प्रवेश-परीक्षाएं और कोविड-19: शिक्षा बनाम स्वास्थ्य

चीन जनित महामारी के इस दौर में भारत सरकार ने प्रवेश परीक्षाएँ और विश्वविद्यालयों के अन्तिम वर्ष की परीक्षा विविध रूपों में कराने का निर्णय लिया है। जब चीनी वायरस के हजार से कम मामले थे, तब पूरा भारत बन्द हुआ। आज जब 65 हजार लोग इस वायरस से असमय काल-कवलित हो चुके हैं, तब भारत में सब कुछ खुल रहा है। विशेषतः JEE/NEET और अन्य विश्वविद्यालयों की प्रवेश परीक्षाओं को लेकर चिन्ता व्यक्त की जा रही है। जाहिर है इन परीक्षाओं के आयोजन में यातायात और परीक्षा केन्द्रों के बाहर सोशल डिस्टेंसिंग का पालन हो पाना असम्भव है।

कुल मिलाकर एक ऐसी परिस्थिति है जिसमें ‘शिक्षा और स्वास्थ्य’ में से एक को चुनने जैसी दुविधा है। हालांकि स्वास्थ्य को सबसे महत्त्वपूर्ण मानकर प्रथम वरीयता देने में किसी को कोई हिचिकिचाहट नहीं है। लेकिन इस माहौल में शिक्षा व्यवस्था का भविष्य क्या होगा, यह भी चिन्तनीय है। विगत कई महीनों से हर तरह की परीक्षाओं का विरोध होता रहा है, जिसमें हमने भी कई बार इस विरोध का समर्थन किया है।

प्रवेश-परीक्षाओं का विरोध (टालने/ न आयोजित) करने वाले लोगों का मत है कि कम से कम वैक्सीन आने तक, स्थिति सामान्य होने तक, लोगों का भय खत्म होने तक परीक्षाएं टाल दी जाएं। इन परीक्षाओं में कोरोना संक्रमण का खतरा अपने चरम पर होगा और घर-घर में कोरोना के मरीजों के बढ़ने की संभावना है। अगर हम मान लें कि युवाओं की ‘इम्युनिटी’ अच्छी है तो उनके घरों में रहने वाले वृद्ध एवं मधुमेह, हृदय-रोग आदि विभिन्न स्वास्थ्य-समस्याओं से पीड़ित कम इम्युनिटी वाले सदस्यों की जान को खतरा है। अपने देश की निम्न-स्तरीय, अपर्याप्त और लुटेरी स्वास्थ्य-व्यवस्था का हकीकत भी हम जानते ही हैं। और इस समस्या का समाधान आगामी महीनों में असम्भव ही है।

अब महत्त्वपूर्ण समस्या यह है कि हम इन परीक्षाओं को कब तक टाल सकते हैं.? टालने की परिस्थिति में हमारे पास विकल्प क्या हैं.? दो विकल्प बचते हैं- 1) मेरिट के आधार पर नामांकन हो। 2) कुछ और महीने बाद परीक्षाएं हों, अधिकतम एक सत्र को शून्य किया जा सकता है। (अन्य विकल्प आप सुझा सकते हैं।)

पहले विकल्प पर चर्चा करें तो मेरिट के आधार पर (कम से कम अच्छे रैंकिंग वाले संस्थानों में) प्रवेश-प्रक्रिया का ‘एक सामान्य निर्धन परिवार से आने/पढ़ा-लिखा होने के नाते’ मैं सख्त विरोधी हूँ। अकैडमिक-मेरिट के आधार पर प्रवेश होने पर सभी 98% से ऊपर अंक प्रतिशत पाने वाले कुछ ‘बड़े विद्यालयों’ के छात्र ही अच्छे संस्थानों का हिस्सा बन पायेंगे। और सभी गुणवत्तापूर्ण उच्च शिक्षण संस्थानों से भारत का 95% छात्र समुदाय पूरी प्रवेश-प्रक्रिया से पूर्ण रूप से बाहर हो जायेगा, वंचित रह जायेगा।

