अगर आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता तो आतंकवादी का शब इस्लामिक रिवाज़ से दफ़नाने के लिए उसके परिवार को सौंपने की ज़रूरत क्यों

आज देश से सिमट कर सिर्फ कश्मीर तक सीमित रह गए आतंकवाद से हमारे काफी ज्यादा जवान आए दिन शहीद हो रहे हैं। एक आतंकी को मारते हैं तो दूसरा तैयार हो जाता है। फिर हम सोचते हैं कि कमी कहा रह जाती हैं? वैसे तो इस सवाल के कई सारे जवाब हो सकते हैं पर एक तुरंत किया जाने वाला उपाय काफी दिनों से कई लोग सरकार को सुझा रहे हैं, पर अभी तक उसको लागू नही किया हैं! उसके भी कई कारण हैं।

बहरहाल, उससे पहले की उपाय के बारे में जाने, में आपको ले चलता हूं साल 1849 में… उस समय पंजाब प्रदेश, जो कि पूर्व में जम्मू कश्मीर से लेकर पश्चिम में अफगानिस्तान तक फैला हुआ था वह अब दो लड़ाई के बाद अब अंग्रेजों के हाथों में था। जब तक महाराज रणजीत सिंह पंजाब के राजा थे अंग्रेजों की हिम्मत नही होती थी पंजाब की तरफ देखने की भी! पर 1839 ने राजा रणजीत सिंह की मौत होने के बाद साल 1849 तक अंग्रेजों ने पंजाब प्रदेश पर पूरा कब्जा कर लिया था। उस इलाके में स्वात वेली (अब पाकिस्तान में) नाम से 5337 चौरस किलोमीटर का इलाका था, जहाँ की 90% आबादी पश्तो यानी पठान की थी। जब तक राजा रणजीत सिंह का राज था इन लोगों ने उनका अधिपत्य स्वीकार कर लिया था। पर अब अंग्रेजों का शासन आने के बाद पश्तो को सबसे ज्यादा चिढ़ अंग्रेजों के धर्म से थी, क्यूंकी वह धर्म से ख्रिस्ती थे।

उसी आधार पर उग्रवाद वहाँ कुछ सालों ने चरम पर पहुंच गया, पर कुछ साल बाद एक घटना घटती है जो उग्रवाद की कमर तोड़ देती है और वह भी बिना एक भी गोली चलाए!

वह दिन 10 सितम्बर का था और साल था 1853, उस वक्त के पेशावर के कमिश्नर फ्रेडरिक मेक्सन अपने घर पर लोगो की अपील सुन रहे थे। थोड़ी देर में एक आदमी हाथ मे कागज लेकर आया और मेक्सन को सलाम किया। मेक्सन ने अपना हाथ आगे बढ़ाकर कागज लिया, और उसी वक्त उस आदमी ने अपनी कटार मेक्सन के सीने में घोंप दी! 4 दिन बाद मेक्सन कि मृत्यु हो गई और हमलावर को फाँसी देकर उसके शरीर को जला दिया गया। कंधार के फ़ील्ड मार्सल लॉर्ड रॉबर्ट्स अपनी किताब “An Eyewitness Account of the Indian Mutiny”, में लिखते है कि उसके बाद उस इलाके में उग्रवाद में भारी गिरावट आई। क्यूंकी, उन मुस्लिम उग्रवादियों को मानना था कि अपने धर्म के लिए गैर मुस्लिम को मारने के बाद मुजाहिद का मृत शरीर रहना आवश्यक है। पर अंग्रेजों ने नई नीति अपनाई थी इसी वजह से उग्रवादी में काफी ज्यादा गिरावट आ गई थी।

अब फिर से आज के समय में आते है। कश्मीर में एनकाउंटर में मारे जाने के बाद आतंकवादी का शव उनके परिवार को सौप दिया जाता हैं। जहाँ हजारों की तादाद में लोग जमा होते हैं और देश विरोधी तथा धार्मिक कट्टरता के नारे लगाते हैं। इसी हजारों लोगों में से ही आगे चलकर कुछ नोजवान आंतकवाद का रास्ता अपनाते हैं।

तो क्या जरूरत है आतंकियों के शव को परिवार को सौपने की? क्या जरूरत है उनके जनाज़े को निकालने की छूट देने की? क्यूंकी, आतंकवाद का कोई धर्म नही होता, तो फिर क्या जरूरत है उन्हें इस्लामी रीतिरिवाजों दफनाने की?

समय आ गया है, सरकार कानून बनाए की आतंकियों के शव को अब कचरे के ढेर के साथ जला दिया जाएगा। फिर देखते है कितने मुजाहिद जन्नत का सपना देखते है!!

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