राम मंदिर निर्माण से राम राज्य की ओर

रामराज्य के बारे में गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा की “दैहिक दैविक भौतिक तापा राम राज्य कहूं नहि व्यापा” अर्थात ‘रामराज्य’ में दैहिक, दैविक और भौतिक ताप किसी को नहीं व्यापते थे। सब मनुष्य परस्पर प्रेम साथ वेदों में बताई हुई नीति (मर्यादा) में तत्पर रहकर अपने-अपने धर्म का पालन करते थे। यह बात समाज में समृद्धि और संस्कारी जीवन का प्रतीक था। हर व्यक्ति के जीवन का एक ही सूत्र  था “परहित सरिस धरम नहिं भाई, पर पीड़ा सम नहिं अधमाई”। राम राज्य में लोग सेहतमंद  तथा समृद्ध थे। उस समय की प्रकृति और पर्यावरण की स्वच्छ एवं स्वस्थ स्थिति से स्पस्ट होता है की व्यवस्था पर्यावरण केंद्रित था। कुएं, तालाब, नदियां भरी हुई थी। हवा, बरसात सब समय पर थी। गोमाता प्रसन्न स्थिति में थी। समुद्र रत्न उड़ेल जाता और रत्न वीथियों में जड़े  हुए थे। आर्थिक स्थिति प्रचुरता की थी। बाजार माल से पटे हुए थे। न कोई चोरी थी, और न ही कोई वैमनस्ता थी। और इस सब प्रकार के सुव्यवस्था की प्रेरणा का आधार था “सब जन करहिं परस्पर प्रीति”, अर्थात समाज में समरसता तथा एकरसता थी। भगवन राम स्वयं धर्म के मूर्ति रूप थे “रामो विग्रहवान धर्मः”। समाज एवं सरकार दोनों के लिये “धर्म” एकमेव लक्ष्य था। समाज में स्वाभिमान तथा आध्यात्मिक लक्ष्य के प्रति अनुराग था। इसलिए रामराज्य में धर्म आधारित समाज रचना, धर्म नियंत्रित  राज्य व्यवस्था, तथा धर्मानुकूल व्यक्तियों के आचरण की स्थिति थी। परिणामस्वरूप भारत के चित में रामराज्य का आदर्श गहराई से अंकित हो गया।

राम न सिर्फ कुशल शासक के रूप में आदर्श हुए बल्कि सत्तारूढ़ होने से पहले एक वचनपालक पुत्र, मित्र, शिष्य के रूप में दायित्वों को निभाते हुए समरस समाज निर्माण का सफलतम कार्य किया। उन्होंने संपूर्ण राष्ट्र को सर्वप्रथम उत्तर से दक्षिण तक जोड़ा था। सच्चे लोकनायक के रूप में प्रभु श्री राम ने जन जन की आवाज को सुना और राजतंत्र में भी जन गण के मन की आवाज को सर्वोच्चता प्रदान की। राजनीति में शत्रु के विनाश के लिए कमजोर, गरीब और सर्वहारा वर्ग को साथ जोड़ कर सोशल इंजीनियरिंग के बल पर उस युग के सबसे बड़ी ताकत को छिन्न- भिन्न कर दिया। ज्ञात इतिहास में अनेकों पराक्रमी, परम प्रतापी, चतुर्दिक विजयी और न्यायप्रिय राजा हुए लेकिन सही शासन का पर्याय रामराज्य को ही माना गया। 

आज मंदिर निर्माण से राष्ट्रपुरुष राम की कीर्तिगाथा फिर से मूर्तिमान होने जा रही है। विदेशी आक्रांताओं ने जिस  राष्ट्र गौरव और स्वाभिमान को कुचला था, वह लम्बे संघर्ष एवं न्यायिक लड़ाई के बाद, उसे फिर से पुराना वैभव मिलने जा रहा है। ऐसे में मर्यादा पुरुषोत्तम के गुणधर्म को अपनाते हुए, उनके बताए रस्ते पर चल कर न सिर्फ खुद के जीवन को सार्थक कर सकते हैं बल्कि राष्ट्र के एकता-अखंडता को मजबूत करते हुए उसके विकास की राह को और सुगम कर सकते हैं। दुनियाभर में हो रही उथल-पुथल को देखते हुए, भारतीय समाज रामराज्य से प्रेरणा पा कर समरस, देशी -स्वदेशी के आग्रही तथा पर्यावरण केंद्रित विकास की ओर बढ़े यही मानव हित में होगा।

बीरेंद्र पांडेय
(लेखक: सहायक आचार्य एवं शोधकर्ता हैं)

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