प्रवेश-परीक्षाएं वह माध्यम हैं जब एक गांव, एक कस्बे के छोटे सेइंटर-कॉलेज का पढा लिखा 50-60% अंक पाने वाला छात्र भी CBSE बोर्ड और अन्य प्राइवेट संस्थानों के 99.99% पाने वाले छात्रों को धोबी-पछाड़ देता है। हर क्षेत्रीय/आर्थिक/सामाजिक पिछड़े तबके के पास प्रवेश-परीक्षाएं वह एक आखिरी मौका होती हैं जब वह गुणवत्तापूर्ण उच्च शिक्षण संस्थानों में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करता है। हम को अखबारों में कम से कम।पढ़ने को मिलता है कि फलाँ किसान/मजदूर के बेटे ने फलाँ परीक्षा में सफलता प्राप्त की। प्रवेश परीक्षाओं को रोककर मेरिट के आधार पर प्रवेश देना इस अवसर को छीनने जैसा है। ऐसा होने पर मैं स्वयं अशिक्षित रह जाता, यह मैं भली-भाँति जानता हूँ। इसलिये मैं प्रवेश-परीक्षाओं के ऐसे किसी भी विकल्प का अन्तरात्मा से समर्थन नहीं कर सकता। 

दूसरे विकल्प में समस्या है कि इन परीक्षाओं को कब तक टाला जा सकता है.? वैक्सीन आने की कोई संभावना नहीं दिख रही है। 2 महीने और टालने पर पूरे वर्ष का पाठ्यक्रम पढ़ाने के लिये 6 महीने का ही समय बच पायेगा जो अपर्याप्त होगा। प्रवेश होने के बाद कम से कम ऑनलाइन पठन-पाठन शुरू किया जा सकता है। कुछ और महीने टालने/सत्र शून्य करने में दूसरी समस्या यह है कि प्रतिवर्ष अकेले 12वीं कक्षा में 1 करोड़ छात्र परीक्षाएं देते हैं। इस वर्ष, 2020 में केवल CBSE बोर्ड से 12 लाख छात्र 12वीं की परीक्षा में भाग लिये हैं। अब इन छात्रों को अपने अग्रिम भविष्य का निर्धारण भी करना है। अपने जीवन के सबसे महत्त्वपूर्ण कालखण्ड में उनका प्रवेश सुनिश्चित होना है।

अगर हम परीक्षाएं टालते गये तो 2021 में सभी शैक्षणिक संस्थानों में सीटें उतनी ही रहेंगी और अभ्यर्थी दुगने (लगभग 2 करोड़) हो जायेंगे। अर्थात् पूरे एक वर्ष के छात्र किसी भी संस्थान में प्रवेश लेने से वर्जित रह जायेंगे, उनका भविष्य अंधकारमय होगा। और तो और इस वर्ष के छात्रों के ऊपर पूरे एक वर्ष का अतिरिक्त शैक्षणिक व्यय आयेगा जो सभी परिवारों के लिये एक अतिरिक्त आर्थिक बोझ होगा। सरकार का शिक्षा पर व्यय उतना ही रहेगा क्योंकि कर्मचारियों को वेतन आदि सुविधाएं उसे हर हाल में देनी ही हैं। छात्र शिक्षा से वंचित भी रहें और सरकार का व्यय कम भी न हो, ऐसे में सरकार का निर्णय कुछ हद तक अपने हित में है, तार्किक है, छात्रों के हित में है।

