अमेरिकी-बिहार चुनाव

परिवर्तन ही कभी ना बदलने वाला नियम है। पतझड़ के बाद वसंत आता है, दिन के बाद रात और जवानी के बाद बुढ़ापा। ठीक उसी तरह समाज और उसके शासकों में परिवर्तन होता है। आज से करीब सौ साल पहले राजशाही ही सर्वमान्य थी और उस व्यवस्था में शासक को बदलने की प्रक्रिया नहीं थी। शासक आजीवन सत्ताधीश रहता था और उसके बाद उसकी संतति का सिंहासन पर एकाधिकार होता था। फ़िर भी उस व्यवस्था में लोग शासक बदलने के लिए बड़े-बड़े दुस्साहस करते थे। फ्रांसीसी और रूसी क्रांति के बारे में हम सब ने सुना ही है। लोकतांत्रिक व्यवस्था ने मानव समाज को पहली बार बिना खून खराबे के सत्ता परिवर्तन का मार्ग दिखाया और ये मार्ग था लोकतांत्रिक चुनावों का। यानी जनता शासक को अपनी मर्जी से चुन और बदल सकती है। यही कारण है कि समूचा जगत चुनावों को इतने कौतुक से देखता है।

विश्व पटल पर संयुक्त राज्य अमेरिका की हैसियत बड़ी मजबूत रही है और आज भी अमेरिकी सरकार दुनिया में बड़े परिवर्तन करने का माद्दा रखती है। ग्लोबल वार्मिग जैसे मुद्दों पर बिना अमरीकी सहयोग से कुछ खास हासिल नहीं किया जा सकता। पिछली सरकार अमेरिका में कुछ अजीबो-गरीब थी। उनका मुखिया ग्लोबल वार्मिंग को गप्प मानता था, कोविड़ को साधारण सर्दी जुकाम। यहां तक कि उन महानुभाव ने कभी मास्क भी नहीं पहना।। नसलवाद के विरोध में संकोच किया और सार्वजनिक जीवन में कार्यरत महिलाओं का लगातार अपमान किया।जब चुनाव आए तो परिणाम स्वाभाविक था और शासक को बदल दिया गया। अमेरिका के साथ समूचा विश्व इस निर्णय से खुश है। भारत में कुछ ज्यादा उल्लास इसलिए भी है कि अगली उपनेता वहां भारतीय मूल की होंगी।

जहां अमेरिका सबसे पुराना लोकतांत्रिक देश है वहीं भारत सबसे बड़ा लोकतंत्र है। भारत देश सच्चे अर्थ में पर्व और चुनाव का देश है। हर रोज कोई पर्व होता है और हर रोज किसी कोने में कोई चुनाव होता है। और देश की बौद्धिक राजधानी और भगवान बुद्ध की भूमि बिहार में चुनाव की अलग ही रौनक होती है। संवाद में दक्ष बिहार वासी खूब चर्चा परिचर्चा कर सरकार चुनते हैं। हालांकि ये भी सत्य है कि आजादी के बाद बिहार विकास में कुछ ज्यादा ही पिछड़ गया। सरकारी अस्पतालों में इलाज नहीं, सरकारी स्कूलों में पढ़ाई नहीं, युवा को रोजगार नहीं, सड़क- बिजली- पानी नहीं। पिछले तीस साल में आधा समय लालू जी और आधा समय नीतीश जी सत्ताधीश रहे फ़िर भी बिहार बना रहा बीमारू। हिंसक माफिया के अलावा किसी ने भी विकास का मार्ग नहीं देखा।जब ऐसी स्थिति मे चुनाव आए तो जनता के आगे सिर्फ़ दो ही विकल्प थे: पहला यथास्थिति बनाए रखना और दूसरा परिवर्तन को चुनना। जनता ने परिवर्तन को चुना, ऐसा जान पड़ता है। हालांकि भावी मुख्यमंत्री की एक ही विशेष उपलब्धि है और वो ये है कि उनके माता-पिता दोनों ही बिहार के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। वो भारतीय लोकतंत्र के युवराज हैं। भारत में नेताओं के बेटों को नेता मानने की परंपरा सी है और ऐसे युवराज हर दल में है। युवराज का नाम ही बहुत होता है, किसी काम और तमगे की जरुरत नहीं होती। लगता है कि भारतीय समाज आज भी लोकतांत्रिक नेताओं और सामंतवादी राजाओं में फ़र्क नहीं कर पा रहा। बिहार के युवराज युवा अवश्य हैं किन्तु पढ़े लिखे और अनुभवी नहीं। जनता को कुआं और खाई में चुनाव करना था।

सत्ता परिवर्तन लोकतंत्र को जिंदा रखता है और भारत में तो चुनावी प्रक्रिया और खास तौर पर ईवीएम को भी सही साबित करता रहता है। लोकतंत्र की ताकत अहंकारी शासक को वोट मात्र से उखाड़ फेंकने में है। २०२४ आने तक केंद्र में वर्तमान सरकार के १० वर्ष पूरे हो जाएंगे। केन्द्र में सरकार बदले ऐसा स्वाभाविक ही है और सत्ता परिवर्तन लोकतंत्र की दृष्टि से वांछनीय भी है। किन्तु केन्द्र में भी प्रतिनेता फ़िर से युवराज ही हैं। ऐसा लगता है कि जैसे भारतीय विपक्ष बेरोजगार युवराजों की प्लेसमेंट सेल बनकर रह गया हो। क्या भारत के भावी प्रधानमंत्री भी एक युवराज ही होंगे और क्या युवराजों की सर्वमान्य स्वीकृति भारतीय लोकतंत्र की पराजय है?

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