हिंदूफोबीया ग्रस्त बॉलीवुड और वेब सीरीस

आजकल भारतीय फ़िल्मों में हिंदू देवी देवताओं का, हिंदू धर्मगुरुओं का उपहास बहुत ही सहजता से आ जाता है। कई सिरीज़ में हिंदू बाबा विलेन के किरदार में भी दिखाई देते हैं। कुछ सिरीज़ में ऐसा भी दिखता है कि बॅकग्राउंड में मंत्र बज रहे हैं और कोई हिंदू पंडित हत्या करने जा रहा है या किसी को हत्या का आदेश दे रहा है। सोशियल मीडीया पर कुछ लोग इसपे आपत्ति जता रहे हैं। उनका कहना है कि यह सेलेक्टिव टार्गेटिंग है। उनके हिसाब से यह माहौल ही देश में यत्र-तत्र निरीह साधुओं की लिंचिंग के लिए ज़िम्मेदार है।

वहीं कई युवा ऐसे भी हैं जिनको हिंदूफोबीया या हिंदू विरोधी ऐसा कुछ नहीं दिखता। इसी प्रकार कुछ लोगों का आरोप है कि फ़िल्मों में जानबूझकर अपर कास्ट को ही विलेन रखा जाता है और उन्हें लोवर कास्ट का शोषण करते हुए दिखाया जाता है।

वहीं कई दर्शक फ़िल्मों को मात्र मनोरंजन के लिए देखते हैं और किरदारों के धर्म/जाति आदि का विश्लेषण नहीं करते हैं। जो आपत्ति ले रहे हैं उनका कहना है कि ख़बरें भी सेलेक्टिव चलाई जाती हैं और कई बार अन्य धर्म के बाबाओं द्वारा किए दुष्कर्मों को हिंदूबाबा की छवि लगा कर (रेप्रेज़ेंटेशन के लिए) प्रकाशित किया जाता है, पाठक हेड्डिंग और छवि देख कर भ्रमित हो जाता है और भीतर लिखे नाम नहीं पढ़ता। फिर वहीं एक वर्ग का आरोप है कि कुछ खबरें किसी ख़ास नेता के पक्ष/विपक्ष में चलायीं जाती हैं और ज़्यादातर न्यूज़ anchors पत्रकार से पक्षकार बन गये हैं, वे दर्शकों पर अपना नज़रिया थोपना चाहते हैं, कुछ का अन्दाज़ मीठा (सटल) होता है, हृदय विदारक होता है तो कुछ का लाउड स्ट्रेट फॉर्वर्ड।

सोशियल मीडीया के माध्यम से भी कई वेब पोर्टल वही काम कर रहे हैं (अपने पसंद की विचारधारा का प्रचार-प्रसार) और सेलेक्टिव न्यूज़ रिपोर्टिंग।

कॉंटेंट क्रियेटर भी एक पाठक है और सोशियल मीडीया के ट्रेंड्स, न्यूज़ वग़ैरह भी फॉलो करता ही है। ऐसे में वह किसी ख़बर से प्रभावित होकर कुछ लिख-बना भी सकता है, ये और बात है कि बाद में पता चले कि वह ख़बर ही ग़लत थी।  सम्भव है कि कॉंटेंट-क्रियेटर एक घटना को रीजनल /कॅस्ट-न्यूट्रल होकर देखे और बेधड़क टिप्पणी दे के निकल जाये। उसका उद्देश्य किसी की भावनाओं को आहत करने का ना हो। यह भी सम्भावना है कि उसका उद्देश्य समाज में व्याप्त जातीय संघर्ष को और बढ़ाना हो।

कई बार कॉंटेंट क्रियेटर कुछ पुराना कल्ट सीन अपने अन्दाज़ में रिक्रियेट करने की कोशिश करते हैं और जो रेफरेन्स पॉइंट सेट है यदि उसमें द्रौपदी के चीर हरण के दृश्य को कॉमेडी सीन बना के प्रस्तुत किया गया है तो वह शायद रामलीला से कॉमेडी निकालना चाहे। ऐसे में यह तय करना कठिन हो जाता है कि कॉंटेंट क्रियेटर सच में हिंदूघृणा से भरा हुआ है या बस यूँही अपनी कलात्मक स्वतंत्रता का प्रयोग कर रहा है।

