क्या जेएनयू हिंसा छात्र संघों के राजनीतिक दलों से किसी भी तरह के साहचर्य को पूरी तरह से प्रतिबंधित करने का सही मौका नहीं है?

दिल्ली के प्रतिष्ठित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (JNU) के परिसर में हुई हिंसा दुखद है, फिर भी यह आश्चर्यजनक नहीं है। आज शैक्षणिक परिसरों में जिस स्तर का ध्रुवीकरण तथा वैचारिक विभाजन देखा जा रहा है, इसमें इस तरह की हिंसक घटनाओं को इनकी तार्किक परिणती के रूप में देखा जा सकता है। इस संदर्भ में, क्या यह सही समय नहीं है कि शैक्षणिक परिसरों के अंदर छात्र संघों को पूरी तरह से गैर-राजनैतिक कर दिया जाए और किसी भी राजनीतिक दल के साथ छात्र निकायों के किसी भी संबद्धता को गैरकानूनी घोषित कर दिया जाए?

आज विश्वविद्यालयों एवं शैक्षणिक संस्थानों की सबसे बड़ी बीमारी है छात्र यूनियनों का व्यापक राजनीतिकरण जो निस्संदेह देश के  शैक्षणिक वातावरण को पूर्णतः दूषित कर चुकी हैं।

अकादमिक परिसरों में छात्र राजनीति के गिरते स्तर के कारण छात्र संघों के निर्माण के पीछे के मूल मकसद आज ख़तम होते जा रहे हैं। ये मकसद थें, समाज में ऐसे नेताओं का निर्माण जो बहस और चर्चाओं के माध्यम से विभिन्न और विपरीत विचारों के बीच सामंजस्य ला सकें,  तथा जो आलोचनात्मक सोच को बढ़ावा देते हुए ऐसी युवा पीढ़ी की पौध तैयार कर सकें जो लोकतंत्र और बहुलवाद की विरासत को आगे बढ़ाने में सक्षम हो; और साथ हीं, जो विरोध की राय रख पाने एवं सवाल पूछ पाने के अधिकार वाली संस्कृति – जो कि निस्संदेह हीं मनुष्य के प्रगति की आधारशिला है – को सम्मान दे सकें। पर हुआ इसके विपरीत। हमारे अनुभव बताते हैं कि पिछले कुछ दशकों में, छात्र संघ की राजनीति ने छात्रों को लाभ पहुंचाने के बजाय नुकसान पहुँचाया है। यह सच्चाई है कि आज शैक्षणिक वातावरण में विषाक्तता बढ़ी है और शिक्षा के अपराधीकरण के द्वारा शैक्षणिक परिसरों की स्थिति बेहद ख़राब हुई है।

जेएनयू में, पिछले रविवार को नकाबपोश हमलावरों के एक समूह ने हॉस्टल में प्रवेश करके कथित तौर पर छात्रों, संकाय सदस्यों और गार्ड आदि पर लाठियों तथा तेजधार हथियारों से हमला किया और वाहनों को क्षतिग्रस्त करते हुए भाग गए। लेकिन, क्या यह घटना महज एक कानून-व्यवस्था का मामला है जो कि प्रॉक्टोरियल हस्तक्षेप आदि के माध्यम से सही हो सकती है या यह देश भर में छात्र राजनीति के अन्दर आ चुके गहरे वैमनस्य एवं दुर्भावना के भाव को परिलक्षित करता है?

जैसा कि अब तक सामने आया है, मामला जेएनयू में चल रहे फीस विरोधी आन्दोलनों एवं उसके समर्थन से जुड़ा है। वामपंथी संगठन लंबे समय से फीस वृद्धि के विरोध में कक्षाओं का बहिष्कार कर रहे हैं और इसलिए उन्होंने कथित रूप से नए सत्र में पढ़ाई चालू करने हेतु ईक्षुक छात्रों के पंजीकरण को बाधित करने की साजिश रची। एबीवीपी के छात्र पंजीकरण के ईक्षुक ऐसे सभी छात्रों की, जो कि आज काफ़ी संख्या में हैं, मदद कर रहे थें। दरअसल, नए छात्रों द्वारा किसी भी पंजीकरण और शैक्षणिक गतिविधियों को फिर से शुरू करने का मतलब होता, वामपंथी रणनीति की हार। अतः वामपंथी प्रभुत्व वाले छात्र संघ ने अपने अध्यक्ष आइशी घोष के नेतृत्व में नई कक्षाओं में शामिल होने के इच्छुक छात्रों के पंजीकरण को रोकने के लिए कम्प्यूटर सर्वरों को बाधित कर सर्वर रूम को बंद कर दिया। इस बात पर दो तीन दिनों से लड़ाइयाँ चल रही थीं। माना जा रहा है कि रविवार की हिंसा इन्हीं विवादों की परिणती थी।

