किसान आंदोलन- एक पहलू

आंदोलन क्या है सबसे पहले हमें यह समझने की आवश्यकता है! जिस समयचक्र में हम है वहाँ गुरु, ज्ञानी, वेद, पुस्तक इन सभी की मान्यता व स्वीकारता गौण हो गई है, अब तर्क-वितर्क के लिए इंटरनेट को मान्य व उचित स्रोत समझकर प्रस्तुत किया जाता है, इसी आधार पर इस समय के ब्रहम सत्य विकिपीडिया अनुसार “आंदोलन संगठित सत्ता तंत्र या व्यवस्था द्वारा शोषण और अन्याय किए जाने के बोध से उसके खिलाफ पैदा हुआ संगठित और सुनियोजित अथवा स्वतःस्फूर्त सामूहिक संघर्ष है। इसका उद्देश्य सत्ता या व्यवस्था में सुधार या परिवर्तन होता है। यह राजनीतिक सुधारों या परिवर्तन की आकांक्षा के अलावा सामाजिक, धार्मिक, पर्यावरणीय या सांस्कृतिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए भी चलाया जाता है।”

यदि उपर्युक्त व्याख्या सही है तो यह भी निश्चित है की किसान आंदोलन ना केवल संगठित और सुनियोजित सामूहिक संघर्ष अपितु इसका उद्देश्य सत्ता या व्यवस्था में सुधार (सुधार की संभवाना न्गण्य इस कारण है आंदोलनकारियों का हठ व तेवर) या परिवर्तन होता है। यह राजनीतिक सुधारों (सुधारों की संभवाना न्गण्य इस कारण है आंदोलनकारियों का हठ व तेवर) या परिवर्तन की आकांक्षा से प्रेरित है व इसका एक मात्र उद्देश्य सरकार को गिराना है| एक सत्य यह भी है की शासन या व्यवस्था ने किसी तरह का ना ही अन्याय किया है ना ही कोई शोषण| अन्याय इस लिए नही की शासन ने कोई भी किसानो को लेकर ऐसे नियम नही बनाए है जो उन्हे किसी भी तरह से उन्हें बाध्य करते हों ना ही कोई ऐसी व्यवस्था बनाई हो जो किसी भी तरह से बलपूर्वक उनका कोई शोषण करती हो| तद उपरांत भी यदि कोई आंदोलन हो रहा है तो इसका कोई तार्किक औचित्य नही है केवल निष्कर्ष ही हो सकता है|

शासन के पक्ष मे एक तर्क यह भी है की यदि नई किसान नीति दमनकारी, शोषण कारी या अन्यायपूरक होती तो वह केवल कुछ किसानों के लिए क्यों होती शेष किसानों के लिए क्यों नही| इसके केवल तीन ही कारण हो सके है प्रथम आंदोलनकारी किसानो को इस नीति की समझ नही है अथवा द्वितीय शेष किसानों को समझ है अन्यथा तृतीय व अंतिम कारण यह भी हो सकता है की आंदोलन नीति के विरोध मे नही अपितु शासन व्यवस्था के परिवर्तन के लिए है|

एक विडींबना यह भी है की लोकतंत्र मे आंदोलन कहाँ तक सार्थक है क्योंकि लोकतंत्र मे शासन लोगो द्वारा चयनित होता है इसका तात्पर्य यह है की शासन किस तरह का होगा इसका लोगो को आभास होता है और उसी अपेक्षा अनुसार लोग अपने लिए शासन व्यवस्था को चुनते है! जिन्हें संभावित शासन व्यवस्था पर संदेह या विश्वास नही होता वह लोग दूसरे विकल्प का चुनाव करते है इस तरह से प्रतिपक्ष व विपक्ष एक लोकतांत्रिक व्यवस्था को पूर्ण करते हैं| जब विपक्ष आंदोलन का मार्ग चुन कर शासन परिवर्तन का प्रयास करते हैं तो यह कदापि लोकतांत्रिक व्यवयस्था के अनुकूल नही है अपितु मेरी समझ से यह राष्ट्रद्रोह की श्रेणी मे आता है, कारण यह लोगो द्वारा चुनी शासन व्यवस्था को किए गये प्रस्तावों व संकल्पों की कार्यान्वित करने से रोकता है या उसमे अड़चने उत्पन्न करता है|

एक लोकतांत्रिक व्यवस्था मे विरोध एक महत्वपूर्ण संदेश है किंतु आंदोलन न केवल अनुचित है अपितु दंडनीय भी होना चाहिए| आइए इसे एक उदाहरण से समझते हैं, अभी हाल मे ही सर्वोच्च न्यायालय के एक अभिवक्ता श्री महमूद प्राचा के कार्यालय मे पुलिस द्वारा न्यायपालिका के आदेशानुसार जाँच-पड़ताल की कार्यवाही की गई जिसका उन्होने विरोध किया तद-पश्चात पुलिस ने उनके उपर नीतिगत कार्यवाही करते हुए प्राथमिक जाँच रिपोर्ट (FIR) मे आरोपित बनाया है, प्राचा पर सरकारी कर्मचारी को आपराधिक बल का प्रयोग करके कर्तव्य का निर्वहन करने से रोकने का आरोप है। पुलिस ने इस मामले में आईपीसी की धारा 186, 353 और 34 लगाई है।

यदि श्री प्राचा द्वारा किया गया विरोध अपराध की श्रेणी मे आता है तो संभवत संगठित और सुनियोजित आंदोलन भी न्यायिक दृष्टि से अपराध की श्रेणी मे आना चाहिए|

विरोध कीजिए, असहमति जताइए लोगो के बीच जाइए अपना पक्ष रखिए और आने वाले चुनाव में अपने समर्थन में मत मांगिए, लोकतंत्र में यही एकमात्र न्यायिक व उचित शासन परिवर्तन की व्यवस्था है, इसके विपरीत कोई भी और विकल्प केवल प्रपंच है।

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