संवैधानिक मूल्यों और कर्तव्यों के प्रति जागरुकता आवश्यक

‘हम भारत के लोग’ अपने पवित्र संविधान के अंगीकरण के 71 वर्ष पूरे करने जा रहे हैं। 26 नवंबर की तारीख को जहां पहले कानून दिवस आयोजित किया जाता था 2015 से उसे संविधान दिवस के रूप में परिवर्तित कर दिया गया। इस दिन का मुख्य उद्देश्य लोगों को संवैधानिक अधिकारों, कर्त्तव्यों व मूल्यों के प्रति जागरूक करना है।

संविधान निर्माण एकाएक हो जाने वाली घटना नहीं थी यह तो एक सम्पूर्ण प्रक्रिया की परिणति मात्र थी। शताब्दियों प्राचीन भारतीय संस्कृति ने भी इसे प्रभावित किया, तो औपनिवेशिक सरकार के विभिन्न अधिनियमों, चार्टरों, कमीशनों ने और समकालीन वैश्विक घटनाओं ने भी। इसमें प्राचीन भारत के स्वशासी संस्थाओं को भी ग्रहण किया गया तो दुनिया के अनेक संविधानों के श्रेष्ठतम निचोड़ को भी।

संविधान निर्माण प्रक्रिया 26 जनवरी 1950 को भी समाप्त नहीं हो गई बल्कि यह तो अनवरत जारी है निरंतर पुष्पित-पल्लवित हो रही है यह एक जीवंत, सतत गतिशील प्रक्रिया है जो प्रतिक्षण एक नए अध्याय को जोड़ती है। यह सिर्फ स्याही से लिख दी गई डेढ़ लाख शब्दों की सहिंता मात्र नहीं है बल्कि स्वतंत्रता संग्राम के यज्ञ में आहूति देने वाले लाखों सेनानियों के रक्त और स्वेद से सींचित है। यह प्रत्यक्षदर्शी है उस विभाजन के बाद के महापलायन की जिसमें अगणित लोग जान गंवा बैठे, यह गवाह है उन धर्मांधता के नाम पर हुए जनसंहारों की, यह साक्षी है भारतीयों को दोयम दर्जे की नागरिकता से उठकर अपनी ‘नियति का नियंता’ बनते देखने की। यही तो वह मुकद्दस किताब है जो भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की चाक पर गढ़ी गई है और उस आंदोलन की आत्मा, नैतिकता और मूल्यों को अपने में समाहित किए हुए है।

किंतु संविधान लागू कर देने मात्र से तो कार्य संपन्न नहीं हो जाता, यह तो सिर्फ आदर्शवादी बातें करके आदर्शलोक (युटोपिया) के निर्माण जैसा है। संविधान तो एक निर्जीव पुस्तक मात्र है उसमें प्राण संचार तो राजनीतिक दल और तमाम तरह के मूल अधिकार व अन्य संवैधानिक अधिकार प्राप्त करने वाली जनता के कृत्य ही करते हैं। श्री अंबेडकर का संविधान सभा की अंतिम बैठक में यह कहना कि “संविधान चाहे कितना भी अच्छा क्यों ना हो यदि वे लोग जिन्हें संविधान को अमल में लाने का कार्य सौंपा जाएगा खराब निकले तो संविधान भी खराब होगा। संविधान केवल राज्य के अंगों का प्रावधान कर सकता है उनका संचालन लोगों पर तथा राजनीतिक दलों पर निर्भर करता है।“ राजेंद्र प्रसाद ने समापन भाषण में चेताया था कि “भारत को ऐसे लोगों की जरूरत है जो ईमानदार हो और राष्ट्रहित को सर्वोपरि रखें।“ कई विघटनकारी प्रवृत्तियों से भी जैसे सांप्रदायिक, जातिगत, भाषागत और प्रांतीय अंतरों से उन्होंने बचने की सलाह दी।

आज संविधान का अपने स्वार्थ अनुसार व्याख्या कर लेना भी एक प्रमुख समस्या बनकर सामने आया है जिसके कारण देश ने आपातकाल जैसा दंश तक झेला है। संविधान द्वारा प्रदत्त मूल अधिकार भी भारतीयों को अनुपम उपहार है जो सभी को समानता से मिले हैं किंतु अधिकारों के साथ उत्तरदायित्व भी स्वतः ही आते हैं। इस संदर्भ में गांधीजी का यह कथन की “यदि हम अपने कर्तव्यों का पालन करें तो अधिकारों को खोजने हमें दूर नहीं जाना पड़ेगा” यथोचित ही है।

संविधान की अब तक की सफलता एक महान उपलब्धि है किंतु आगामी समय में चुनौतियां भी कम नहीं है आवश्यकता है कि हम संवैधानिक व नैतिक मूल्यों को सहेजें और अपने कर्तव्यों का निर्वहन करें, अन्यथा संविधान हीलियम के बक्से में बंद एक पुरानी पोथी से बढ़कर कुछ नहीं रहेगा।

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