स्वतंत्र भारत में दो राष्ट्र का सिद्धांत

दो राष्ट्र का सिद्धांत

सर सैयद अहमद खान ने 1875 ई. में हिंदू और मुसलमानों को अलग राष्ट्र घोषित कर दिया था। उनके अनुसार दोनों के ही अलग-अलग सामाजिक और राजनीतिक हित हैं। बाद में, पाकिस्तान की मांग को लेकर लाहौर के प्रस्ताव पर मुस्लिम लीग की चर्चा के दौरान 1940 में, जिन्ना ने दो राष्ट्र सिद्धांत की व्याख्या करी, “हिंदू और मुस्लिम दोनों के अलग धार्मिक विचार, दर्शन, सामाजिक रीति-रिवाज, साहित्य हैं। वे न तो पारस्परिक विवाह सम्बन्ध करते हैं और न ही मिलकर खाते पीते हैं और वास्तव में, वे दो अलग-अलग संस्कृतियों से संबंधित हैं, जो मुख्य रूप से परस्पर विरोधी विचारों और अवधारणाओं पर आधारित हैं। जीवन को लेकर उनके दृष्टिकोण अलग हैं। यह स्पष्ट है कि हिंदू और मुस्लिम इतिहास के विभिन्न स्रोतों से अपनी प्रेरणा प्राप्त करते हैं। उनके पास अलग-अलग महाकाव्य, अलग-अलग नायक और अलग-अलग प्रकरण हैं। बहुत बार एक का नायक दूसरे का दुश्मन होता है और इसी तरह, अक्सर एक की जीत दूसरे की हार है।” 

दूसरी ओर, पूरे स्वतंत्रता संग्राम में गांधी ने हिंदू मुस्लिम एकता पर जोर देते हुये  मुस्लिम लीग को अनुचित महत्व दिया और एकतरफा रूप से मुसलमानों की कई अनुचित मांगों को स्वीकार किया। लेकिन, मुस्लिम समुदाय उनकी सद्भावना और विश्वास के बदले में सद्भावनापूर्वक व्यव्हार करने में विफल रहा। ऐसे कई उदाहरण हैं जहां उन्होंने मंदिर में कुरान पाठ पर जोर दिया, लेकिन वह मुसलमानों को किसी मस्जिद में हिंदुओं को भजन गाने की अनुमति देने या गाय का वध करने से रोकने के लिए मना नहीं सकते थे। यहां तक कि विभाजन के बाद भी, मौलाना आज़ाद विधानमंडल में मुसलमानों के लिए आरक्षण चाहते थे। इसी तरह, नेहरू ने दिल्ली और संयुक्त प्रांत के लिए उर्दू को आधिकारिक भाषा के रूप में इस्तेमाल करने पर जोर दिया, लेकिन जी.बी. पंत ने प्रस्ताव का आक्रामक विरोध किया। बाद में प्रखर विरोध के चलते नेहरू ने उस पर जोर नहीं दिया।

स्वतंत्रता के पश्चात

स्वतंत्र भारत में, कई मुस्लिम अभी भी दो राष्ट्र के सिद्धांत में उसी तरह विश्वास रखते हैं, जैसा कि जिन्ना द्वारा समझाया गया था। इसी के चलते वे अलग राष्ट्र नायकों, अलग ऐतिहासिक प्रेरणा स्रोत और अलग युद्धों में जीत का गौरव महसूस करना उन्होंने जारी रखा है जबकि  ये राष्ट्रवादी गुण हैं और इन्हें किसी व्यक्तिगत मान्यताएँ, परंपराएँ और धार्मिक साहित्य के तौर पर नहीं देखा जा सकता है। उन्होंने तिरंगा यात्रा का विरोध किया, राष्ट्रीय गीत या वंदे मातरम गाने से इनकार कर दिया, राष्ट्रीय गीत और राष्ट्रगान का अनादर करते हुए, संहिता का उल्लंघन करा, पाकिस्तान समर्थक और भारत विरोधी नारे लगाए, जैसे भारत तेरे टुकडे होंगे, नारों के साथ भारत की संप्रभुता और अखंडता को चुनौती, जिन्ना के चित्र के सार्वजनिक प्रदर्शन की मांग, गोहत्या का समर्थन कर कानून का उल्लंघन और क्रिकेट मैचों के दौरान पाकिस्तान का समर्थन करना। ये कोई अपवाद नहीं हैं, बल्कि इन्हें  सामान्य तौर आम लोगों द्वारा अपने आस पास आसानी से देखा जा सकता है। आजादी के कई दशकों में यह उस स्तर तक पहुंच गया है, जहां मुस्लिमों ने हर उस चीज को बढ़ावा देना शुरू कर दिया, जो भारत की छवि बिगड़ती हैं और हर उस चीज को नापसंद करती है, जिसे दूर से भारतीय परंपराओं या संस्कृति से जोड़ा जा सकता है।

