उर्दू गालियों की विकृत संस्कृति का बोझ ढोती हिन्दी

भाषा मनुष्य के सर्वोत्तम आविष्कारों में से एक है। यह भावों को व्यक्त करने में सहायता करती है। आपस में संवाद को सुगम बनाती है। पीढ़ियों और सभ्यताओं के मध्य सेतु का कार्य करती है। विचारों की गहनता को बढ़ाती है। अर्जित ज्ञान का संचय शुद्ध रूप में लंबे समय तक करती है।

भाषा का एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू यह है कि यह उस स्थान की संस्कृति और सामाजिक मान्यताओं को अपने साथ लेकर चलती है जहाँ से उसका उद्भव हुआ हो।

एक उदाहरण लेते हैं जिससे अधिक स्पष्टता आए। वर्ष 2004 की बात है। लखनऊ विश्वविद्यालय के खचाखच भरे मालवीय सभागार में के.एन. गोविंदचार्य जी वक्तव्य दे रहे थे। उन्होंने उपस्थित समूह से कहा कि ‘पुण्य’ शब्द के समान अर्थ वाला किसी दूसरी भाषा का कोई शब्द बताएँ। किसी ने ‘Blessing’ बोला, किसी ने ‘शबाब’ बताया तो किसी ने ‘Virtuous’। Holy, Sacred, Charity, Righteous आदि उत्तर भी दिए गए। परंतु न तो बाकी लोग किसी भी उत्तर से संतुष्ट थे, न गोविंदचार्य जी और न ही स्वयं उत्तर देने वाले।

कारण ये है की ‘पुण्य’ केवल एक शब्द नहीं है। भारतीय संस्कृति की झलक दिखने वाला एक झरोखा भी है। कोई गंगा नहा के पुण्य कमा सकता है तो कोई माँ-बाप की सेवा कर के। भूखे को खाना खिलाकर या प्यासे को पानी पिलाकर भी पुण्य अर्जित हो सकता है।  चींटी को आटा, मछली को चावल, गाय को पहली रोटी देकर या कुत्ते को आखिरी रोटी देकर पुण्य का पलड़ा भारी किया जा सकता है। पेड़ लगाना पुण्य का काम है तो उन्हे सींचना भी कम पुण्यकारी नहीं है। राजा प्रजा की सेवा करके पुण्य कमा सकता है तो प्रजा राजा को कर देकर। ऐसे अनगिनत उदाहरण दिए जा सकते हैं। आस्था आधारित पुण्य प्राप्ति के विकल्प तो अलग से हैं हीं।

इसीलिए किसी और भाषा में ऐसा समानार्थी शब्द नहीं मिलता जो ‘पुण्य’ में निहित समग्र विचार को समेट सके। ‘पुण्य’ की व्यापकता उन संस्कृतियों से उपजे शब्दों के बांधे नहीं बंधती जहाँ इतनी विराट संकल्पना ही न हो।

‘तलाक’ या ‘Divorce’ शब्द के साथ भी यही है। ढूँढने पर भी हिन्दी में इसके समानार्थी शब्द नहीं मिलता क्योंकि विवाह जैसे पवित्र बंधन के विच्छेद का कोई कान्सेप्ट ही यहाँ नहीं था।

अब आते हैं उन शब्दों पर जिन्हे हम ‘हिन्दी गाली’ कहते हैं। जितने भी फूहड़ और यौन-कुंठा के शब्द हिन्दी गालियों के रूप में बताए जाते हैं अगर उनके उद्भव की पड़ताल करें तो हिन्दी क्या किसी भी भारतीय भाषा से उनका संबंध दूर-दूर तक नहीं मिलता।

हाँ, उर्दू का विकास अवश्य ऐसी भाषा के रूप मे हुआ है जिसमें मुख्यतः अरबी-फारसी-तुर्की शब्द ही बहुतायत हैं। उर्दू के शिक्षक, शायर आदि सभी प्रयुक्त अरबी-फारसी-तुर्की शब्दों को उर्दू के शब्द कहते हैं। यह सही भी है। वस्तुतः सही अर्थों में उर्दू भारत में अरबी-फारसी-तुर्की भाषा की वाहक है।

और इसी आधार पर हिन्दी में प्रयोग होने वाली सभी अश्लील गालियाँ हिन्दी नहीं अपितु ‘उर्दू गालियाँ’ हैं।

प्रमाण के लिए किसी को माँ की गाली देने हेतु प्रयुक्त सर्वाधिक प्रचलित शब्द को लेते हैं। इसका पहला भाग ‘मादर’ शब्द है। ‘मादर’ अरब में माँ के लिए प्रयुक्त होता है इससे बनने वाले अन्य शब्द जैसे मादरे-वतन (मातृभूमि) या मादरे–जबान (मातृभाषा) उर्दू में भी बहुलता से पढ़ने-सुनने को मिल जाएंगे। इस गाली का दूसरा पद आक्रामक यौनिकता का शब्द है। जो संस्कृत, अवधी, बृजभाषा,खड़ी बोली आदि में कहीं भी नहीं मिलता।

इसी तरह से ‘हराम’ भी अरबी शब्द है। हरामखोर, हरामज़ादा, हरामी, हराम की औलाद जैसी गालियाँ इसी से निकली हुई हैं। ये सभी गालियाँ भी व्युत्पत्ति के आधार पर आयातित हैं और भारत में इन्हे उर्दू गालियाँ कहना सर्वथा उपयुक्त होगा।

