आखिर कब तक होता रहेगा कश्मीरी पंडितों का नरसंहार?

किसी पौधे को एक जगह से दूसरी जगह लगाना आसान होता है, लेकिन किसी पेड़ को आप विस्थापित नहीं कर सकते. अगर आप ऐसा करते हैं तो पेड़ सूख जाता है क्योंकि विस्थापन के दौरान, उसकी जड़ें कट चुकी होती हैं. 30 साल पहले कश्मीर में कश्मीरी पंडितों का नरसंहार ही नहीं हुआ, बल्कि उनकी जड़ें भी काट दी गईं.

जम्मू कश्मीर के अनंतनाग जिले में आतंकियों ने सोमवार को कश्मीरी पंडित सरपंच की गोली मारकर हत्या कर दी ठीक इसी तरह 17 साल पहले भी कश्मीरी पंडितों का नरसंहार हुआ था। उसके बाद किसी कश्मीरी पंडित पर इस तरह का ये पहला हमला था। आखिर कश्मीरी पंडितों को इंसाफ कब मिलेगा…?

कश्मीरी पंडितों ने अपने विस्थापन के 30 साल बाद भी संयम नहीं खोया. ये अफसोस की बात है कि सब्र को हमारे समाज में कमज़ोरी समझ लिया जाता है, इसीलिए हम ये अपनी ज़िम्मेदारी मानते हैं कि कश्मीरी पंडितों की आवाज़ बनकर, न्याय की लड़ाई लड़ी जाए. कश्मीरी पंडितों की एक पूरी पीढ़ी ने शरणार्थी शिविरों में रहते हुए अपनी ज़िंदगी गुजार दी. लेकिन विडंबना देखिए- भारत में, अपने ही देश के नागरिकों को नागरिकता का संपूर्ण अधिकार दिलाने के लिए कोई आंदोलन नहीं होता. कश्मीरी पंडितों के मामले में यही हुआ.
जो लोग दिल्ली से लेकर मुंबई और कोलकाता तक फ्री कश्मीर के पोस्टर लहराते हैं, अगर वो सही मायने में कश्मीरियत को लेकर चिंतित होते तो कश्मीरी पंडितों के लिए घर वापसी की आजादी जरूर मांगते. वो घाटी के लिए कट्टरपंथ से आज़ादी की मांग जरूर करते क्योंकि पंडितों के अंदर वापस लौटने की इच्छा भी तभी होगी, जब उन्हें एक साथ, वापस उसी ज़मीन पर, भयमुक्त माहौल में बसाए जाने का भरोसा मिलेगा.

ये इसलिए जरूरी है क्योंकि 90 के दशक में एक हज़ार से ज्यादा कश्मीरी पंडितों की हत्या तो हुई ही, लेकिन जो बच गए, उनकी भी आत्मा कुचल दी गई. इंसान का जख्मी शरीर तो फिर भी संभल जाता है, लेकिन आत्मा को संबल तभी मिलता है, जब समाज की सामूहिक चेतना सक्रिय होती है. और आज की तस्वीर यही है…कि कश्मीरी पंडित अभी भी…अपने ही देश में तिनकों की तरह इधर-उधर बिखर कर रह गए हैं…और उन्हें पूछने वाला यहां कोई नहीं है….।

ये एक बहुत बड़ा विरोधाभास है कि कश्मीरी पंडितों की ज़िंदगी में 19 जनवरी की तारीख.. उन्हें उनके घर से निकाले जाने की तारीख है… ज़रा सोचिए…कितना कड़वा होगा वो दिन…जब खूबसूरत वादियों में बसी अपनी रंगीन दुनिया को इन लोगों ने बर्बाद होते हुए देखा होगा। कितनी अजीब विडंबना है…कि कोई अपनी ही ज़मीन से बरसों से बेदखल है…और राजनीति के खिलाड़ियों को उनका हालचाल पूछने की फुरसत भी नहीं मिली।

सवाल ये है कि देश के बुद्धिजीवी और खुद को आम जनता का हमदर्द बताने वाले नेता इतने पत्थरदिल कैसे हो सकते हैं, कि उन्हें वर्षों तक कश्मीरी पंडितों का दर्द ही दिखाई ना दे..? अगर कश्मीरी पंडितों की ऐसी ही स्थिति बनी रही, तो उनका अस्तित्व ही मिट जाएगा और इसके ज़िम्मेदार हम सब होंगे।

कश्मीरी पंडितों ने कभी अपने अधिकारों के लिए, शहरों को बंधक नहीं बनाया. सड़कों को बंद करके पिकनिक स्पॉट नहीं बनाया और अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए महिलाओं और बच्चों का भी सहारा नहीं लिया लेकिन, दिल्ली के शाहीन बाग में एक खास एजेंडे के तहत यही सब हो रहा था । शाहीन बाग में, तकरीबन ढाई महीने से ज्यादा इस मुद्दे पर आंदोलन चला था लेकिन, इसे आंदोलन की जगह नागरिकों पर अत्याचार कहना ज्यादा उचित होगा.

आज जम्मू-कश्मीर की आज़ादी का नारा लगाने वाले देश द्रोहियों की आवाज़ जब दबाई जाती है.. तो अभिव्यक्ति की आज़ादी के चैंपियन आंसू बहाने लगते हैं.. लेकिन जब कश्मीरी पंडितों की चीखों को नज़रअंदाज़ किया जाता है और उनके पूरे जीवन को बर्बाद कर दिया जाता है.. तब कोई कुछ नहीं बोलता।

जरा सोचिए, अपने ही देश में विस्थापित हो जाने की इससे कठोर सज़ा क्या होगी? अगर दरवाजों की जगह आपके घर में पर्दे मिलने लगें, तो कोई अंदर जाने के लिए कैसे दस्तक देगा? आप किसी को अंदर आने से रोक भी कैसे पाएंगे? तब आपकी सुरक्षा भी कैसे होगी? और सबसे बड़ी बात, तब आपकी पहचान क्या रह जाएगी?

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