं था। बांग्लादेश में होते नरसंहार पर, हर उस बलात्कार पर, जिसमे पाकिस्तान के पंजाबी जनरल ‘नस्ल बदल देंगे’ के विचार के साथ, अत्याचार कर रहे थे, रिचर्ड निक्सन आँखें बंद किये हुए थे और भारत को ही ज्ञान दिए रहे। 

अमरीका और लोकतंत्र यूँ तो अमरीकन नजरिए से समानार्थक शब्द हैं लेकिन हक़ीक़त कुछ और बयां करती है, राजतंत्र में शक्ति और मनमानी करने की क्षमता को जोड़ दें तो ये अमरीका की सच्ची तस्वीर सामने आती है। लेकिन फिर भी, ये एक लोकतांत्रिक देश का अंदरूनी मसला है, हमें उससे क्या, इस प्रोटोटाइप या मॉडल को देश विरोधी ताक़तें बिल्कुल इसी रुप में कभी न कभी प्रयोग करेंगी। बिलकुल वैसे ही जैसे शाहीन बाग़ के मवालियों ने दिल्ली में किया, जब सरकार पर दवाब न बना तो दंगे कर दिए और 53 लोग मार दिए। 

अब ये तो है वो सच जो सबने देखा, लेकिन जो हमें नहीं दिखता वो है एक व्यवस्था तंत्र के तौर पर सरकारों की असफलता। ऐसी परिस्थिति किसी भी देश को सिर्फ बेइज्जत ही कराती है, जिसमे बवाली भीड़ उन प्रशासनिक अधिकारियों के निकम्मेपन और बेवकूफी की भेंट चढ़ जाती है। इंटेलिजेंस एजेंसीज हो या लाल फीता शाही, इन्हें समझ आना चाहिए कि शाहीन बाग़ हो या सिंघु बॉर्डर, जिस जगह को घेर कर लोग बैठे हैं, वो जगह राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में आता है। अमरीका का कैपिटल हिल हो या भारत की दिल्ली, अति संवेदनशील क्षेत्र हैं, अमरीका तो फिर भी एक दिन के बवाल में शांत और स्थिर है और उन सभी बवालियों पर कार्यवाही भी करेगा लेकिन भारत के इस भीड़तंत्र पर कब कोई कार्यवाही होगी ये देखने वाली चीज है। उन प्रशासकों को जवाबदेह होना होगा जिनकी असफलता देश की शर्मिंदगी का सबब बन जाती है, जिनके लिए हवाई यात्रा और तमाम सुविधाए मुफ्त हैं और जो अपने आप को बिना ताज का महाराज समझ आम जनता को हिकारत की नजर से देख भ्रष्टाचार में भी हाथ आजमा लेता है। 

 खैर जब व्यवस्था किसी भीड़ की गुंडई के आगे मजबूर और बेबस हो तमाशा देख अपने वोट छिटकने से रोकने में लगी हो और विपक्ष इस उम्मीद में लार टपका दंगे की आग लगाना चाहता हो, समझ लीजिये किसी खूबसूरत लोकतंत्र में हैं आप।

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