जब रिपब्लिक टीवी के मुखिया अरनव गोस्वामी को महाराष्ट्र पुलिस ने गिरफ्तार किया था इंटीरियर डिजाइनर अन्वय नाइक की आत्महत्या के मामले में तब दो तथ्यों पर विशेष रूप से चर्चा हो रही थी:-
1 परिवाद (कम्पलेंट)।
3 प्रथम सूचना प्रतिवेदन (FIR)।
अब प्रश्न ये है कि क्या ईन विधिक शब्दावली से भारत की आम जनता परिचित है? क्या सामान्य नागरीको को पुलिस स्टेशन में फरियाद (परिवाद) दाखिल (पंञ्जीकृत) करने संबंधित विधायिका द्वारा उनको दिये गये अधिकारों का ज्ञान है?
उत्तर आपको मायूस ही करेगा अत: आइए हम थोड़ा ज्ञान की आदान प्रदान कर लेते हैं..
सर्वप्रथम हम देखते हैं कि परिवाद (Complaint) क्या होती है, उसके मुख्य कारक क्या है और प्रथम दृष्टया परिवाद कैसे सही साबित होती है।
परिवाद को साधारण शब्दो में परिभाषित करे तो हम कह सकते हैं कि “किसी घटित अपराध के संदर्भ में किसी ज्ञात या अज्ञात व्यक्ति के विरूद्ध, पिड़ीत व्यक्ति के द्वारा लिखित या मौखिक रूप से किया गया अभिकथन/कथन ही परिवाद कहलाता है।
अपराधिक प्रक्रिया संहिता १९७३की धारा 2(घ) के अनुसार:
परिवाद से इस संहिता के अधीन मजिस्ट्रेट द्वारा कार्रवाई किए जाने की दृष्टि से मौखिक या लिखित रूप में उससे किया गया यह अभिकथन अभिप्रेत है कि किसी व्यक्ति ने, चाहे वह ज्ञात हो या अज्ञात, अपराध किया है, किंतु इसके अंतर्गत पुलिस रिपोर्ट नहीं है।
(स्पष्टीकरण-ऐसे किसी मामले में, जो अन्वेषण के पश्चात् किसी असंज्ञेय अपराध का किया जाना प्रकट करता है, पुलिस अधिकारी द्वारा की गई रिपोर्ट परिवाद समझी जाएगी और वह पुलिस अधिकारी जिसके द्वारा ऐसी रिपोर्ट की गई है, परिवादी समझा जाएगा)।
परिवाद के मुख्य कारक:
1:- अपराध का घटित होना!
2:- अपराधी!
3:- पिड़ीत पक्ष/परिवादी/फरियादी!
4:- प्रथम दृष्टया साक्ष्य!
5:- अपराधी के द्वारा किये गये अपराधिक कार्य में उसकी नियत/मंशा/motive/आशय का शामिल होना।
एक परिवाद (Complaint) को पूर्णता प्रदान करने के लिये उपरोक्त कारको( Factors) का पाया जाना अति आवश्यक है।
1:- अपराध:- अपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 2(ढ) के अनुसार अपराध” से कोई ऐसा कार्य या लोप अभिप्रेत है जो तत्समय प्रवृत्त किसी विधि द्वारा दण्डनीय बना दिया गया है और इसके अंतर्गत कोई ऐसा कार्य भी है जिसके बारे में पशु अतिचार अधिनियम, 1871 (1871 का 1) की धारा 20 के अधीन परिवाद किया जा सकता है, अर्थात कोई भी एसा कार्य जो वर्तमान समय मे लागू किये गये किसी अधिनियम के किन्हीं प्रावधानों के अंतर्गत दण्डनीय घोषित किया गया है उसे “अपराध” कहते हैं।
2:- अपराधी:- अपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 2(ढ) में परिभाषित अपराध (अर्थात किसी दण्डनीय किसी कार्य का लोप )को करने वाला व्यक्ति अपराधी कहलाता है! साधारण शब्दो में यदि हम कहे तो अपराधिक कृत्य को करने वाला व्यक्ति अपराधी कहलाता है।
3:-परिवादी:- वो व्यक्ति जो किसी ज्ञात या अज्ञात व्यक्ति के द्वारा किये गये अपराधिक कृत्य से पिड़ीत होता है, तथा उचित कार्यवाही हेतु लिखित या मौखिक रूप से फरियाद/अभिकथन पुलिस स्टेशन के किसी भारसाधक अधिकारी या मजिस्ट्रेट के समछ करता है, परिवादी या फरियादी कहलाता है।
