मायूसी की मृगतृष्णा पर
इतनी हताशा ठीक नहीं।
छीन लो तुम अपनी ही साँसे
ये तो इस जीवन की रीत नहीं।।
साँस के मोल से अधिक
इस जीवन में कुछ ख़ास नहीं।
जला डालो यू अपना बैकुंठ
ये तो इस जीवन को रास नहीं।।
क्यों हताशा इतनी हावी हुई
की विशाल नर, क्षणभंगुर हुआ।
ब्रह्न के प्रतिमा स्वरूप
मानव ख़ुद के दर्शन दूर हुआ।।
मन के भीतर लाखों विवशता
उधेड़बुन भी बहुत सारी है।
जीत लो तुम अपने विवेक से
ये तो जीवन जीने बारी है।।
कुंठा से जकड़ी अद्भुत पीड़ा
स्व: को न्योछावर करवाती है।
साँसों के इस खेल की समझ
असल जीवन जीना सीखती है।।
साँसों की वो निरंतर क्रीड़ा ही
इच्छा मृत्यु का वरदान है।
पीड़ा में भी लड़े भीष्म सा कोई
पाता वही सच्चा गुणगान है।।
छीन भी गया सबकुछ अगर
फिर भी वो साँस तुम्हारे साथ है।
चंद कमरों की कुटिया में भी
विशाल दुर्ग बनाने की आस है।।
अभिमन्यु सिंह
साँस का खेल
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