तुष्टिकरण की राजनीति

यदि हम उपरोक्त मुद्दों की बारीकी से जांच करें तो इनका सम्बन्ध राजनीति के नेहरूवादी मॉडल के साथ खोजना मुश्किल नहीं होगा। भ्रम और अराजकता का यह राजनीतिक मॉडल जहां विवादास्पद मुद्दों पर नेताओं और पार्टी की कोई स्पष्ट स्थिति दृष्टिगत नहीं करता है। हालांकि, इस भ्रम का उपयोग  मुस्लिम तुष्टीकरण को ढाँकने के लिए बखूबी होता है। इस प्रकार की राजनीति कुछ ज्वलंत मुद्दों पर स्पष्ट रुख अपनाने से परहेज करते हुए राजनेताओं को अधिक से अधिक लाभ लेने के लिये प्रोत्साहित करती है और निर्णय लेने में देरी करने को , इस आशा के साथ कि उचित समय पर उचित निर्णय लिया जाएगा, प्रेरित करती है।

नेहरूवादी राजनीति के मॉडल के कारण, आजादी के तुरंत बाद कई मुद्दे सामने आये , जिस पर नेहरू सरकार ने कोई निर्णायक रुख नहीं अपनाया। इसकी शुरुआत अयोध्या विवाद से हुई थी, जहां मुख्य मुद्दा यह था कि क्या मस्जिद एक मंदिर को ध्वस्त करने के बाद बनाई गई थी जो भगवान राम के जन्मस्थान पर था ? दिसंबर 1949 में, भगवान राम और सीता की मूर्तियों को संरचना के अंदर कुछ हिंदू कार्यकर्ताओं द्वारा रखा गया था। मुसलमानों ने स्थानीय अदालत में दीवानी मुकदमे दायर किए। इसके बाद, नेहरू और कांग्रेस ने इस मुद्दे पर कोई स्पष्ट और निर्णायक स्थिति नहीं ली। 1986 में, शाहबानो मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को रद्द करने के लिये हिंदू प्रतिक्रिया को शामिल करने के  लिये, कांग्रेस सरकार ने केवल स्थानीय अदालत को ताला खोलने के लिए आश्वस्त किया । नवंबर 2019 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इस मुद्दे को अंतिम रूप से तय किए जाने तक, राजनीति के नेहरूवादी मॉडल पर आधारित कांग्रेस ने इस मुद्दे पर कोई निर्णायक और स्पष्ट रुख नहीं अपनाया।

कश्मीर ऐसी एक  अन्य समस्या थी जिससे आजादी के तुरंत बाद सामना हुआ और बाद में यह तुष्टिकरण की राजनीति के कारण एक गंभीर समस्या बन गई। कश्मीर के शासक महाराजा हरि सिंह ने स्वतंत्र रहने का फैसला किया क्योंकि उन्हें उम्मीद थी कि राज्य के मुसलमान भारत में विलीनीकरण से अप्रसन्न होंगे और पाकिस्तान में शामिल होने पर हिंदू और सिख असुरक्षित हो जाएंगे। पाकिस्तानी सेना ने कबायलियों के रूप में  कश्मीर पर आक्रमण किया जिसे महाराजा के भारत में विलय संधि पर हस्ताक्षर करने के बाद, भारतीय सेना द्वारा बेअसर किया गया था । नेहरू इस मामले को संयुक्त राष्ट्र में ले गए और उन्होंने जनमत संग्रह का भी वादा किया। नेहरू के आग्रह पर अनुच्छेद 370 को कश्मीर को विशेष दर्जा प्रदान करते हुए संविधान में शामिल किया गया था। इसी विशेष स्थिति के कारण, कश्मीर घाटी को 1990 में कश्मीरी पंडितों से हिन्दू मुक्त हो गई। अब, मोदी सरकार ने अनुच्छेद 370  को समाप्त कर दिया और तत्कालीन राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में बदल दिया। तकनीकी रूप से, कश्मीर समस्या राज्य स्तर का मुद्दा था जिसमें पाकिस्तान की दिलचस्पी थी। हैरानी की बात है कि अखिल भारतीय स्तर पर कई मुस्लिम जम्मू और कश्मीर राज्य का विशेष दर्जा वापस लेने का विरोध कर रहे थे। जबकि यह सभी वर्गों में भारतीयों की लोकप्रिय मांग के विपरीत था।

