पढ़े लिखे नौजवानों को दिहाड़ी मजदूर बनाने का जिम्मेदार कौन?

भारत की शिक्षा व्यवस्था में भी वायरस लगा हुआ है. ये एक ऐसा वायरस है, जिसने हमारे देश को बहुत खोखला कर दिया है. ये वायरस हमारे देश को बीमार कर चुका है और देश के आत्मनिर्भर बनने की राह में सबसे बड़ी रुकावट है. हमारे यहां ऐसे लाखों युवा मिल जाएंगे, जो उच्च शिक्षा और बड़ी बड़ी डिग्रियों के बावजूद ऐसी नौकरी करते हैं, जो नौकरी इनकी डिग्री के हिसाब से नहीं होती.


पिछले वर्ष गुजरात हाईकोर्ट में चपरासी जैसे पदों के लिए करीब 1200 भर्तियां की गई थीं, इसके लिए डेढ़ लाख से ज्यादा आवेदन आए थे. और आवेदन करने वालों में 50 हजार से ज्यादा युवा, ग्रैजुएट, पोस्ट ग्रैजुएट थे. आवेदन करने वालों में इंजीनियर और डॉक्टर भी थे. सिर्फ यही नहीं, करीब साढ़े चार सौ इंजीनियर और डॉक्टर्स ने चपरासी की नौकरी स्वीकार भी कर ली. 

इन लोगों का ये कहना था कि एक तो ये सरकारी नौकरी है और दूसरी बात कि इसमें ट्रांसफर भी नहीं होता. अब सोचिए जो युवा डिग्री के हिसाब से जज जैसे पद पर बैठने की योग्यता रखते हैं, वो खुशी खुशी चपरासी बनने के लिए तैयार हो गए. और इस तरह के कई मामले आपने देखे होंगे. लेकिन क्या ये सिर्फ नौकरी का संकट है? बिल्कुल नहीं. ये सिर्फ नौकरी का संकट नहीं है. ये क्वालिटी का संकट है, ये योग्यता का संकट है. 

क्योंकि सिर्फ डिग्री लेने से ही योग्यता नहीं आती. ये कड़वी सच्चाई है कि भारत में ज़्यादातर पढ़े-लिखे युवा नौकरी करने के काबिल ही नहीं हैं. वो किसी प्रकार की परीक्षा में अपनी काबिलियत साबित नहीं कर पाते हैं. हम ये बात ऐसे ही नहीं कह रहे हैं. The Associated Chambers of Commerce And Industry of India यानी Assocham के कई सर्वे में ये बताया जा चुका है, कि भारत में उच्च शिक्षा ग्रहण करने वाले 85 प्रतिशत युवा किसी भी परीक्षा में अपनी योग्यता सिद्ध नहीं कर सकते हैं. 65 प्रतिशत ग्रेजुएट युवा एक मामूली क्लर्क का काम करने के लायक भी नहीं हैं. 47 प्रतिशत ग्रेजुएट युवाओं में कोई भी नौकरी करने की काबिलियत नहीं है. 90 प्रतिशत उच्च शिक्षा प्राप्त कर चुके युवाओं को काम चलाऊ इंग्लिश भी नहीं आती है. देश में हर वर्ष औसतन 15 लाख छात्र इंजीनियरिंग की डिग्री लेकर निकलते हैं. लेकिन इनमें से 20 प्रतिशत को ही उनके कोर्स के हिसाब से नौकरी मिल पाती है. देश के बिजनेस मैनेजमेंट स्कूलों से पढ़ कर निकलने वालों में 93 प्रतिशत युवाओं को 10 हजार रुपए महीने की नौकरी मिलना भी मुश्किल होता है. 

लेकिन इसका बुनियादी कारण हमारी शिक्षा व्यवस्था है. दुनिया की 100 टॉप यूनिवर्सिटी में भारत की एक भी यूनिवर्सिटी नहीं है. हायर सेकेंडरी लेवल पर करीब 14 प्रतिशत शिक्षक योग्य नहीं हैं. प्राइमरी और जूनियर स्तर पर करीब 29 प्रतिशत शिक्षक स्कूलों से अक्सर गायब रहते हैं. प्राइमरी और जूनियर स्तर पर 66 लाख अध्यापकों में 11 लाख अध्यापक ट्रेंड नहीं हैं. ग्रामीण भारत में पांचवी कक्षा के आधे छात्र, दूसरी कक्षा की किताब नहीं पढ़ सकते और इनमें से 70 प्रतिशत को साधारण गणित नहीं आती. यानी कुल मिलाकर ऊपर से नीचे तक, हर स्तर पर, शिक्षा व्यवस्था कमजोर है. इसलिए इस शिक्षा व्यवस्था से ऐसे युवा निकल रहे हैं, जिनमें योग्यता का अभाव है. इन लोगों को डिग्रियां तो मिल जाती हैं, लेकिन योग्यता ना होने से इनको नौकरी नहीं मिल पाती और फिर ये ऐसे काम करने को मजबूर होते हैं, जो काम इन्हें अपनी डिग्रियों के हिसाब से नहीं करना चाहिए.

जून की तपती गर्मी में  उत्तर प्रदेश के जुनैदपुर गांव मे कुछ युवा सड़क पर मिट्टी खोद रहे हैं. मनरेगा के तहत इन लोगों को 200 रुपए रोज मजदूरी के मिलते हैं. 

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