महाराष्ट्र में मजदूरों की मृत्यु और माननीयों की राजनीति पर लिखी एक ग़ज़ल

रोटियां यहां पर, मयस्सर ही नहीं है।
उनको तो ज़रा सा भी, असर ही नहीं है।

खाते रहे सियासती, रोटियां सेंककर,
लूट खाने में कोई, कसर ही नहीं है।

कभी ट्वीट, कभी बयान, कभी अफवाहें,
गरीबों की शासन को, फिकर ही नहीं है।

कर दिया ज़िकर उसने, तमाम बातों का,
खुद की गलतियों का तो, ज़िकर ही नहीं है।

कभी दहाड़ा करता था, शेर जंगल में,
अब उसकी आवाज़ में, असर ही नहीं है।

पत्रकारों पर तो केस, खूब लग रहे हैं,
मज़दूरों की वहां पर, ख़बर ही नहीं है।

कहीं पटरी पर कटें, कहीं गैस में जलें,
कोसने के सिवाय तो, गुज़र ही नहीं है।

ऋषभ शर्मा द्वारा स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित।

Author_Rishabh: भारतीय संस्कृति, विज्ञान और अध्यात्म में अटूट आस्था रखता हूं। अजीत भारती जी जैसे लोगों को ध्यान से सुनना पसंद करता हूं। पुस्तकें पढ़ने का बहुत शोषण है‌। मूलतः कवि हूं लेकिन भारतीय संस्कृति, धर्म और इतिहास के बारे में की जा रही उल्टी बातों, फैलाई जा रही अफवाहों, न्यूज चैनलों की दगाबाजियों, बॉलीवुड द्वारा हिंदू धर्म और उसके लोगों पर किए जा रहे प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष हमलों से आहत होकर लोगों को जागरूक करने के लिए स्वतंत्र वैचारिक लेख लिखता हूं और ट्विटर पर वैचारिक ट्वीट करता रहता हूं। जन्मभूमि भारत और मातृभाषा की बुराई असहनीय है। जय हिन्द।
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