श्रमिकों का पलायन: अवधारणा

जाॅन स्टुअर्ट मिल ने ‘द सब्जेक्शन ऑफ वूमेन’ में लिखा है, “शक्तिशाली व्यक्ति मृदु भाषा का उपयोग करता है, और जिस पर वह अत्याचार करता है, वह हमेशा अपनी स्वयं की भलाई के लिए ऐसा करने का नाटक करता है.”ये कथन वर्तमान में प्रवासी श्रमिक बनाम गंतव्य राज्यों के संदर्भ में सटीक बैठता है. यत्र तत्र आ रही खबरों में कोरोना काल की विभीषिका झेल रहे श्रमिकों का पलायन दिन रात सुर्खियां बटोर रहा है.

आज हम प्रवासी श्रमिकों से जुड़ी आधारभूत अवधारणा को समझने का प्रयास करेंगे, और उनकी समस्या और संभावित समाधान भी जानने की कोशिश करेंगे. जनगणना के हिसाब से एक प्रवासी श्रमिक ऐसा व्यक्ति है, जो अपने जन्मस्थान से भिन्न स्थान पर निवास करे अथवा जो अपने यूज़वल प्लेस ऑफ रेसिडेंस को त्यागकर अन्य जगह अधिवासित हो. यदि भारत में प्रवासी मज़दूरों की कुल संख्या के बारें में बात की जाए तो, 2017 के आर्थिक सर्वेक्षण में यह अनुमान लगाया गया कि देश में मौसमी अथवा चक्रीय प्रवासियों की  कुल संख्या करीब 139 मिलियन है.

यह ये आंकड़ें सुझाने का एक ध्येय यही है कि आगामी बातों के संग ये तथ्य आपके और मेरे साथ रहे.

जब पूरा विश्व चीन सृजित या कम से कम चीन संबंधित कोरोना वायरस से जूझ रहा है, भारत भी इस अघोषित युद्ध से पूरी शक्ति से लड़ने में प्रयासरत है. भारत में पहले कोरोना केस और देशव्यापी लाॅकडाउन के मध्य बहुत अधिक समय का फांसला नहीं है. कम से कम अमेरिका जैसे बड़ी महाशक्तियों से तुलना करने पर भारत की स्थिति नियंत्रित सदृश है.

लाॅकडाउन के दौरान भारत के प्रधानमंत्री जी का एक निवेदन यह था कि जो जहां है, वही रहें. यह लाॅकडाउन के सफल संचालन हेतु ज़रूरी भी था. इतना बड़ा संकल्प मात्र प्रधानमंत्री जी के निवेदन से ही पूर्ण नहीं हो सकता था जबतक जनचेतना का पूर्ण समर्थन, और राज्य सरकारों का अग्रगामी सहयोग ना मिले.

परंतु देश में लाॅकडाउन के दौरान ही जगह जगह श्रमिकों के बाहर निकलने, सड़कों पर पैदल चलने और कुछ के प्रदर्शन करने की खबरें आईं. ये तस्वीरें डराने वाली थीं. जहां तक मुझे याद है श्रमिकों की पहली भीड़ दिल्ली में दिखी.

यूं तो जनमाध्यमों पर मीठे संवाद और बस स्टाॅप को  बैनरों से लाद देने वाली दिल्ली सरकार का दावा यह रहा कि दिल्ली में प्रतिदिन लाखों गरीबों को मुफ्त भोजन दिया जा रहा, मकान मालिक किरायेदारों के साथ अपना माधुर्य बनाए रखेंगे. पर लगता है ये सब कथनी ही बन कर रह गई.

फिर एक तस्वीर महाराष्ट्र से आई जहां श्रमिकों का जत्था पैदल ही घर निकल पड़ा. कारण क्या रहे होंगे, उसकी मुझे बिल्कुल भी जानकारी नहीं है. पर ये सवाल उपजता है कि ‘भैया’, ‘बिहारी’, ‘गंवार’, ‘देहाती’ सदृश उपाधियां झेलने के बाद भी पेट पालने पहुंचा मजदूर किस विश्वास घाटे का शिकार हो गया, कि पैदल ही निकल पड़ा.

आप सवाल केंद्र सरकार पर  भी उठा सकते हैं पर राज्यों की यहां क्या भूमिका वांछित थी और है, आप ये नकार नहीं सकते.

अब ये प्रश्न भी वाजिब है कि इतने अधिक प्रवासन के क्या कारण रहे? और क्या पिछली सरकारों ने इसे दूर करने की रणनीति अपनाई?

2011 की जनगणना के अनुसार देश में 450 मिलियन कुल प्रवासी हैं, जो अन्य राज्यों में कामगार हैं. पृष्ठ प्रदेशों में बेरोजगारी, शहरों की ओर आकर्षण इसके कुछ कारण रहे. 1947 से 1991 और फिर 1991 से 201 तक इसमें लगातार वृद्धि हुई. भारत के कुछ राज्य जैसे उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, उड़ीसा भले हई श्रमपूर्ति और दिल्ली के सिंहासन तक सीधा रास्ता बनाने में अव्वल रहे हों.  पर इन राज्यों का अपना आर्थिक विकास वंचना ग्रस्त रहा. राजनीतिक दलों द्वारा शिक्षा, अवसंरचना, रोजगार, कौशल विकास आदि पर कम बल्कि जाति, धर्म पर भरपूर बल दिया गया.