स्वतंत्रता संग्राम के दौरान, सर सैयद अहमद खान के दो राष्ट्र सिद्धांत से संचालित अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी अलगाववादी ताकतों का गढ़ थी  और वहाँ से  पाकिस्तान आंदोलन का पालन पोषण हुआ। स्वतंत्रता के बाद, एक कानूनी मामले में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने 1968 में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी अल्पसंख्यक संस्थान नहीं माना। 1981 में शिक्षा मंत्री शीला कौल ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी को अल्पसंख्यक संस्थान बनाने में बाधक तकनीकी कारण को दूर करने के लिए कानून में एक संशोधन किया । फरवरी 2005 में, कांग्रेसी मानव संसाधन मंत्री अर्जुन सिंह ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी को अल्पसंख्यक संस्थान के रूप में मान्यता देने की एक अधिसूचना जारी की, ताकि मुस्लिम छात्रों के लिए 50 प्रतिशत सीटें आरक्षित की जा सकें। यह अधिसूचना इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा निरस्त कर दी गई और यह मामला वर्तमान में उच्चतम न्यायालय के पास लंबित है।

जब संविधान सभा में  समान नागरिक संहिता पर चर्चा के दौरान मुस्लिम सदस्यों  मुहम्मद इस्माइल (मद्रास), नजीरुद्दीन अहमद (पश्चिम बंगाल), महबूब अली बेग (मद्रास) आदि ने इसका विरोध किया और धर्म के आधार पर व्यक्तिगत कानून बनाए रखने का सुझाव दिया। हालांकि, के.एम. मुंशी और अंबेडकर के कड़े प्रतिरोध के कारण और अन्य सदस्यों के समर्थन के साथ समान नागरिक संहिता को संविधान में बिना किसी शर्त के शामिल किया गया I बाद में, नेहरू सरकार हिंदू कोड बिल लाई, जिसका बहुत विरोध हुआ। इसे समान नागरिक संहिता की भावना, संविधान के अनुच्छेद 44, के विरुद्ध देखा गया I आपत्ति का मुख्या बिंदु था कि, यदि सुधार महिलाओं को न्याय सुनिश्चित करने के लिए महत्वपूर्ण हैं तो हिंदुओं को एक अलग समूह के रूप में वर्गीकृत न करके इसे सभी धर्मों में लागू किया जाए। समान नागरिक संहिता से मुस्लिम असंतोष के संभावित जोखिम के बारे में नेहरू आशंकित थे और वह उन्हें नाराज नहीं करना चाहते थे। इसके कारण राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद के साथ उनका मतभेद हो गया। इसने मुसलमानों को राजनीतिक सोच के बारे में एक संकेत दिया कि भविष्य में वे अपने धार्मिक सिद्धांतों के बहाने अपनी नाराजगी दिखा सकते हैं।

सुधारात्मक उपायों की आवश्यकता

इस प्रकार, आजादी के बाद भी, दो राष्ट्र सिद्धांत, तुष्टिकरण के नेहरूवादी मॉडल के राजनीतिक आशीर्वाद के साथ फल-फूल रहा हैं। तुष्टिकरण से प्रेरित राजनीतिक संरक्षण कुछ राजनीतिक दलों लाभांश तो दे सकता है, लेकिन प्रभावी रूप से भारत के राष्ट्र, समाज और संस्कृति के लिए गंभीर खतरा है। सरकार के लिए, अलगाववादी विचारधारा और सांस्कृतिक अलगाव को पोषित करने  वाली अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी, देवबंद, बरेलवी और तब्लीगी आदि संस्थानों की उचित निगरानी और नियंत्रण करना आवश्यक है I  ‘अल्पसंख्यक’ शब्द और ‘अल्पसंख्यक के अधिकारों’ के दुरुपयोग से बचने के लिए, सरकार को स्पष्ट रूप से अल्पसंख्यक की परिभाषा और दायरे को परिभाषित करना चाहिए जिससे नागरिकों की सुरक्षा, राज्य की सुरक्षा और संप्रभुता से खिलवाड़ न हो सके।

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