यह घटना जेएनयू  विश्वविद्यालय परिसर में बढ़ते राजनीतिकरण एवं परस्पर वैमनस्य के स्तर को दर्शाता है जिससे कि षड्यंत्रों की एक संस्कृति का विकास हुआ है।

राजनीतिक और वैचारिक आधार पर आरोपों की बौछार का सिलसिला यूं तो चलता रहेगा लेकिन बड़ी तस्वीर यह है कि भारत की छात्र राजनीति आज के समय में दूषित हो चुकी है, तथा इसने विश्वविद्यालय परिसरों को पूर्ण राजनीतिक अखाड़ों में बदल दिया है। आज हमारे विश्वविद्यालय परिसर राजनीतिक जगत के सभी ख़ामियों से भरे व्यापक राजनीतिक ब्रह्मांड के एक सूक्ष्म जगत (माइक्रोक़ोस्म) से बन गए हैं।

छात्र-संघ की राजनीति में शामिल होने अथवा विरोध प्रदर्शन करने का अधिकार छात्रों के शैक्षणिक जीवन के अनिवार्य अंग हैं। विश्वविद्यालय परिसर के भीतर विरोध करने का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 19 (1) के तहत प्रत्येक छात्र को उनके मौलिक अधिकार के रूप में उपलब्ध है। लेकिन, परिसर में बड़े पैमाने पर राजनीतिकरण के कारण, आज विरोध प्रदर्शन काफ़ी अतार्किक और उग्र होते जा रहे हैं और, ज्यादातर, शालीनता की सभी सीमाओं को पार करते जा रहे  हैं।

कालेजों और विश्वविद्यालयों में विरोध के नाम पर संकाय सदस्यों के ख़िलाफ़ कक्षाओं के अंदर और बाहर लगातार हूटिंग करना, लगातार नारेबाज़ी करते रहना और कार्यस्थल के रास्ते उनके आते जाते सीटियाँ बजाकर उनका मज़ाक़ उड़ाते रहना, आदि तरीकें शामिल हैं। इसके अलावे, विरोध के नाम पर संकाय और प्रशासनिक अधिकारियों का घेराव किया जाता है, उनके साथ मारपीट की जाती है या ऐसी धमकी दी जाती है, और उन्हें बाहर से तब तक के लिए बंद कर दिया जाता है या वाशरूम आदि का उपयोग करने से रोका जाता है जबतक उनकी माँगें पूरी नहीं हो जातीं । विरोध के ऐसे नवीन विचार यहीं नहीं रुकते, छात्र अधिकारियों के घरों पर भी धावा बोल देते हैं, तथा उनके परिवार के सदस्यों को डराते धमकाते हैं।

26 मार्च, 2019 को, जेएनयू के कुलपति, ममदीला जगदीश कुमार के एक ट्वीट को देखिए, “कल रात जब छात्रों ने मेरे घर पर धावा बोलकर मेरी पत्नी को आतंकित किया, तो जेएनयू के संकाय सदस्यों की पत्नियों ने सुरक्षा गार्डों की मदद से मेरी पत्नी को बचाया और उन्हें अस्पताल ले गयीं। उनकी दयालुता के लिए आभारी।”

जब जेएनयू जैसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय के कुलपति और उनका परिवार सुरक्षित नहीं हैं तो छोटे विश्वविद्यालयों और उनके कर्मचारियों के बारे में क्या कहा जा सकता है?

