अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ में चलता हिन्दू धर्म का अपमान

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक ऐसा शब्द जो हमें अहसास कराता है, एक स्वतंत्र राष्ट्र का हिस्सा होने का, एक ऐसा शब्द जो वर्णित है हमारे मौलिक अधिकारों में और यह लगभग विश्व के सभी लोकतांत्रिक देशो का एक अभिन्न अंग है जहाँ यह वहाँ के नागरिको को अभय प्रदान कर मन की बात कहने में सक्षम बनाता है। किंतु आज अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मायने बदल रहे है, आज इसी अधिकार के पीछे से देश की धार्मिक अखंडता, मौलिकता तथा राष्ट्र की एकता को भंग करने की साजिश की बू आती है व एक तुष्टीकरण का खेल नज़र आता है। यह रचनात्मक आलोचना या समीक्षात्मक ना होकर एक अमर्यादित, अतार्किक तथा वैमनस्य से परिपूर्ण शब्दो के रूप में परिवर्तित होती जा रही है।

जिस अधिकार ने हमें लोकतांत्रिक देश में अपनी बात को निर्भिकता से रखना बताया, वहाँ क्या आज नैतिकता इतनी पतित हो चुकी है कि स्वतंत्रता के नाम पर गैरकानूनी गतिविधियाँ, वक्तव्य इत्यादि की व्यवस्था संचालन हेतु गुट बनाकर राष्ट्र के विरूद्ध, धर्म के विरूद्ध, आस्था के विरूद्ध जाकर बोले वो भी उनके विरूद्ध जो इस राष्ट्र का आधार है, इस देश का बहुसंख्यक समाज है, ये कहाँ तक न्यायोचित है।

आज हम देख रहे है कि देश में कुछ समूहो द्वारा रोज किसी ना किसी नये विवाद को जन्म देकर उसे हिंदुत्व के साथ जोडकर सीधे देवी-देवताओं, सीधे हमारी सनातन संस्कृति, हिन्दुओं की धार्मिक आस्थाओं को अपशब्दो का रूप देकर हिन्दूहितों एवं उनकी भावनाओं पर कड़ा प्रहार किया जाता है। इस प्रकार के गुटो द्वारा देवी-देवताओ के चरित्र का मिथ्या लेखन, झूठी कथाओं की रचना, ईश्वरीय अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह खडा करने वाले विवादास्पद बयान देना कोई नया घटनाक्रम नहीं है, किंतु प्रश्न यह है कि ये आखिर क्यों और आखिर कब तक चलेगा? आखिर क्यो लोग अपने मतो को व्यक्त करने के पश्चात् उसे बलपूर्वक लागू करने का प्रयास करते है, आखिर क्यों ये लोग अपने शब्दो के बाणों को एकपक्षीय होकर बरसाते है? जिस हिन्दू धर्म ने इस राष्ट्र को एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बनाया, सर्वधर्म समावृत्ति की शिक्षा दी उसी धर्म के सम्मान की अव्हेलना कर देना इस देश में कहाँ तक उचित है? क्या समीक्षा एवं अपमान के बीच कोई विभाजन की रेखा नहीं बची अथवा कोई रेखा खींचना नहीं चाहता।

आये दिन सेक्युलरिज्म के नाम पर तथाकथित सेक्युलरो द्वारा शास्त्रो में वर्णित उपदेश, उनकी मान्यताओं को चतुराईपूर्वक शब्दो के हेर-फेर द्वारा काल्पनिक घोषित कर देना, कहीं मूर्तियों को विखंडित कर देना तो कहीं पर किसी भगवान का असभ्य चित्र बना देना, यह किस प्रकार की स्वतंत्रता का परिचायक है। जनता ने इस देश में कितने ही अभिव्यक्ति के साधनों को खोजा, कितने ही नवीन द्वार खोले किंतु अब इनके तुच्छ स्वार्थ और प्रसिद्धी की भूख ने इन लोगो को नैतिक रूप से इस स्तर तक गिरा दिया है कि उन्हे सिर्फ अब यही उपाय नज़र आता है कि कोई भी विवाद जन्म ले तो उसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बोलकर उससे पल्ला झाड़ लेते है, धर्म व संस्कृति के उत्थान का हवाला देते हुये कुतर्को पर उतर आते है। आज हिन्दू धर्म के प्रति इनकी बौद्धिक असहमति, अभिव्यक्ति की परीक्षा ले रही है तथा इस अधिकार व आवश्यकता को एक चुनौति बनने की ओर मोड रही है इसलिये प्रत्येक व्यक्ति को यह ध्यान में रखना होगा कि वो क्या अभिव्यक्त कर रहा है एवं किस माध्यम से किस तरह अभिव्यक्त कर रहा है तथा इस राष्ट्र को भी इसे गंभीरतापूर्वक लेकर भाव व्यक्त करने की इस स्वतंत्रता को अपने नियंत्रण में लेना होगा व इसकी सीमाओं के संतुलन को खोजना होगा।

इस अभिव्यक्ति का जो दायित्वबोध खो गया है, उसे स्मरण कराकर धर्म, आस्थाओ तथा उनके प्रतीकों पर वाणी के माध्यम से चोट करने वाले लोगो को कानूनी प्रक्रिया के तहत उचित दण्ड का प्रावधान किया जाये अन्यथा वो समय दूर नहीं जब ये कुकुरमुत्ते हर विषय हर चीज को ईश्वर से ही जोडने लगे।

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