हिन्द उवाच

है लहू मिला जिस मिट्टी में,
बिस्मिल, अशफ़ाक़, भगतसिंह का।
जिसको स्वेदों से सींचा है,
गाँधी और लाल बहादुर ने।
जिस स्वप्न धरा की सिद्धि को,
आज़ाद ने मौत से खेला था।
जिस भू पर ‘राज’ की नीति विरुद्ध,
जलियांवाला ने डायर झेला था।

एक बार देख लो, फिर बोलो,
क्या यही है वो, ये पुण्य धरा?
जिस हिन्द की आज़ादी ख़ातिर,
वीरों ने सहर्ष जीवन दान करा।
आज़ाद हिंद में रोज़ कहीं,
होता झगड़ा और दंगा है।
यमुना कलंक से काली है,
अब रही नहीं वो गंगा है।
कर्तव्य बोध और ज्ञान नहीं,
यहाँ धर्म -जाति पर लड़ते हैं।
उग रही यहाँ नित विष बेलें,
जकड़ा भारत अब तड़पे है।

लगता है ये, हश्र देश का देख,
हम गुलाम सही पर अच्छे थे।
निज स्वार्थ न जीने वाले थे,
और राष्ट्रधर्म में सच्चे थे।
अब देख देश की राजनीति,
लड़ने सीमा पर जाना क्या?
ज्यादा दुश्मन तो अंदर हैं,
सस्ते में जान गंवाना क्या?

इन नये दुश्मनो से लड़ने को,
कौन बोस बनायेगा फिर फ़ौज?
और राष्ट्रधर्म का ध्यान करा,
कौन तिलक भरेगा हृदय का हौज़?
आओ झाँके अपने अंदर,
क्या हमने कर्ज़ उतारा है?
वो स्वप्न सरीखा हिंद बने,
इसके लिये हमने क्या वारा है?

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