खैर वर्तमान सरकारों से लोगों में उम्मीदें हैं, विशेषकर उत्तर प्रदेश में योगी शासन ने श्रमिक संकट पर जिस सक्रियता का परिचय दिया है, वह सबका ध्यान खींच रहा है. चाहे कोटा से छात्रों को लाने का मामला हो प्रयागराज से. अब भारत में आंतरिक प्रवासन से सम्बंधित अन्य मुद्दों पर ध्यान देते हैं :

यह सर्वविदित है कि प्रवासी मज़दूर जब दूसरे राज्य में जाता है. तो सामाजिक स्तर पर दोयम दर्जे का व्यवहार पाता है. वह विभिन्न सामाजिक कल्याण योजनाओं से वंचित होता है, साथ ही घर से दूर रहने पर मनोवैज्ञानिक रूप से भी दबाव ग्रस्त रहता है.

यह भी एक तथ्य है कि भारत में अधिकांश प्रवासन हाशिये पर स्थित सुभेद्य वर्गों में ही होता है. जिनकी आर्थिक, शैक्षिक और सामाजिक स्थित दयनीय होती है. एक बार घर से बाहर मज़दूरी करने गए युवक का ना केवल स्वयं का जीवन झौंस जाता है, बल्कि आगामी पीढ़ियों तक गरीबी का दुष्चक्र चढ़ जाता है.

सामाजिक रूप से प्रवासन का उम्रवार प्रभाव क्या है, इन बिंदुओं में समझने का प्रयास करें:

1. प्रवासी का आरंभिक प्रवेश, 14 से 20 वर्ष के मध्य होता है.
वह युवा मैन्युवल लेबर की भांति कार्य करता है. और द्वितीयक पारिश्रमिक से आर्थोपार्जन करता है.

2. शिखर श्रम गहन आयु: 21 से 30 वर्ष
इस दौरान वह कठिन परिश्रमी श्रमिक के रूप में 12 से 14 घंटे कार्य कर रहा  होता है.
और यहां मिलने वाला वेतन या लाभ प्राथमिक कहा जा सकता है. इसी दौरान उसका विवाह होता है, जिससे परिवार का भी प्रवासन होता है.

3. तीसरा पड़ाव ; मध्य स्तर मान लें तो 30  से 40 वर्ष तक  , पुन: मैन्युवल लेबर की भांति कार्य करता है.
हालांकि इस दौरान बार बार अस्वस्थता से गांव की ओर लौटना भी पड़ता है.  अत: आय पर प्रभाव पड़ता है.

4. अंतिम पड़ाव ; 40 वर्ष से अधिक
इस बीच श्रमिक की घर वापसी और बच्चों का पलायन होता है.

इन सभी पड़ावों का उद्देश्य महज ये बताना है कि श्रमिक द्वारा अर्जित आय महज रोटी तक ही सीमित है.  और आगे यह क्रम बच्चों तक भी जाता है. और एक श्रमिक का बच्चा स्वयं गरीबी के दुष्चक्र में फंस जाता है. इन सभी समस्याओं का समाधान करना है तो हमें नीतिगत रूप से पहल करनी होगी. (उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा माइग्रेंट्स कमीशन बेहतर कदम है)

कुछ अन्य सुझाव हो सकते हैं: 1.सार्वभौमिक खाद्यान्न वितरण (केंद्र सरकार की वन नेशन, वन कार्ड मददगार साबित हो सकती है)

2. प्रत्यक्ष लाभ हस्तान्तरण (उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा 1000 रुपये, केंद्र सरकार द्वारा PM किसान स्कीम के तहत 2000 की तीन किस्त, जनधन खातों में 500 रू की राशि पहुंचाई गई. दिल्ली सरकार ने भी रेहड़ी पटरी वालों को 5000 देने का वादा किया है, यद्यपि ज्यादातर अपने घर लौट चुके हैं).

3 . अंतर्राज्यीय समन्वय समिति

4. वेतन, रोजगार की सुरक्षा हेतु केन्द्र राज्य स्तर पर विधिक प्रकोष्ठ

अंत में जब कोविड 19 के दौर में श्रमिक संकट ने कुछ दबी वास्तविकताओं से दो चार किया है. तो क्यों ना इस संकट को अवसर में बदल दिया जाए.

अंत में अपने देश के कल्याण की अथक कामना करता हूं.
धन्यवाद.
#बड़का_लेखक

Shivam Sharma: जगत पालक श्री राम की नगरी अयोध्या से छात्र, कविता ,कहानी , व्यंग, राजनीति, विधि, वैश्विक राजनीतिक सम्बंध में गहरी रुचि. अभी सीख रहा हूं...
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