भारतीय “समुदाय विशेष” के लोग भारत या किसी भी देश के संविधान को मानने में असमर्थ क्यों सिद्ध होते हैं?

मैं इस देश में जन्म से आज तक कुछ 26 वर्ष बिता चुका हूँ। मेरा जन्म जिस स्थान पर हुआ वह भगवान शिव की नगरी के नाम से भले ही प्रसिद्ध हो परंतु अपने मुहल्ले में मैने बचपन से समुदाय विशेष के लोगों को बहुत करीब से देखा। शायद ये लेख समुदाय विशेष के लोगों तक ना पहुचे परंतु फिर भी वैचारिक तौर पर मैं आज तक यह नही समझ पाया कि भारतीय “समुदाय विशेष” के लोग भारत या किसी भी देश के संविधान को मानने में असमर्थ क्यों सिद्ध होते हैं।

सत्य शाश्वत है और धर्म का जन्म केवल असत्य के अस्तित्व में आने के बाद में हुआ, ऐसा मैं सभी धर्मों के लिए मानता हूँ। परन्तु ये समुदाय विशेष का मानसिक जड़त्व है जो उन्हें विज्ञान को स्वीकारने से रोकता है। विज्ञान सत्य है। मुझे इस बात से तकलीफ नही है कि वे बचपन से एक विशेष पुस्तक पढ़ कर ज्ञान प्राप्त करते हैं लेकिन प्रति व्यक्ति मानसिक विकास (Sort of certified professional skill development) के लिए किए गए प्रयासों की घोर कमी एक विचारधारा को जन्म देती है जिससे मानव जीवन का संपूर्ण दायित्व भगवान पर सौंप कर जीवन यापन का सिद्धांत जन्म लेता है। जीवन की कीमत को इतना कम आँकना, अपने को ईश्वर के प्रति समर्पित बताते हुए जीवन त्याग के लिए तैयार रहना एवं अपने देश के लिखित एवं अलिखित दोनों प्रकार के नियमों को ताक पर रखते हुए अपने धार्मिक दायित्वों की पूर्ति करना.. इसकी आड़ में कुछ लोग मनमानी करते हैं।

देश के दूसरे समुदायों की बात करें तो या तो नौकरी या फिर व्यापार में संलिप्तता धीरे धीरे एक बच्चे से युवा और युवा से प्रौढ़ होते हुए मनुष्य में धार्मिकता को एक विश्वास के रूप में प्रस्थापित कर यह विचार प्रबल करती है कि परिश्रम करते हुए हमें मानव जाति के लिए अपने दायित्व पूरे करने हैं। ऐसा नही है कि ऐसे लोग धार्मिक नहीं होते परन्तु धर्म ही धर्म… उसके सिवाय कुछ नहीं.. ऐसी मानसिकता का विकास नहीं कर पाते।

बात की जाए विचारों की तो समुदाय विशेष में भी वैज्ञानिक और प्रभावशाली व्यक्तित्व हुए हैं और दूसरे समुदायों में भी धार्मिक रूढिवादी हुए हैं। मैंने जब से होश संभाला, मैने पूरे प्रयास किये कि मैं किसी भी प्रकार के पूर्वाग्रह से ग्रस्त ना होऊं! मैंने सभी धर्मों के लोगों से बात की और ये महसूस किया कि अपने धार्मिक मूर्खता को देख के जितना दुखी मैं होता हूं उतना ही किसी औऱ समुदाय का मेरा मित्र। ऐसे समय में ये स्पष्ट है कि धर्म गलत करने को नहीं बोला लेकिन कुछ लोगों ने अपने फायदे या किसी उद्देश्य विशेष की पूर्ति के लिए द्वेष भावना पाली और अपने प्रभाव का प्रयोग करते हुए उसे फैलाया।

समय की आवश्यकता समुदाय विशेष के विरुद्ध आवाज उठाने की नही है.. ऐसा करने से हम में और उन में कुछ विशेष अंतर नहीं। आवश्यकता है उनको ये मानने की की यदि आपका अस्तित्व किसी देश की स्वास्थ्य व्यवस्था से हुआ और आपके भरण पोषण के लिए उसी देश ने विभिन्न योजनाएं दीं, आप इसी देश के द्वारा जारी की गई मुद्रा प्रयोग कर अपने धार्मिक उद्देश्य पूरे करते हैं.. आप जब सब प्रकार से जिस जगह के संसाधनों पर निर्भर हैं तो उसके प्रति आपका कुछ तो दायित्व धार्मिक पुस्तकों में भी लिखा है। शिक्षा एवं नौकरी का सही से ना मिलना, किसी प्रकार की विशिष्ट योग्यता ना विकसित करना.. ऐसे कुछ कारण गिनाये जा सकते हैं कि जिसके कारण युवा भटका हुआ कहा जाता है लेकिन उन्हें एक बार यह देखना चाहिए कि उन्हीं के साथ के कुछ लोग अच्छे जीवन की तलाश में बाहर निकल गये और आज एक सामान्य जीवन जी भी रहे होंगे।

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