क्या सिर्फ विरोध के नाम पर ऐसी बातें उचित हैं? विरोध एक मौलिक अधिकार है, लेकिन निर्दोष अधिकारियों को अपमानित करने और आतंकित करने के इरादे से विरोध करना, मौलिक अधिकार नहीं है। यह किसी और के मौलिक अधिकार का उल्लंघन है और इसलिए यह एक आपराधिक कृत्य है। हालांकि, छात्र अनुशासन की रेखा को तोड़ने तथा विरोध के ऐसे आपराधिक तरीकों में लिप्त रहने की हिम्मत सिर्फ इस वजह से कर पाते हैं,क्योंकि उन्हें राजनीतिक वर्ग का पूरा संरक्षण प्राप्त होता है। ये राजनीतिज्ञ परिसर के भीतर अनुशासन को लागू करने के प्रशासकों के सभी प्रयासों को विफल कर देते हैं।

पिछले महीने नाराज छात्रों द्वारा बंगाल के राज्यपाल, जो बंगाल के सभी विश्वविद्यालयों के कुलपति भी होते हैं,को जादवपुर विश्वविद्यालय के परिसर में प्रवेश करने से रोक दिया गया था, जिससे कि उन्हें लम्बे समय तक गेट पर हीं खड़े रहना पड़ा था। इसी प्रकार, एक अन्य अवसर पर, केंद्र सरकार के एक मंत्री, बाबुल सुप्रियो को उसी विश्वविद्यालय परिसर के अंदर वामपंथी और टीएमसी खेमों से संबंधित छात्रों ने मारपीट की, उनके बालों को खींचा और उन्हें ज़मीन पर पटकने की कोशिश की। छात्र यूनियनों का निर्माण और उनकी गतिविधियों का उद्देश्य परिसरों के भीतर डराने और राष्ट्रीय हित को खतरे में डालने, आदि का कतई नहीं हो सकता है।

जनवरी 2017 में, स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ इंडिया (एसएफआई) के कार्यकर्ताओं ने कोच्चि के 144 वर्षीय प्रतिष्ठित महाराजा कॉलेज – जिसके एलमनाइयों में राजनीतिज्ञ एके एंटनी और वायलार रवि, भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश केजी बालाकृष्णन, स्वामी चिन्मयानंद और अभिनेता ममूटी जैसी शख्सियतें शामिल हैं – के कार्यालय से प्रिंसिपल की कुर्सी छीन ली और उनके ‘नैतिक पुलिसिंग’ के खिलाफ एक ‘प्रतीकात्मक विरोध’ के रूप में उसे परिसर के मुख्य द्वार पर ‘चेतावनी’ के रूप में इस लिए जला दिया क्योंकि प्रिंसिपल, एनएल बीना ने परिसर में एक ड्रेस कोड के शुरूआत करने की कोशिश की थी।

क्या एक सभ्य लोकतंत्र को चलाने हेतु आवश्यक नागरिकों की नस्ल को पैदा करने और प्रशिक्षित करने के उद्देश्य में इस तरह के विरोध प्रदर्शन किसी तरह से उपयोगी हो पाएँगे? या ये अराजकता और तानाशाही को जन्म देंगे?

लोकतंत्र हमेशा विरोध हीं नहीं होता; वस्तुतः, लोकतंत्र सहयोग और असंतोष-प्रबंधन के माध्यम से आम सहमति और सद्भाव के माहौल को स्थापित करने का माध्यम होता है। दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ (DUSU) के संविधान में लिखा है कि दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ “दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रों के बीच आपसी संपर्क, लोकतांत्रिक दृष्टिकोण और एकता की भावना” को बढ़ावा देगा। हालाँकि, आज विश्वविद्यालय परिसरों के अंदर छात्र संघ लोकतंत्र के जिस तस्वीर को दिखाते हैं, जिस जोर-जबरदस्ती और गुंडई को प्रोत्साहित करते है, वह अत्याचार और अव्यवस्था का तो पोषक बन सकता है, पर लोकतंत्र का नहीं।

छात्र संघ ज्यादातर आपराधिक मानसिकता वाले छात्रों को आकर्षित करते हैं, जो कि प्रमुख राजनीतिक दलों के सक्रिय समर्थन से लड़े जाने वाले चुनावों को जीतने के लिए धन और बाहुबल का उपयोग करते हैं। पैसा, ताक़त, सामाजिक मान्यता और कथित ‘सम्मान’ की लालसा चंद महत्वाकांक्षी युवाओं को कैंपस की राजनीति की ओर आकर्षित करती है, जो इसे वास्तविक राजनीतिक दुनिया में खुद को लॉन्च करने का एक अवसर मानते हैं।

