ऐसे थे हमारे प्रणव दा

वो कितने संवेदनशील इंसान थे उनके इस किस्से से समझा जा सकता है जो मेरी स्मृति में अब तक है। यह आलेख मैने कहाँ पढ़ा- सुना, अब मुझे याद नहीं लेकिन किस्सा हमेशा याद रहा, है भी कुछ ऐसा ही।

एक बार प्रणव दा के बचपन के दो दोस्त, उनसे मिलने दिल्ली पहुंचे। मिलने की वजह यह थी कि उन दोस्तों की अर्थिक स्थिति बिल्कुल भी अच्छी न थी तो उन्होने तय किया कि अब किसी तरह प्रणव दा से ही मदद की अपेक्षा की जा सकती है। दोनो मित्र प्रणव दा से उनके सरकारी आवास पर मिले, बचपन की यादें ताजा की और उनकी खूब अच्छी मेहमान नवाजी की गई। प्रणव दा ने जब हाल चाल जाने तो मित्रों ने अपनी यथोस्थिति से अवगत करवाया और मदद की गुहार की लेकिन पद की गरिमा और अपने दायित्व का निष्ठा से निर्वहन करने वाले प्रणव दा ने अपने मित्रों की पीड़ा तो सुनी लेकिन किसी तरह की सिफारिश या अनैतिक मदद का आश्वासन नहीं दे पाये और चर्चा के बाद मित्रों को ससम्मान विदा किया।

लेकिन संवेदनशील प्रणव दा एक कुशल राजनीतिज्ञ भी तो थे। उन्होने एक योजना बनायी। कुछ महीनों बाद वे अपने पैतृक गांव की यात्रा पे निकले और उन्होनें अपने उन्हीं मित्रों के यहां चाय-नाश्ता करने का निश्चय किया और पहुंच गये उनके घर। इस तरह अचानक एक राष्ट्रीय स्तर के दिग्गज नेता के किन्हीं साधारण लोगों के यहां आने से आसपास के क्षेत्रों में तेजी से खबर फ़ैल गई और जब लोगों को ज्ञात हुआ कि वे अपने बचपन के खास मित्रों से मिलने पहुंचे हैं तो उनके मित्र भी जन साधारण के लिये अति विशेष बन गये और बड़े बड़े लोगों के बीच उनका रसूख और मान सम्मान बढ़ गया। आगे तो आप समझ ही सकते हैं कि उनके लिये मदद और विकास के द्वार कैसे खुल गये होंगे!

यह किस्सा राजनीतिक जीवन में कितना प्रेरणादायक है कि किस तरह अपने सिद्धांतों से समझौता किये बिना अपने मित्र धर्म का पालन किया जा सकता है और समाजिक जीवन में किस तरह से समाज के उत्थान का कार्य हम कर सकते हैं अपने पद की मर्यादा का ध्यान रखते हुए।

ऐसे थे हमारे पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी।
शत शत नमन।

Aman Acharya: एक लेखक जो रहता नहीं बीहड़ में लेकिन जानता है बगावत करना।
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