“वैचारिक अधिनायकवाद”

सभ्य समाज और असभ्य समाज में क्या अंतर होता है? असभ्य समाज में जो बुराइयां होती है उसको दूर करने के लिए कोई कार्रवाई नहीं होती अपितु कुत्सित रूप से उसे किसी ना किसी मत द्वारा उचित बताया जाता है इसके विपरित यदि सभ्य समाज में कोई बुराई होती है तो उस पे कार्रवाई की जाती उसकी सामूहिक निंदा होती तथा ऐसे प्रायोजन किए जाते है कि इस प्रकार की घटना की पुरावृत्ती ना हो.

उपर्युक्त को अगर आवलंब मान अमेरिका में जो पुलिस द्वारा असंवेदनशील और बर्बर कृत्य हुआ उसका हम जब अवलोकन करते है तो पाते है कि इस घटना की निंदा और विरोध का जो आंदोलन है वो अपने उद्देश्य से दूर कहीं वैचारिक उन्मादी और हिंसक पशु समान लोगो के हाथों में पहुंच गया है जिनको एक चिंगारी की आवयश्कता थी अपनी कुंठा बाहर निकालने के लिए और यहां इनकी पूरी अराजकता सरकार के प्रति नफ़रत में बदल गई है ये कथित आंदोलनकारी भूल गए है कि ये भी इसी समाज का हिस्सा है न्याय के नाम पे इनका उपद्रव ठीक उसी प्रकार है जिस प्रकार सच्चे इस्लाम के नाम पे आईएसआईएस वाले सीरिया और इराक़ में करते है.

इस समय आंदोलन के नाम पे दुकानें लूटी जा रही हैं सार्वजनिक प्रतिष्ठानों को आग के हवाले किया जा रहा है अमेरिका के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है कि राष्ट्रपति की प्राथमिक सुरक्षा घेरा तोड़ मुख्य भवन के अहाते तक ये कथित इंसाफ के सिपाही पहुंच गए है कुछ उपद्रवी तो विरोध में इस कदर उग्र हो गए है कि पुलिस वाहन पे सार्वजनिक रूप से मल त्याग रहे है! विरोध का जाने कैसा ये स्वरूप है जो समझ से परे है.

मै क्यों लिख रहा हूं मेरी चिंता का कारण क्या है? मैं विगत दो दिनों से देख रहा हूं की भारत की कथित मेन स्ट्रीम मीडिया के बहुचर्चित नाम अमेरिका के इस आंदोलन से उत्पन्न उपद्रव का भारत में पर्दापण क्यों नहीं हो रहे ये लोग इसी चिंता से दुःखी हुए जा रहे है।

ये कथित क्रांतिकारी पत्रकार अपने ट्वीट और लेखों से अमेरिका में उत्पन्न इस तत्कालिक विद्रोह को शाहीनबाग के आंदोलन से जोड़ कर ये बताने कि कोशिश कर रहे है भारत में भी अब लोगो को इसी प्रकार से सड़क पे उतर जाना चाहिए और इसके लिए ये लोग बकायदा एक गिरोह की भांति ट्विटर पे तरह – तरह के शब्द जाल से सरकार को घेरने की कोशिश कर रहे है,

इस परिस्थिति में ये सोच के ही डर लगता है कि किसी चौराहे पे दो लोगो के बीच किसी कारण क्लेश हो जाए और उसमे से जो पीड़ित है उसका नाम ले के कुछ वैचारिक अधिनायकवादी पूरे शहर में आग लगा दे १२ साल की बच्ची से लेकर और ८० साल के बूढ़े को भी अपनी हिंसा का शिकार बनाए तो भय का भयानक माहौल तैयार होता समझ में नहीं आता है कि न्याय मांगने का इनका ये कौन सा विधान है!
अमेरिका की पुलिस ने जो किया वो घृणित और बर्बर है इसमें कोई दो राय नहीं पर जब कुछ लोग इस हत्या को राज्य द्वारा प्रायोजित हत्या बता पूरी देश को दंगे में झोंक देते है और फिर इसे न्याय का नाम देने का ढोंग करते है वास्तव में ये न्याय के नाम पे विशुद्ध वैचारिक दिवालियापन है।

शोषितों के लिए न्याय और उत्थान का कार्य करना हर दृष्टिकोण से उचित है पर उनका नाम लेकर वैचारिक विषवमन करना उतना ही अनुचित, भारत में परमतत्व को प्राप्त एक प्रकार के विशिष्ट लोग जिन्हें हर एक घटना में कथित क्रांति की आस दिखती है ये हर उस चीज को विकृत कर एजेंडा परोसने की कोशिश करते है जो इन्हें आत्मश्लाघा से हरा-भरा रखे!

भारत में इसी प्रकार के उपद्रवी मानसिकता रखने वाले कुछ पत्रकार, कवि,कवयित्री और समाजिक कार्यकर्ता न्याय और समानता की बातें बोल कर आराजकता को न्याय पाने का एक अस्त्र बताते है ये लोग अक्सर सहजता और सहभागिता की बड़ी-बड़ी बातें करते है जो कि इनकी वाणी में होता है पर व्यवहार से कोसो दूर!

घटना गार्गी कालेज की हो या गोपाल या शारूख के कट्टा लहराने या एक चुनी हुई सरकार के खिलाफ शस्त्र विद्रोह के लिए आरोपित प्रोफेसरों से संबंधित, खबरों के चुनाव और उसके प्रस्तुतिकरण का तरीका इनका ऐसा होता है कि इसमें इनकी वैचारिक क्षुद्रता स्पष्ट प्रतीत होती है, इनके लिए मध्यवर्ग मूर्खो का एक बहुत बड़ा झुंड है जिसके पास चेतना के नाम का कोई तत्व नहीं है क्यों की सामाजिक न्याय और आदर्श का सारा ठेका इन्हीं कुछ पत्रकारिता के आखिरी देवदूतों के पास है जिनके आडंबर से आम आदमी हमेशा दिग्भ्रमित रहता है ये बात – बात पर कॉर्पोरेट – पूंजीवाद, का गलाला हर पल करते रहते है भारत में ये स्वघोषित विशिष्ठजन (विषाणु-जन) इतने असहिष्णु होते है कि जो भी इनके वैचारिक आभासी प्रतिबिंब में नहीं आता उसे ये पूर्णतः ख़ारिज कर देते है इनके लिए चुनी हुई सरकार और जनता का कोई मतलब।

rahulvats: रथ मूसल - शिलाकंटक चालक, मल्ल महाजनपद से ।
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