छात्र राजनीति और उनकी सफलता युवा पीढ़ी को ताक़त का एहसास दिलाती है। लेकिन यह शक्ति शेर की सवारी करने जैसी है; जिस क्षण वो एक नाजुक संतुलन बिगड़ जाता है, व्यक्ति इस शक्ति का स्वामी होने के बजाय इसका शिकार बन जाता है।

विश्वविद्यालय परिसर युवाओं को प्रशिक्षित करने और उन्हें भविष्य के लिए तैयार करने वाले एक जीवंत प्रयोगशाला हैं ताकि इनमें अनुभव प्राप्त कर वे सामाजिक-राजनीतिक विरासत को आगे ले जा सकें। अतः, संस्थान के प्रशासनिक अधिकारियों में कुछ दंडात्मक अधिकार निहित होने ज़रूरी हैं ताकि वे राष्ट्र के भावी नागरिकों के बीच अनुशासन की भावना पैदा कर सकें। प्रिंसिपल, वाइस चांसलर, आदि के पास कुछ निहित अधिकार – बेशक, वो न्यूनतम और जवाबदेही वाले हों – होने चाहिए ताकि संस्थानों में आवश्यक अनुशासन बनाए रखा जा सके।

प्रिंसिपलों की प्रशासनिक शक्तियों को मजबूत करने और उनमें दंडात्मक अधिकारों को निहित करने के मामले की उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अलग-अलग मौकों पर जांच की गई है और उन्होंने इसके पक्ष में निर्णय दिए हैं।

ऐसे कई फैसलों का जिक्र करते हुए, केरल उच्च न्यायालय की एक खंडपीठ ने कॉलेज के एक छात्र पर सुनवाई के दौरान, जो क्लास में उपस्थिति की कमी के कारण प्रिंसिपल द्वारा बीए द्वितीय वर्ष की परीक्षा देने से वंचित कर दिया गया था, 2004 में एक फैसला सुनाया था कि, “संस्था के प्रमुख के अंदर कानूनन ऐसे अधिकार निहित होने चाहिए जो कि उनकी संस्था में अनुशासन बनाए रखने के लिए उनकी राय में आवश्यक है। ”

उच्च न्यायालय ने छात्र को परीक्षा देने से रोकने के प्रिंसिपल के फैसले को सही ठहराया।

चूंकि कक्षाओं से छात्र की गैर-उपस्थिति मुख्य रूप से कॉलेज की संघ गतिविधियों में उसकी भागीदारी के कारण थी, क्योंकि वह स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ इंडिया (एसएफआई) की क्षेत्र समिति का सदस्य था, अतः छात्र ने आरोप लगाया कि प्रिंसिपल की कार्रवाई राजनीतिक रूप से थी प्रेरित और अपनी अपील याचिका में, उच्च न्यायालय के विचार के लिए उसने निम्नलिखित बिंदुओं को उठाया: (i) क्या एक शैक्षणिक संस्थान कॉलेज परिसर के भीतर राजनीतिक गतिविधियों को कानूनी रूप से प्रतिबंधित कर सकता है और छात्रों को कॉलेज के भीतर आधिकारिक लोगों के अलावा अन्य गतिविधियों के आयोजन या उनमे भाग लेने से मना कर सकता है? (ii) क्या कोई छात्र जो कॉलेज में भर्ती है, शिक्षण संस्थान द्वारा निर्धारित आचार संहिता से बाध्य है? और (iii) क्या शैक्षणिक संस्थानों द्वारा लगाए गए इस तरह के प्रतिबंध भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (a) और (c) के तहत गारंटी वाले मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करेंगे?

इस मामले पर विचार करने के बाद, केरल उच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि “भारत के संविधान का अनुच्छेद 19 किसी भी नागरिक को एक मौलिक अधिकार का प्रयोग करने के लिए कार्टे ब्लाँच (पूर्ण अधिकार) नहीं देता है, ताकि अन्य नागरिकों को गारंटीकृत समान अधिकारों का अतिक्रमण किया जा सके।”