हाँ, विभिन्न राज्य विश्वविद्यालयों द्वारा अन्तिम वर्ष के छात्रों की ‘ऑफलाइन परीक्षा’ कराने का निर्णय संतोषजनक नहीं है। इसके कई बेहतर विकल्प हो सकते थे। प्रथम/द्वितीय वर्ष की भाँति अन्तिम वर्ष/सेमेस्टर को प्रोमोट करने में कोई बाधा नहीं होनी चाहिये। अन्तिम सत्र की परीक्षा के पक्ष में दिये जाने वाले तर्क, कम से कम सेमेस्टर प्रणाली में तो अनुपयोगी ही हैं। विकल्प भी हैं – ऑनलाइन परीक्षाएं करा सकते हैं। ऑफलाइन कराना ही है तो अभी कुछ महीने टाल कर ‘अपीयरिंग’ आधार पर अन्य संस्थानों में प्रवेश/ नौकरियों में आवेदन का अवसर आदि दे सकते हैं। अगले वर्ष तक कभी भी एक महीने का समय निर्धारित करके परीक्षाएं करा सकते हैं। प्रवेश-परीक्षाएं एक छात्र के लिये 2-3 हैं, वार्षिक परीक्षाएं 10 या उससे अधिक हैं। छात्रों को कैंपस जाना है, अलग अलग जगहों से जाकर साथ में रहना है, खाने पीने की व्यवस्था करनी है, पढाई कर के परीक्षा देनी है। यह सब चुनौतीपूर्ण है।

अन्य महत्त्वपूर्ण पक्ष यह भी है कि हम कब तक घरों में बैठे रह सकते हैं.? साधन-सम्पन्न लोग घरों में बैठकर सामाजिक गतिविधियों की निन्दा कर सकते हैं, लेकिन अगर साधन-विहीन समुदाय घर में बैठा रहे तो वह बीमारी के बिना ही मरने पर मजबूर होगा। अब लॉकडाउन बढ़ा पाना सरकार के हाथ से बाहर है। पूर्ण लॉकडाउन का पालन भी तब तक नहीं हो सकता जब तक सरकार अत्यधिक सख्ती से पेश न आये। कोरोना अभी हर कस्बे, हर गाँव तक पहुँच बना चुका है। जिनको होना है, घर बैठे बैठे पॉजिटिव हो जा रहे हैं। कभी न कभी हमें इसके सामने आना ही है, सामना करना ही है। यद्यपि कुछ दिन टला रहे तो बहुत बड़ी बात होगी।

लोकतांत्रिक देश में हर छोटी बड़ी समस्या के लिये समाज की अन्तिम इकाई भी सरकार को ही दोषी ठहराती है। सरकार को यह बात कम से कम पता तो होनी ही चाहिये। अगर ऐसे में सरकार लाखों छात्रों को जुटाकर परीक्षा कराने जैसा बड़ा निर्णय लेने की इच्छाशक्ति दिखा रही है, तो हमें उसका सहयोग करना चाहिये, ऐसा मेरा मानना है। सरकार को एक कदम औरआगे बढ़कर प्रतियोगी परीक्षाओं को भी समय से कराना चाहिये और प्रतीक्षारत योग्य युवाओं को रोजगार के अवसर उपलब्ध कराने चाहिये। एक पक्ष स्वास्थ्य सम्बन्धी अपने तर्कों और बिन्दुओं के आधार पर असहमत हो सकता है। और वस्तुतः उस पक्ष की चिन्ताओं का सरकार के पास कोई ठोस समाधान नहीं है, यह शत-प्रतिशत सत्य है। अतः वह पक्ष भी गलत नहीं है। किन्तु दो महत्त्वपूर्ण पक्षों में मेरी दृष्टि में प्रवेश-परीक्षाएं कराना सरकार का सही, तार्किक और साहसपूर्ण निर्णय है। प्रत्येक सामान्य नागरिक/विद्यार्थी को इस निर्णय के पक्ष में हिम्मत के साथ सरकार का सहयोग करना चाहिये।

Saurabh Dwivedi: Assistant Professor (Sanskrit), Interested in Indology, Sanskrit Poet, Proud Hindu, Banaras is ❤️
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