ईश-उपहास को क्या हम ऐसे भी समझ सकते हैं कि आप अपने इष्ट का मज़ाक़ भी उड़ा सकते हैं? अर्थात् जिस ईश्वर से आप प्रेम करें उसके पोशाक का उपहास भी सम्भव है, इसे बालमन की निष्कपटता भी समझा जा सकता है। एक सम्भावना यह भी है कि कॉंटेंट क्रियेटर नास्तिक हो और जान के अपनी विचाराधारा का प्रचार-प्रसार कर  रहा हो और वह सच में आस्तिकों की भावनाओं को आहत करना चाहता हो और यह भी सम्भव है कि वह महज कॉंट्रोवर्सी के लिए कुछ जाति-धर्म या सेन्सेशनलिज़म का तड़का लगा के क्षणिक लोकप्रियता पाना चाहता हो जिससे उसके कॉंटेंट की चर्चा बढ़ेंगी और परिणामतः पैसे ज़्यादा बनेंगे।

लेकिन एक बात ये भी है कि क्या हिंदू धर्म में फ़र्ज़ी बाबा नहीं हैं? क़्या किसी बाबा के आश्रम से बलात्कार आदि कि ख़बरें नहीं आयीं?

क्या समाज में अपर कास्ट द्वारा लोवर कास्ट का शोषण पूरी तरह ख़त्म हो गया है? ये और बात है कि लोवर कास्ट के भी कुछ लोग किसी रसूख़ वाली जगह पहुँचने पर अपर कास्ट से बदला लेते हैं लेकिन ये वो अपर कास्टe वाला नहीं होता जिसने उसे प्रताड़ित किया था। ये बिलकुल उसी तरह है जैसे किसी हिंदू द्वारा मुस्लिम की हत्या कर देने पर उसका बदला कहीं और किसी और हिन्दू को मारकर लिया जाये। और कुछ लोग ऐसे भी हैं जो ये सब देख के इस बात पर गर्व भी करते हैं कि फ़लाँ जाति ऊँची है, अच्छा किया सबक़ सिखा दिया या फ़लाँ खाँ साहब ख़ानदानी हैं वो तो ऐश करेंगे ही भले ही इसके नीचे कितने मासूमों का शोषण क्यों ना हो रहा हो।

ख़ैर मेरा कहना सिर्फ़ इतना ही है जो लोग इस बात से चिंतित हैं कि हिन्दू धर्म की छवि को ख़राब किया जा रहा है, हर बार हिंदू बाबा ही क्यों? तो वे ज़मीनी स्तर पर अपने आस पास के बीस-तीस किलोमीटर के क्षेत्र में यह शासन प्रशासन की सहायता लेकर यह सुनिश्चित करें कि वहाँ कोई फ़र्ज़ी बाबा नहीं है। जब रोग ही नहीं रहेगा तो फिर चर्चा भी रुक जायेगी। इसी तरह किसी भी प्रकार के जातिवादी घटना को तुरंत अपने आस पास देख के चिह्नित करना प्रारम्भ करें। जब वे देखें कि उनके क्षेत्र में जबरन धर्मान्तरण हो रहा है तो वे उचित संस्था को सूचित करें। बहुत अच्छा होगा कि लोग भाषा/प्रान्त/जाति/धर्म की पहचानों से ऊपर उठें। शायद तभी ये सारे विवाद समाप्त होंगे। दुःखद है यह यदि कॉंटेंट क्रियेटर सिर्फ़ एक तरह की विचारधारा को ही सही मानकर अपना एक परि-तंत्र बनाकर दूसरी किसी भी विचारधारा का गला घोंटने का प्रयत्न कर रहे हैं। और अन्तिम सलाह कॉंटेंट क्रियेटर को कि ज़रा सा अपनी ज़िम्मेदारी समझते हुए भी कलात्मक हुआ जा सकता है, सिर्फ़ पैसा बनाना ही उद्देश्य हो तो कला का गला घोंट कर तो कम से कम ना ही करें। एक कलाकार एक इन साधारण से अधिक सम्वेदनशील होता है, रूपयों की चकाचौंध में कहीं वह संवेदना ना खो जाए।

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