विचाराधीन मुद्दों पर, उच्च न्यायलय ने फैसला सुनाया था, “परिसर के भीतर राजनीतिक गतिविधियों पर प्रतिबंध लगाने और दिशानिर्देशों को आयोजित करने या बैठक में भाग लेने से रोकने के लिए दिशानिर्देश परिसर के भीतर किसी के मौलिक अधिकार को प्रतिबंधित करने के लिए नहीं लगाया गया है।” पुनः, कोर्ट ने कहा कि अनुच्छेद 19 (1) (ए) या 19 (1) (सी) के तहत छात्रों का संस्थान में एडमीशन का अधिकार पूर्ण नहीं है (इसका अर्थ है, यदि शर्तों का उल्लंघन होता है तो विद्यार्थी का प्रवेश निरस्त किया जा सकता है), तथा शैक्षिक मानकों को सुनिश्चित करने और शिक्षा में उत्कृष्टता बनाए रखने के लिए नियामक उपाय किए जा सकते हैं।

इसलिए, अदालत ने फैसला दिया था कि “शैक्षणिक संस्थानों के लिए कॉलेज परिसर के भीतर राजनीतिक गतिविधियों पर रोक लगाने का अधिक्कर उचित है और छात्रों को कॉलेज परिसर के भीतर आधिकारिक बैठकों के अलावे अन्य किसी बैठक या आयोजन में भाग लेने से रोकने का कोई प्रतिबंधात्मक आदेश भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) या (सी)का उल्लंघन नहीं करेगा।” (केरल छात्र संघ बनाम सोजन फ्रांसिस, 20 फरवरी 2004)

शैक्षणिक माहौल में अनुशासन लागू करना न केवल महत्वपूर्ण है बल्कि शिक्षा प्रणाली की प्रतिष्ठा को मजबूत करने के लिए अनिवार्य है। अधिकांश छात्र अपनी पढ़ाई पर ध्यान केंद्रित करना चाहते हैं ताकि वे बाहर के अत्यधिक प्रतिस्पर्धी दुनिया में अपने पैर जमा सकें, लेकिन उनमें से एक छोटा गुट छात्रों के वास्तविक हितों से पूर्णतः परे मुद्दों पर शैक्षणिक माहौल को लगातार खराब कर रहे हैं। इसलिए, प्रशासनिक अधिकारियों के पास पर्याप्त शक्तियाँ निहित होनी चाहिए ताकि वे अपने पढ़ाई और करियर के लिए समर्पित लोगों को उन चंद मुट्ठी भर सड़े सेवों से बचा सके।

परिसरों में लगातार और बढ़ती जाति-आधारित हिंसा के कारण तत्कालीन मुख्यमंत्री वीरेंद्र पाटिल के नेतृत्व वाले कर्नाटक राज्य ने 1989-90 के दौरान सभी छात्र संघ चुनावों पर प्रतिबंध लगा दिया था जो कि राज्य में आज तक प्रभावी है। इस प्रतिबंध के कारण कर्नाटक को अपने अधिकार क्षेत्र के भीतर आने वाले कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में अनुकूल शैक्षिक वातावरण प्रदान करने में काफ़ी मदद मिला है । यद्यपि कुछ कॉलेजों में कक्षा प्रतिनिधियों वाले छात्र परिषद हैं, लेकिन देश के बाक़ी राज्यों की तरह छात्र संघ के पदाधिकारियों का प्रत्यक्ष चुनाव कर्नाटक में पूरी तरह से प्रतिबंधित है। कई राज्यों ने अस्थायी रूप से या लंबे समय तक किसी विश्वविद्यालय विशेष पर प्रतिबंध लगाए हैं ताकि कैंपस जीवन में हिंसा के बढ़ते रुझान को नियंत्रित किया जा सके।

यूजीसी समिति द्वारा 1983 में छात्रों की राजनीति पर अपनी रिपोर्ट में किया गया एक पुराना अवलोकन अभी भी प्रासंगिक है और यहां यह उल्लेख के लायक है:

