दलित!

दिल्ली की सड़कों पर जब हँसती खिलखिलाती प्रियंका जी अपनी इंनोवा कार का गियर चौथे से पांचवे नंबर पर शिफ्ट कर रही थी तब कुछ दरबारी पत्रकारों की बाँछे खिल रही थी। उन्हें काफी दिनों के बाद एक इवेंट की उम्मीद सी जगने लगी थी। DND का घेरा पार करने की अनुमति मिलते ही पूरा तंत्र सक्रिय हो गया। पीड़ित परिवार से मिलते ही प्रियंका जी ने अप्रत्याशित जोश के साथ घर की महिला सदस्य को गले लगाया। अचानक चकाचौंध सी हुई कैमरों की लाइटे में एक दुर्लभ तस्वीर कैद हुई। ये लगभग वैसी ही थी जैसी ऐसे मौकों पर ली जाती है और प्रियंका जी को उनकी दादी का प्रतिबिंब बताया जाता है। तस्वीर कुछ इस तरह से वायरल की गई जैसे पीड़ितों का दुख प्रियंका जी से गले मिलते ही खत्म हो गया। दैवीय स्पर्श से दुखो को सुखो के अथाह सागर में बदल दिया गया। पर अफसोस कि असल मे ऐसा कुछ नही हुआ। उस मुलाकात के बाद पीड़ित वही रह गए और बाते प्रियंका की करुणा, ममता और विशाल हृदय की शुरू हो गयी। वैसे शायद यह भी इतेफाक है कि अभी तक हर तरफ पीड़ितों का दर्द ही बाँटा जा रहा था। लेकिन अचानक राहुल प्रियंका की यात्रा से ठीक पहले हाथरस की घटना के दूसरे पक्ष के लोगो का विरोध प्रदर्शन और पंचायतों की खबरे टीवी पर आने लगी। विलुप्त होती कांग्रेस के लिए दलित सम्मान के ऐसे मौके शायद सिर्फ राजनीतिक जरूरत हैं। दलित सशक्तिकरण का कोई उदाहरण मुझे तो याद नही आता।

दूसरी तरफ प्रधानमंत्री मोदी कुम्भ स्नान के बाद दलितों के पैर धो कर उन्हें सम्मानित करते है। यह कोई तयशुदा कार्यक्रम नही होता जिसे मीडिया में इवेंट बनाया जा सके। इस सराहनीय कृत को कुछ लोग चुनाव से जोड़ते है। पर ये वही लोग है जिनकी अपनी सीटों की हवा बदल जाती है उन्हें खबर भी नही होती पर मोदी की भविष्यवाणी रोज़ करते है। भाजपा जीत को ले कर सदैव आस्वस्त थी। मोदी को किसी राजनीतिक स्टंट की जरूरत नही थी। राम जन्मभूमि पूजन का पहला प्रसाद दलित परिवार को गया। मोदी सरकार की बिजली, शौचालय, मकान जैसी योजनाओं से सबसे ज्यादा लाभान्वित समाज के पिछली पंक्ति में खड़े लोग ही हैं।

दलित जो हमेशा ही दबाया गया। दलित जिसे सामाजिक न्याय दिलाने के नाम पर कई राजनीत पार्टियों का जन्म हुआ। इस पार्टियों की सरकारें भी बनी। पर दलित कभी उल्लेखनिय प्रगति नही कर पाएं। दलित तो वही उन्ही झुग्गी बस्तियों में रह गए पर इन पार्टियों के संस्थापको की अप्रत्याशित उन्नति हुईं। कुल मिला कर दलित समाज की उसी रेखा के नीचे रह गया जो उसके लिए सदियों पहले उरेकी गयी थी।

अब सवाल यह है कि क्या दलित एक राजनीतिक पर्यटन का साधन मात्र है। क्या दलित के घर भोजन करना, या गले मिल कर फ़ोटो खिंचवाना या रात उनके घरों में गुजरना राजनीतिक संदेश देने का सबसे शक्तिशाली माध्यम बन गया है। क्या दलित को सम्मान पाने के लिए किसी हत्या, बलात्कार, या जातीय हिंसा का शिकार होना पड़ेगा? फ़ोटो तो कलावती के साथ भी खिंचवाई गयी थी। पर उसके बाद उसका क्या हुआ? आर्थिक तंगी में उसके परिजनों ने आत्महत्या तक कर ली थी।

गाँधी का दलित आज भी गाँधी के परिजनों को तलाश रहा है। उन गाँधी का किया वादा आज के गाँधी निभाने में विफल हैं। आज के गाँधी सलाहकारों के मोहताज़ हैं। सलाहकार के सलाह पर ही हर कदम आगे बढ़ाते हैं। पर समय की नब्ज शायद सलाहकारों की उंगलिया पकड़ नही पा रही। चुनावी उपयोग वाला प्रयोग अब विफल है। उसका सबसे बड़ा उदाहरण 2019 में प्रियंका जी की बहू प्रचारित लॉन्चिंग के बावजूद ज्यादातर सीटो पर कांग्रेस की जमानत तक जब्त हो गई। अमेठी की प्रतिष्ठित सीट से भी हाँथ धोना पड़ा।

विपक्ष के एजेंडे में दिखावटी सामाजिक न्याय की जगह असली सामाजिक मुद्दे होने चाहिए। दलित के घर एक दिन भोजन करने के बजाए उसे रोज़ भोजन मील पाए इसकी व्यवस्था होनी चाहिए। शिक्षा, सुरक्षा और समानता दलितों का भी मौलिक अधिकार है। विपक्षी पार्टियों को दलित का स्वर्ण विरोधी आक्रोश सुलगाने के बजाए स्वर्णो के साथ उन्हें मुखयधारा में लाना चाहिए।

महात्मा गाँधी का हरीजन बिना किसी झिझक के सबका प्रिय होना चाहिए। दलित और स्वर्ण जाती नही मानसिकता हैं और इसे बदलना बहुत जरूरी है।

~विभूति श्रीवास्तव (@graciousgoon)

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