4:- प्रथम दृष्टया साछ्य:- से तात्पर्य यह है कि परिवाद में दिये गये तथ्यों, परिस्थितियों व अपराधी द्वारा पिड़ीत या पिड़ीता के प्रति अपराध घटित होने से पूर्व या पश्चात मे किया गये व्यवहार से अपराधिक कृत्य घटित होना स्पष्ट रूप से प्रलछित होता हो उसे प्रथम दृष्टया साछ्य कहते हैं।
उदाहरण के लिये:- “अ” व “ब” दोनो मित्र है। पैसे के लोन देन को लेकर दोनो मे झगड़ा होता है! “अ” “ब” को पैसे ना लौटाने के कारण गुस्से में मारने की धमकी देता है। फिर वो एक दुकान से एक धारदार हथियार खरिदता है और दो दिन बाद उसी घातक वस्तु से “अ” “ब” के सिर पर वार करता है। उस प्रहार से “ब” तत्काल जमीन पर गिर जाता है और उसकी मृत्यु हो जाती है।
यहाँ पर परिस्थितियों व “अ” के व्यवहार का उसी प्रकार वर्णन यदि परिवाद मे लिखित या मौखिक रूप से किया जाये तो प्रथम दृष्टया साछ्य प्राप्त हो जाता है कार्यवाही करने के लिये।
5:- अपराधी के द्वारा किये गये अपराध में उसका अपराधिक आशय भी शामिल होना चाहिये तभी उसके द्वारा किया गया कार्य अपराध की श्रेणी में आता है इसिलिये कहा है कि “Actus Non Facit Reum Nisi Mens Sit Rea” which explains that for any act to be illegal in nature it must be done with a guilty mind.
उदाहरण के लिये:- “अ” रोज नदी के किनारे निशाना लगाने का अभ्यास करता है! नदी के किनारे झाड़ियों पर रखे डब्बो पर वो निशाना लगाता है क्योंकी इन झाड़ियों के पीछे कोई नही पाया जाता! अब “अ” रोज की भाँति निशाना लगाता है परंतु इस बार गोली झाड़ियों के पीछे बैठे “ब” को लग जाती है और उसकी मृत्यु हो जाती है।
अब यहाँ पर अपराध तो हुवा पर ये एक दुर्घटना थी, क्योंकी गोली चलाते वक्त “अ” को ये पता नही था कि “ब” झाड़ी के पीछे छिपा है अत: “अ” का आशय (Intention) केवल निशाना लगाना था “ब” कि हत्या करना नहीं अत: यहाँ अपराधिक कार्य घटित हुवा परंतु उसके पिछे का आशय अपराधिक नहीं था।
चलिये उन अधिकारों की चर्चा करते हैं जिनके द्वारा हम प्रथम सूचना प्रतिवेदन (FIR) किसी पुलिस स्टेशन में दाखिल कर सकते हैं।
अपराधिक प्रक्रिया संहिता 1973 के अध्याय 12 में पुलिस को सूचना (इत्तिला) और उनकी अन्वेषण करने की शक्तियां को प्रदान करने वाले प्रावधान दिये गये हैं जो निम्नवत हैं:-
धारा 154. संज्ञेय मामलों में सूचना (इत्तिला)-(धारा 2 (ग) के अनुसार “संज्ञेय अपराध” से ऐसा अपराध अभिप्रेत है जिसके लिए और संज्ञेय मामला” से ऐसा मामला अभिप्रेत है जिसमें, पुलिस अधिकारी प्रथम अनुसूची के या तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि के अनुसार वारण्ट के बिना गिरफ्तार कर सकता है)
(1) संज्ञेय अपराध के किए जाने से संबंधित प्रत्येक इत्तिला, यदि पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी को मौखिक दी गई है तो उसके द्वारा या उसके निदेशाधीन लेखबद्ध कर ली जाएगी और इत्तिला देने वाले को पढ़कर सुनाई जाएगी और प्रत्येक ऐसी इत्तिला पर, चाहे वह लिखित रूप में दी गई हो या पूर्वोक्त रूप में लेखबद्ध की गई हो, उस व्यक्ति द्वारा हस्ताक्षर किए जाएंगे जो उसे दे और उसका सार ऐसी पुस्तक में, जो उस अधिकारी द्वारा ऐसे रूप में रखी जाएगी जिसे राज्य सरकार इस निमित्त विहित करे, प्रविष्ट किया जाएगा:
अर्थात धारा 154(1) समान्य नागरिकों को विभिन्न परिस्थितियों के अंतर्गत (FIR)/ प्रथम सूचना प्रतिवेदन संबंधित पुलिस स्टेशन में लिखवाने का अधिकार प्रदान करता है।