“विश्वविद्यालयों में राजनीतिक गतिविधि स्वाभाविक है क्योंकि विश्वविद्यालय उन लोगों का समुदाय होता है, जो ज्ञान के मोर्चे की खोज कर रहे होते हैं और जो इसे स्वीकार करने से पहले हर विचार की आलोचना और मूल्यांकन करते हैं … हालांकि, यह कहने के लिए खेद है कि “राजनीतिक” गतिविधि का अधिकांश हिस्सा जिसे हमने देखा और कैंपसों में महसूस किया गया कि वह अत्यधिक निम्न प्रकृति का है … यह अभियान, अवसरवाद की “राजनीति” है, जो कि कर्ता के लिए तो फायदेमंद है, लेकिन बाक़ी सभी के लिए यह शैक्षिक गतिविधियों का पतन है… यह भ्रष्टाचार की राजनीति भी है जहां धन या अन्य आकर्षण का उपयोग एक निकृष्ट उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए किया जाता है, चाहे वह चुनाव में जीत हो, या पदाधिकारियों को परेशान करने के लिए गुंडों को काम पर रखना या किसी बैठक या परीक्षा को बाधित करना हो …. ऐसी स्थिति में जब कुछ सौ आंदोलनकारियों के युवा समूह के नेतृत्व को “लोकतांत्रिक” या “मानवीय” आधार पर क़ब्ज़े में किया जा सकता है, राजनीतिक समर्थन देने का लोभ संवरण मुश्किल हो जाता है …. ”

विश्वविद्यालयों में छात्र संघ चुनावों के लिए दिशानिर्देश तैयार करने के मामले में, भारत सरकार ने, 2005 के सर्वोच्च न्यायालय के एक आदेश के बाद, सेवानिवृत्त सीईसी, श्री जेएम लिंगदोह के अधीन “शैक्षिक संस्थानों में शैक्षणिक माहौल बनाए रखने के लिए आवश्यक पहलुओं पर सिफारिश” देने हेतु छह सदस्यीय समिति का गठन किया था।

समिति ने 2006 में अपनी सिफारिश के रूप में एक विस्तृत दिशानिर्देश प्रस्तुत किया, जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने पूर्णतः स्वीकार कर लिया,तथा न्यायालय ने सभी कॉलेज और विश्वविद्यालयों को छात्र संघ चुनाव कराने के लिए लिंगदोह समिति के दिशानिर्देशों को अपनाने का निर्देश दिया। (केरल विश्वविद्यालय बनाम परिषद, प्राचार्य, कॉलेज, केरल और अन्य, 2006)

लिंगदोह समिति की रिपोर्ट ने राजनीतिक दलों के प्रभाव और उनके गंदे धन से छात्र निकायों को मुक्त करने के साथ-साथ चुनावी सुधारों का सुझाव दिया था। दिशानिर्देशों ने जोरदार तरीके से छात्र चुनाव और राजनीतिक दलों से छात्र प्रतिनिधित्व को अलग करने की सिफारिश की, जैसा कि उल्लेख किया गया है, “चुनावों की अवधि के दौरान कोई भी व्यक्ति, जो कॉलेज/विश्वविद्यालय के रोल पर छात्र नहीं है, को किसी भी स्तर पर चुनाव प्रक्रिया में भाग लेने की अनुमति नहीं दी जाएगी।” इसके अलावा,समिति ने यह भी सिफारिश की कि छात्र संघ चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों के पास कुछ न्यूनतम अनुशासन और शैक्षणिक क्षमताओं का होना अनिवार्य हो, जैसे कि – पिछले वर्ष में कम से कम 80 प्रतिशत उपस्थिति हो और प्रत्याशी ने अपने पाठ्यक्रम की सभी परीक्षाओं में पास किया हो।

हालांकि, लिंगदोह समिति के सिफ़ारिशों को छात्र निकायों ने, चाहे वो एबीवीपी हो या एसएफआइ, अस्वीकार कर दिया, क्योंकि इसे वे छात्रों के अधिकारों का हनन मानते हैं। लेकिन, इस तथ्य से कोई इंकार नहीं है कि छात्र निकायों में राजनीतिक दलों की भागीदारी के परिणामस्वरूप परिसर के वातावरण का पतन हुआ है। अनुचित राजनीतिक हस्तक्षेप और संरक्षण ने छात्रों के बीच केवल अनुशासनहीनता और प्रशाशनिक अधिकारियों के प्रति उद्दंडता वाले रवैये को बढ़ावा दिया है।

इसके अलावा, राजनीतिक दल नियमित रूप से उन स्वतंत्र उम्मीदवारों को रोकते हैं, जो कि निर्दलिए होते हैं अथवा किसी प्रचलित राजनीतिक विचारधारा के अनुरूप नहीं होते। ऐसे प्रतियोगियों को दबाव द्वारा मैदान से बाहर कर दिया जाता है। एक स्वतंत्र आवाज का खो जाना पूरे संस्थान का नुकसान है।

