युद्ध और शांति

युद्ध और शांति दोनों एक ही सिक्के के अलग अलग पहलुओं के समान है। युद्ध होने के पश्चात विजयी पक्ष भी यथार्थ की कसौटी पर पराजित ही होती है। क्योंकि उनके चक्षुओं की रोशनी को चिताओ की अग्नि भस्म कर देती है, फिर उनके समक्ष घोर अन्धकार के शिवाय कुछ नहीं बचता। इतिहास गवाह है कि युद्ध के परिणाम कभी भी सुखद नहीं हुए। फिर चाहे वह कुरुक्षेत्र का रण हो या अशोक का कलिंग युद्ध। दोनों ही युद्ध के परिणाम से भलीभांति परिचित हैं। एक ओर जहां अर्जुन को अपने ही प्रिय पितामह व आचार्य द्रोण पर बाण चलाने पड़े थे और अंत में उनके चिताओं की अग्नि से सामना करना पड़ा था, वहीं दूसरी ओर कलिंग विजय के पश्चात सम्राट अशोक की आंखे भी असंख्य शवो को देखकर लज्जित हुई। यहीं से अखंड भारतवर्ष में राज करने वाले मौर्यों का भी पतन आरंभ हुआ था। यदि अब ऐसे युद्ध होते है तो ना जाने कितने ही अभिमन्यु वीर गति को प्राप्त होंगे और कितने ही मौर्य साम्राज्यों का पतन आरंभ होगा। वर्तमान में युद्ध तो उस कड़वी दवाई के समान है जिसे मनुष्य हर छोटे मोटे रोगों के लिए ग्रहण करता हैं। परन्तु वह भूल जाता है कि यह रसायन उनके शरीर के प्रतिरोधक क्षमता को दिन प्रति दिन न्यून कर देती है। कलियुग में तो युद्ध के परिणाम और भी ज्यादा भयावह होंगे। क्योंकि इस कालखंड में ना ही कोई श्री कृष्ण है और ना ही कोई श्री राम, जो धर्म और अधर्म को प्रमाणित कर सके।

द्वापर और त्रेता युग में तो युद्ध एक ही प्रकार का होता था जहां अस्त्र, शस्त्रों की भाषा बोली जाती थी। परन्तु वर्तमान तो सर्वशक्तिमान है, इसने अपने विनाश के लिए विभिन्न प्रकार के मार्गो का आविष्कार किया है। आज मनुष्य अस्त्र शस्त्र के अलावा जैविक युद्ध, व्यापार युद्ध इत्यादि जैसे युद्ध कौशल में निपुण है। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर आज हर राष्ट्र अपने आप को सबसे आगे चाहता है परन्तु यह मुमकिन तो नहीं। वर्तमान में होने वाले सभी युद्ध इसी खींचातानी का परिणाम है। इसके अलावा धर्म के नाम पर भी कई अशांत दल व समुदाय युद्ध की स्थिति के लिए जिम्मदार हैं। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद शान्ति के नाम पर बना संयुक्त राष्ट्र संघ भी अपने अस्तित्व का बचाव करता नजर आ रहा है। संयुक्त राष्ट्र संघ भी आज उन्हीं के इशारों पर काम कर रही है जो इसके कर्ता धर्ता होने का दावा करते हैं। इसलिए भारत को यहां से अपने स्वर्णिम इतिहास की छांव में जाना चाहिये और वहां से आगे बढ़ने की सीख लेनी चाहिए।

और हमारा इतिहास हमें यही सीखता है कि शांति ही परम आनन्द है, शांति ही परम विजय है, शांति ही परम धर्म है। अशांत व्यक्ति या समूह कदापि आनन्द, विजय व धर्म की प्राप्ति नहीं कर सकता है। अशांत व्यक्ति की बांहे सदा ही दूसरों के धन, वैभव और प्रतिष्ठा की ओर फैलती है, इस स्थिति में वह सदैव युद्ध को आमन्त्रित करता है। यही प्रवृति त्रेता युग में लंकेश रावण व द्वापर युग में दुर्योधन को ले डूबी थी। आज के परिप्रेक्ष्य में शांति परम आवश्यक है। अन्यथा आज सभी शक्तिशाली देश ब्रह्मास्त्र जैसे परमाणु हथियारों से लैस हैं और शांति का पहिया फिसलते ही पृथ्वी भी अन्य ग्रहों के भांति जीवनहीन हो जाएगा।

Disqus Comments Loading...