दलाल धूर्त मीडिया और नासमझ लोग!

स्त्रोत — द वायर से साभार

वैसे तो मैं आलेख नहीं लिखता। लेकिन सवाल जब हमारी सलामती के लिए जान गँवा देने वाले वीरों की अस्मिता का हो तो लिखना ही होता है। लेख के साथ जोड़े गए फोटोज़ में एक न्यूज बेवसाइट ‘द वायर’ की एक रिपोर्ट आतंकी रियाज़ की मृत्यु पर कवर की गई, आपके सामने है।

एक आतंकी को जब उसकी करतूतों की सज़ा हमारी सेना देती है तो अखबार रंग जाते हैं। वह हेडमास्टर का बेटा था। वह टेलर का बेटा था। वह फलाने का बेटा था। कभी इन मीडिया वालों ने एक भी खबर ऐसी चलाई कि कसाब को जिंदा पकड़ने में शहीद हुए कॉन्सटेबल किनके बेटे थे? क्या किसी चैनल, अखबार या न्यूज बेवसाइट ने यह दिखाया कि हंदवाड़ा में बलिदान हुए पांच जवान किसके बेटे थे? नहीं चलाया।

क्योंकि ज्यादातर वर्दीधारी किसान के बेटे होते हैं। वह गांव से आए हुए होते हैं। उनके बाप-दादाओं के पास इतना पैसा नहीं होता कि वे अपने बेटों को कलक्टरी या डॉक्टरी की पढ़ाई करवा सकें। वे उन जगहों से निकलकर हमारे देश के लिए लड़ रहे होते हैं जहाँ शिक्षाओं की सुविधा के नाम पर स्कूलों की छतें टपक रही होती हैं। उनकी शिक्षा का आधार इतना लचर होता है कि वह चाहते हुए भी डॉक्टर और कलेक्टर नहीं बन पाते।

क्योंकि हमने मेडिकल की सीटों को करोंड़ों में बेचने के धंधे जो किए हैं। किसी भी बड़ी पढ़ाई के लिए या बड़े पद के लिए, हमने महंगी पढ़ाई और और अंग्रेजी भाषा का पाखंड ओढ़ रखा है। ताकि हमारे देश की सत्ता एक एलीट क्लास के हाथों में रहे। गाँव और किसान-मजदूरों के बेटे कभी भी बड़ी संख्या में इन बड़ी पोस्टों तक न पहुँचें। उसके ऊपर से उन गांवों और छोटे शहरों के उन प्रतिभाशाली युवाओं के ऊपर एक उम्र सीमा लटका दी जाति है। यह उम्र सीमा भी जाति देखकर तय होती है।

जब इतनी सारी बाधाएँ लगती हैं तब एक किसान का बेटा सेना की जॉब करता है। क्योंकि वह अपनी जान के बदले में अपने परिवार को सुकून की ज़िंदगी देना चाहता है। क्योंकि वो आतंकी संगठन नहीं चलाते और लोगों को मारने का धंधा नहीं करते। वो भले ही अपने परिवार को पैसों से सपोर्ट करने के लिए जान दांव पर लगाते हैं लेकिन देश के लिए मरते हैं। जब सारी दुनिया की सेनाएँ सीमाओं के लिए लड़ती हैं तब हमारे देश की सेनाएँ माता की रक्षा के लिए लड़ती हैं।

उन्हें इस देश से प्यार है क्योंकि वह किसान के बेटे हैं। वह मजदूर के बेटे हैं। वह गरीबों के बेटे हैं। उनके बाप-दादे न तो सत्ता में रहे हैं और न ही बड़े पदों पर। न वो बिज़नेस करते हैं और न ही दलाली के पैसे खाकर ‘द वायर’ टाइप की पत्रकारिता करते हैं।

और जब कोई बेटा शहीद होता है तो यह कोई नहीं लिखता है कि वह सैनिक फलां किसान का बेटा था। उसने बचपन में दस किलोमीटर पैदल चलकर, टपकती छतों के पुराने सरकारी स्कूलों की अधफटी टाटपट्टियों पर बैठकर अपनी पढ़ाई की है। वह इन दलाल लोगों की तरह काज़ू-बादाम का नाश्ता करके फाइव स्टार स्कूलों में नहीं पढ़ा बल्कि उसने तो बाकी बचे टाइम में भैेंसें चराईं हैं और तंगी के दिनों में चटनी से रोटी खाई है। वह भी आइएएस बन सकता था। लेकिन फाइव स्टार स्कूल में न पढ़ा होने के कारण, अंग्रेजी के टट्टुओं से अंग्रेजी गिचपिचयाने में पिछड़ गया।

यह कहानी कोई दलाल नहीं लिखेगा न ही दिखाएगा। बल्कि वो लिखेंगे कि रियाज़ टेलर का बेटा था। टेलर का बेटा तो हमारे भी गांव में है। लेकिन वह तो आतंकी नहीं बना। उसकी भूख ने तो उसे हथियार उठाने के लिए मजबूर नहीं किया। वह क्यों पढ़लिखकर आईएएस बना। जी हां, उसे नौकरी की कद्र है क्योंकि वह टेलर का बेटा है। वह किसान का बेटा है। वह सैनिक की बेटी है। इसलिए ये सब पढ़लिखकर अधिकारी बने और अच्छा काम कर रहे हैं। अगर गोपीनाथ कन्न और शाह फैज़ल जैसे अनाप-शनाप पैसे वाले होते तो नौकरी की कद्र नहीं होती।

इस देश में खुल्लम खुल्ला गुंडों, बलात्कारियों और आतंकियों का महिमामंडन किया जाता है। उनके अपराधी बनने की मजबूरियां गढ़ दी जातीं है। और सबसे बड़े मूर्ख हैं हम जैसे लोग जो ऐसी वाहियात बातों को चलने देते हैं। क्योंकि हम अंग्रेजियत के चरणचट्टू हैं। क्योंकि हम उन विदेशियों की विष्ठा को भी सुगंधि समझकर माथे पर लगाते हैं। अंग्रेजी में दी गई गाली (जैसे— मैडम, शाब्दिक अर्थ- लुगाई) भी हमें वंदना लगती है।

थू है ऐसे मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर और थू है ऐसे लोगों पर जिन्हें ये सब भाता है।

जय हिंद!

Author_Rishabh: भारतीय संस्कृति, विज्ञान और अध्यात्म में अटूट आस्था रखता हूं। अजीत भारती जी जैसे लोगों को ध्यान से सुनना पसंद करता हूं। पुस्तकें पढ़ने का बहुत शोषण है‌। मूलतः कवि हूं लेकिन भारतीय संस्कृति, धर्म और इतिहास के बारे में की जा रही उल्टी बातों, फैलाई जा रही अफवाहों, न्यूज चैनलों की दगाबाजियों, बॉलीवुड द्वारा हिंदू धर्म और उसके लोगों पर किए जा रहे प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष हमलों से आहत होकर लोगों को जागरूक करने के लिए स्वतंत्र वैचारिक लेख लिखता हूं और ट्विटर पर वैचारिक ट्वीट करता रहता हूं। जन्मभूमि भारत और मातृभाषा की बुराई असहनीय है। जय हिन्द।
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