धारा 154 (2) समान्य नागरिको को धारा 154 (1) के अधीन अभिलिखित इत्तिला (FIR) की एक प्रतिलिपि, इत्तिला देने वाले को अर्थात FIR लिखवाने वाले को तत्काल निःशुल्क देने का प्रावधान करता है।
धारा 154(3) समान्य नागरीको को अधिकार देते हुए प्रावधानित करती है कि “यदि कोई व्यक्ति जो किसी पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी के धारा 154(1) में निर्दिष्ट इत्तिला को अभिलिखित करने से इंकार करने से अर्थात FIR ना लिखने से व्यथित है तो एसी परिस्थिति में इत्तिला (सूचना) का सार लिखित रूप में और डाक द्वारा संबद्ध पुलिस अधीक्षक को भेज सकता है जो, यदि उसका यह समाधान हो जाता है कि ऐसी इत्तिला से किसी संज्ञेय अपराध का किया जाना प्रकट होता है तो, या तो स्वयं मामले का अन्वेषण करेगा या अपने अधीनस्थ किसी पुलिस अधिकारी द्वारा इस संहिता द्वारा उपबंधित रीति में अन्वेषण किए जाने का निदेश देगा और उस अधिकारी को उस अपराध के संबंध में पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी की सभी शक्तियां होंगी।
अपराधिक प्रक्रिया संहिता में धारा 155(1) से लेकर 155(4) तक असंज्ञेय मामलों के बारे में इत्तिला और ऐसे मामलों का अन्वेषण से संबंधित प्रावधानो का निरूपण किया गया है!
अपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 156(1) से लेकर 156(3) तक संज्ञेय मामलों का अन्वेषण करने की पुलिस अधिकारी की शक्ति के प्रावधानों का निरूपण करती है।
धारा 156(3) के अनुसार “धारा 190 के अधीन सशक्त किया गया कोई मजिस्ट्रेट पूर्वोक्त प्रकार के अन्वेषण का आदेश कर सकता है।
अब जरा धारावों 154, 155 व 156 में दिये गये प्रावधानों को संयुक्त रूप से देखते हैं:-
अब यदि “अ” अपने साथ हुए किसी अपराध की FIR लिखवाने संबंधित पुलिस स्टेशन में जाता है।
क:- वो लिखित मे परिवाद (अभिकथन) या ईत्तिला देता है।
ख:-भारसाधक पुलिस अधिकारी (Sr. Inspector of Police) धारा 154(1) के तहत FIR दाखिल/लिखने से इनकार कर देता है।
ग:- अब “अ” धारा 154(3) के प्रावधानों का लाभ उठायेगा और अपनी लिखित इत्तिला (परिवाद) को संबंधित पुलिस अधिछक (SP), पुलिस कमिश्नर (CP)या सहायक पुलिस कमिश्नर(ACP) को डाक द्वारा या स्वंय हाथोहाथ दे सकता है! 15 दिन प्रतिछा करने के बाद यदि उस परिवाद (इत्तिला) पर कोई कार्यवाही नही होती
तब
घ:- “अ” धारा 156(3) के प्रावधानों का लाभ उठाते हुए सीधे संबंधित मजिस्ट्रेट के पास लिखित रूप में अपना परिवाद (इत्तिला) दाखिल कर पुलिस द्वारा FIR दाखिल कर जाँच व अन्वेषण कर रिपोर्ट सौपने की मांग कर सकेगा।
हमारे देश के नागरिको (खासकर ग्रामीण समाज के लोगों) के मस्तिष्क में पुलिस अधिकारियो की वही छवि आज तक बनी हुई है जो कभी अंग्रेजो के ज़माने के जालिमो की होती थी, इसीलिए वो पुलिस अधिकारियो के सामने अपने अधिकार की बात भी नहीं कर पाते। FIR लिखवाना तो दूर की बात है वो पुलिस स्टेशन में आज के दौर में भी कदम रखने से डरते हैं। अपने क़ानूनी अधिकारों को जानना और उसका सदुपयोग करना हर भारतीय का अधिकार है और ये अधिकार उनसे कोई नहीं छीन सकता! हमारे संविधान का अनुच्छेद १४, १५, १६, १९ व् २१ हमारे अधिकारों की न सिर्फ घोषणा करते हैं अपितु उनकी पैरवी भी करते हैं।
नागेंद्र प्रताप सिंह (अधिवक्ता)