दोगलों की दुनिया

बचपन से सुना है भारत त्योहारों का देश है। साल के 365 दिन, 365 त्योहार, पर अब लगने लगा है कि ये त्योहार हमारे चरित्र के दोगलेपन का पर्दाफाश करने के लिए ही होते हैं।

वैसे तो लिस्ट लम्बी है लेकिन फ़िलहाल चर्चा नवरात्र की, क्योंकि साल में दो बार 9-9 दिनों के लिए देश के बड़े हिस्से में नवरात्र की धूम रहती है।

देवी के 9 रूपों की महिमा का बखान, देवी के जीवनदायिनी रूप से लेकर महिषासुरमर्दिनी स्वरूप की पूजा, लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या इन 9 दिनों की शक्तिपूजा का ज़रा-सा भी असर हमारी जिंदगियों में दिखाई देता है?

कम से कम मुझे तो नहीं लगता। 9 दिनों के दौरान भी महिलाओं के खिलाफ अपराधों में कहीं कमी नहीं आती और न इसके बाद ही कुछ बदलाव दिखाई देता है। मुमकिन है हमारे पिता, दादा या परदादा के ज़माने में ऐसा न होता रहा हो। या यह भी हो सकता है कि होता तो हो लेकिन सामने न आ पाता हो। हालाँकि पुराने समय में तमाम ऐसी मान्यताएँ थीं जिन पर धर्म और समाज की मुहर लगी होती थी पर इनके जरिये भी शोषण महिलाओं का ही होता था।

वैसे तो आलम दुनिया भर का यही है लेकिन जिस समाज में सालाना तौर पर 18 दिन नारीशक्ति को समर्पित हैं, वहां थोड़े बेहतर हालात की उम्मीद करना शायद गलत नहीं है।

हमारे दोगलेपन की एक वजह यह भी हो सकती है कि जब हाथ में तलवार हो तो सभी का सर झुक जाता है। महिला- पुरुष का भेद नहीं रह जाता। इसलिए दुर्गा पूजा दरअसल ताकतवर की पूजा है। सही भी है। अबला नारी की कहीं पूजा नहीं होती। हाँ,  उसकी सहनशीलता की ज़रूर पूजा होती है लेकिन तभी तक जब तक वह शिकायत नहीं करती।  या कि तलवार लिए महिषासुरमर्दिनी भी एक स्त्री है और एक स्त्री भी दुर्गा हो सकती है –  यह सीधा सम्बन्ध हमारी समझ में नहीं आता।

वैसे चरित्र का दोगलापन एक विश्वव्यापी समस्या है। अर्थ डे, वर्ल्ड पीस डे या अपना हिन्दी दिवस – ये सिर्फ मनाने के लिए होते हैं, जुलुस निकालने या नए नारे गढ़ने के लिए होते हैं। इन्हें सीरियसली नहीं लेना चाहिए। मुझे लगता है असल वजह यही है। मैं फालतू में लोड ले रहा हूं।

Ashish Anand: By Profession... 𝑼𝒓𝒃𝒂𝒏 𝑭𝒊𝒏𝒂𝒏𝒄𝒆, 𝑺𝒐𝒄𝒊𝒐-𝑬𝒄𝒐𝒏𝒐𝒎𝒊𝒄 𝑺𝒑𝒆𝒄𝒊𝒂𝒍𝒊𝒔𝒕 By Passion... 𝑻𝒓𝒂𝒗𝒆𝒍𝒆𝒓, 𝑬𝒏𝒋𝒐𝒚𝒊𝒏𝒈 𝑳𝒐𝒏𝒈 𝑫𝒓𝒊𝒗e
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