छात्र संघ अपने हथकंडों का प्रयोग कर ज़्यादातर छात्र-छात्राओं को संघ का सदस्य बनाते चाहते हैं तथा इस प्रकार वे कई छात्रों के अपोलिटिकल अथवा ग़ैर-राजनैतिक बने रहने अथवा किसी भी छात्र संघ के सदस्य नहीं होने के अधिकार का उल्लंघन करते हैं। नकदी और संसाधनों के ढेर पर बैठे पार्टी-आधारित ये छात्र संघ कई अनिच्छुक छात्रों को संरक्षण का लालच दे कर या उन पर दबाव डाल कर या उन्हें कई मुफ़्त सुविधाओं एवं महँगे सांस्कृतिक कार्यक्रमों के माध्यम से लुभाते हैं तथा अपने क़ब्ज़े में ले पाने में सफल हो जाते हैं।

छात्र संघ शैक्षणिक जीवन का एक महत्वपूर्ण पहलू है, क्योंकि संघ छात्र समुदाय की सामूहिक चिंताओं को सुनने और वास्तविक हितों की रक्षा करने के लिए एक वैध माध्यम होते हैं। हालांकि, शैक्षणिक परिसर के लोकतांत्रिक हितों के साथ साथ विश्वविद्यालयों और कॉलेज परिसरों के भीतर शैक्षणिक माहौल, अनुशासन और सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने जैसे आवश्यक हितों को संतुलित करना आवश्यक है। छात्र संघ की हिंसा के कारण परिसर की गतिविधियों में आया व्यवधान उन हजारों छात्रों के भविष्य के साथ खिलवाड़ करता है जो विश्वविद्यालयों में अकादमिक उत्कृष्टता प्राप्त करने के ध्येय से आते हैं न कि राजनीतिक ट्रेनिंग के लिए।

मानव प्रगति की शुरुआत हीं समीक्षात्मक सोच से होती है। “डिसेंट” यानी अलग सोंच का अधिकार मानव जीवन के अस्तित्व की कुंजी है, और बहस, चर्चा और चिंतन अकादमिक परिसरों में छात्रों के संतुलित विकास का इंजन। वाद-विवाद मतभेदों को खत्म करने के लिए आवश्यक पुल का कार्य करते हैं और दूसरे के दृष्टिकोण को समझने के लिए आवश्यक दृष्टि को जन्म देते हैं। हालाँकि, जब डिसेंट का राजनीतिक कारख़ानों से ‘उत्पादन’ शुरू होने लगता है तथा बहस को हूटिंग और शारीरिक हिंसा के माध्यम से जीतने की होड़ शुरू हो जाती है, तब लोकतांत्रिक मूल्य पीछे हो जाते हैं।

छात्र संघों के राजनीतिकरण का सबसे बड़ा दोष यह है कि संघ शैक्षणिक परिसरों में अपने राजनीतिक दलों के राजनीतिक अजेंडों को उतार लाते हैं, जिससे ना सिर्फ़ शैक्षणिक परिसरों में वैचारिक मतभेद स्थापित होते हैं बल्कि छात्रों के वास्तविक मुद्दे पूरी तरह से खो जाते हैं।

इसलिए, हालांकि कैंपसों में छात्रों के वास्तविक हितों की रक्षा के लिए यूनियनों का संरक्षण आवश्यक है, पर इस तरह के छात्र-संघ एक स्वतंत्र निकाय होने चाहिए जो राजनीतिक दलों के चंगुल एवं हस्तक्षेप से पूर्णतः मुक्त हों। जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक हमारे शैक्षणिक संस्थानों में हिंसा और राजनीतिक टकराव के अनन्त चक्र को समाप्त करना मुश्किल होगा तथा तब तक हमारे शैक्षणिक संस्थान उत्कृष्टता के केंद्र नहीं बन सकेंगे।

तो, क्या जेएनयू हिंसा हमें छात्र संघों के किसी भी राजनीतिक संबद्धता या राजनीतिक दलों से छात्र संघों के किसी भी तरह के साहचर्य को पूरी तरह से प्रतिबंधित करने का सही मौका नहीं देती है?

Krishna Kumar: Novelist, blogger, columnist and a RW liberal. Managing Trustee, Vedyah Foundation. Latest political thriller, "The New Delhi Conspiracy", co-authored with Meenakshi Lekhi, MP, is now on the stands.
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