” स्नेकोफ़ोबिया”

सामाजिक अस्थिरता

हमारा देश बार बार एक ही द्वंद में उलझता है, हम सामाजिक अस्थिरता के संकट से जूझते रहते हैं। सामाजिक शांति आखिर क्यों स्थापित नही हो पाती। क्यों हमारा देश अपनी संस्कृति और सभ्यता की लड़ाई लड़ते नज़र आता है और फिर कुछ अस्थाई सा हल निकालकर उसी द्वंद में दोबारा उलझता है।

कारण यह है कि हमें पूर्ण रूप से मानसिक स्वतंत्रता कभी मिली ही नहीं। हमें सन् 47 के बाद कुछ ही सिद्धांतो में बांध दिया गया और उसके आगे सोचने वाले को दोषी/अपराधी भाव से देखा जाने लगा। देश की दिशा तय करने वाले तत्वों एवं मानकों की हाईजैकिंग चालू हो गयी। सत्य को अपने हिसाब से दिखाया जाने लगा। गांधी के सत्य और अहिंसा के सिद्धांतों का जितना और जैसा दुरुपयोग हुआ है वो सब आपके सामने ही है।

भारतीयों को अहिंसा के नाम पर कायरता सिखाई गई। धर्मनिरपेक्षता के नाम पर अधर्मी बनाया गया। सहनशीलता के नाम पर गुलामी शिक्षित हुई। तीन से चार पीढियां ब्रेनवाश का शिकार हुईं। जो कि बिल्कुल योजनाबद्ध तरीके से किया गया और ये सब इतना ज्यादा लंबे समय तक हुआ कि अब लोगों में न तो सही को सही कहने की हिम्मत है और न ही गलत को गलत कहने का साहस।

सामान्य जनमानस को अब सही और गलत का अंतर समझ आना बंद हो चुका था। बहुसंख्यक समाज को घुटनों पर ला दिया गया। पोलिटिकल करेक्टनेस और वर्चु सिग्नल्लिंग की होड़ सी लग गयी। हमारा देश सांपो से घिर चुका था।

और तब आरंभ हुआ तुष्टिकरण

लाठी चलाना तो दूर की बात, हमें ये सिखाया गया कि साँप को साँप मत कहो, वरना साँप को बुरा लग जायेगा। ये डिस्क्रिमिनेशन है। उल्टा इसके सलाह दी गयी कि साँप को घर मे पाल लो। साँप है तो क्या हुआ, है तो एक जीव ही। हम उदाहरण सेट करेंगे, मनुष्य और साँप के परस्पर सौहार्द का। (यही तो खूबसरती है इस देश की साहब )

सांपों की संख्या बढ़ती गयी, और एक निर्धारित सीमा के बाद या तो वे मनुष्य पर टूट पड़े या तो मनुष्य को बोरिया बिस्तर समेत जान बचाकर भागना पड़ा। हमें फिर सहनशील बनने की सलाह दी गयी। कहा गया कि साँप की अपनी विशेषताएं हैं, उनकी प्रजाति की अपनी खासियत है, डसना उनमे से एक है। हमें उनका सरंक्षण करना चाहिए। दूध के रूप में तुष्टिकरण को बढ़ावा दिया गया।

सभी ओर से साँपो के इमेज मेकओवर का काम चलने लगा। सांपों के ऊपर साहित्य, शायरी व ग़ज़ल इत्यादि चलाये गए। उनकी सज्जनता और नेकी के किस्से गढ़े गए।इतिहासकारों ने बताया कि कैसे सांपों के राज में सब तरफ खुशहाली रहती थी। आज मानव जाति जो कुछ भी है, साँपो की ही वजह से है।

फ़िल्म निर्माताओं ने दिखाया कि कैसे साँप मनुष्य के अत्याचारों से परेशान हैं। और नही तो क्या, मनुष्य एकदम कृतघ्न जीव है। (हाय मेरा साँप !)

इस नकली ढोंग और आदर्शवादी बनने के स्वांग में समय समय पर साँप हमें डसता आया है। पलटवार करना हमारी संस्कृति सिखाती नहीं। सवाल करने वाले को असहिष्णु करार दिया गया। साँप के साथ मानवता दिखाने से सांप मनुष्य नही बन जाता, वह साँप ही रहता है। ये बात समझ अब साफ हो रही थी।

घर का एक काफी बड़ा हिस्सा अब सांपों के हिस्से आ चुका था और मानव के लिए अब अस्तित्व का सवाल आ चुका था। मानव को अब आत्ममंथन करना पड़ा। अहिंसा, धर्मनिरपेक्षता और सहनशीलता का चोगा फटने लगा। आंखों पर बंधी फर्जी आदर्शवाद की पट्टी हटने लगी। समझ आया कि लिबरलिस्म के नाम पर एकतरफा तानाशाही की ओर ले जाया जा रहा है। जहाँ आपको अब सांप के नियमानुसार चलने कहा जा रहा है।

ये सारी मशीनरी सांपों के इकोसिस्टम में रंग चुकी है। इनके अनुसार लाठी का तो नाम लेना भी असंवैधानिक है। इनके टारगेट में अब हर वो व्यक्ति होगा, जो असली लिबरल होगा, जो गलत को गलत कहने का साहस रखता होगा, जो लाठी का पक्षधर होगा, जो आत्म रक्षा की बात करेगा।

अब लाठी और दूध का कांसेप्ट क्लियर हो चुका था। और यही समस्या है सांपवादियों को, अब हमने सांपों पर मोर्चा खोल दिया है। देश की सांस्कृतिक लड़ाई को जीतने के लिए। द्वंद को पूरी तरह से समाप्त करने के लिए। समाज को सदा के लिए स्थिरता में लाने के लिए। सांप अब बैकफुट पर हैं, वे बौखला गए हैं, उनके अनुसार मानव को तो साँप के विरुद्ध बोलना ही नही चाहिए था। इसी बौखलाहट का नतीजा है कि अब वे मनुष्य को फ़ासिस्ट, सांप विरोधी या स्नेकोफोबिक बोलते हैं।

यही सार है अबतक का। ये सबकुछ अगर आप समझ पा रहे हैं, तो काफी सही दिशा में हैं। अगर नहीं तो बस इतना समझ लीजिए कि  लाठी धारक २०१४ में आ चुके हैं। आपको तो बस साँप पहचानने हैं।

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