बिल्कुल ऐसे ही शरीर के अंगों को अश्लील शब्दों मे व्यक्त करना इन गालियों की एक अन्य प्रवृत्ति है। इन शब्दों में शरीर के गुप्तांगों को गाली के रूप में प्रयुक्त किया जाता है। हाँ, जो भी गालियाँ जो इसस समय आपके दिमाग में आ रही हैं वो सभी। इन अंगसूचक गालियों का प्रयोग सदैव नापने की सूक्ष्मतम इकाई के लिए, किसी को मूर्ख बताने के लिए, किसी को अक्षम या असहाय प्रदर्शित करने के लिए, किसी वस्तु की निरर्थकता साबित करने हेतु अथवा किसी कथन की महत्वहीनता को प्रकट करने में किया जाता है। इन अंगसूचक अश्लील शब्दों में से किसी का भी उद्भव किसी भी हिन्दी अथवा इसकी बोलियों में नहीं मिलता। अरबी, फारसी, तुर्की भाषाओं में कुछ शब्द, कुछ उपसर्ग-प्रत्यय अवश्य मिल जाते हैं। भारत में इस शब्दावली की वाहक सहज रूप से उर्दू ही है।

हाँ, महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा निर्मित ‘वर्धा हिन्दी शब्दकोश’ में ही इनमें से कुछ शब्दों पाया जा सकता है। और वो भी इसलिए की उस शब्दकोश में प्राक्कथन में ही ये स्पष्ट लिखा है कि हिन्दी क्षेत्र में बहुलता से प्रयोग होने वाले अरबी-फ़ारसी आदि शब्दों को इस शब्दकोश मे सम्मिलित किया गया है।

एक स्टैन्ड-अप कॉमेडियन है- जाकिर खान। अपने चुटकुलों में अपनी गर्लफ्रेंड को वो बार-बार बहन कहकर संबोधित करता है। बाद में श्रोताओं से दांत फाड़ते हुए पूरे गर्व के साथ कहता है कि मैं तो मुसलमान हूँ हमारे यहाँ भाई-बहन में ये सब चलता है। जाकिर खान इकलौता नहीं है। ऐसी विकृत मानसिकता के अधिकतर व्यक्तियों से सामान्य बातचीत में आप यह विचार देख सकते हैं।

हाल ही में पाकिस्तान में महिला अधिकारों से संबंधित ‘औरत-मार्च’ निकाला गया। इसमें एक पोस्टर बहुचर्चित रहा जिसमें लिखा था- ‘My brother showed me porn’ (sic). इस पोस्टर के ट्वीट पर लाहौर के एक डॉक्टर फैसल राँझा ने लिखा कि दुर्भाग्यपूर्ण रूप से यह सत्य है कि उनके पास ढेर सारे माता-पिता अपनी बेटी के गर्भपात के लिए आते हैं जो लड़कियाँ अपने भाइयों द्वारा गर्भवती हुई होती हैं।

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अब इस वैचारिक संस्कृति से जो भाषा निकलेगी उसमें ‘मादर##’ या ‘बहन##’ जैसे शब्द निकल के आयें तो यह बिल्कुल भी अचरज की बात नहीं है। कहावत ही है-बोया पेड़ बबूल का तो आम कहाँ से होय। बाकी रक्षाबंधन या भाई-दूज मनाने वाली संस्कृति से निकला कोई भी व्यक्ति लोक-प्रचलन के कारण अथवा अनजाने में इनका प्रयोग भले कर ले परंतु ऐसे शब्दों का निर्माण नहीं कर सकता। इतनी कुत्सितता मस्तिष्क में आने का कोई वैचारिक स्रोत भी तो चाहिए!

हिन्दी में अपमानजनक शब्दों का अपना शब्दकोश है जिसमें मूर्ख, गदहा, कूकूर, ऊदबिलाव, सरऊ, मुँहझौंसे, बिलबिलहे, चपड़गंजू, मग्घे, जैसी अनेकों गालियाँ हैं। कई मुहावरे भी अपमान के लिए प्रयोग में आते हैं जैसे ‘दाल-भात मे मूसरचंद’, ’बिना पेंदी का लोटा’, ‘सावन का अंधा’, ‘थोथा चना बाजे घना’, ‘कुत्ते की पूँछ सीधी नहीं होती’ आदि। विदेशज शब्दों के प्रयोग से भी नए मुहावरों का भी निर्माण हुआ है जैसे- ‘बाप मरे अंधेरे में, बेटा पावरहाउस’। परंतु इनमें न तो स्त्री अपमान का भाव है और न ही यौन कुंठा का। उल्लेखनीय यह भी है कि अलग-अलग इन मुहावरों का प्रयोग भिन्न-भिन्न परिस्थिति के अनुसार ही किया जाता है। अतः इन अपमानजनक शब्दों के प्रयोग के लिए भी बुद्धि की आवश्यकता होती है।

कदाचित अब समय है कि हम सभी हमारी दिनचर्या की शब्दावली में घुसपैठ कर चुके इन अनैतिक, स्तरहीन, असामाजिक और कुंठाग्रस्त शब्दों क्रमिक रूप से बाहर करने के प्रयास आरम्भ करें। प्रक्रिया लंबी है; और दुरूह भी। परंतु कहीं न कहीं से आरंभ करना होगा। संभवतः इन अपशब्दों के अभारतीय होने का उद्घाटन और इस संदेश का प्रसार इस दिशा में पहला लघु प्रयास होगा। शेष शनैः-शनैः……

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