सेकुलरिज्म या दिखावा, धर्म के नाम पर व्यक्तिगत आजादी का हनन क्यों?

धर्म के मुद्दे बड़े संवेदनशील होते हैं, उनमें तर्क- वितर्क करना (तथाकथित धर्म गुरुओं के अनुसार) अपराध माना जाता है. फिर उनमें अपने अनुसार नीतियां बना ली जाती हैं, जिनका पालन उस धर्म के मानाने वालों द्वारा किया जाता है. मगर सवाल खड़ा तब हो जाता है जब आज के मॉडर्न धार्मिक ठेकेदार अपने हिसाब से मान्यताओं को सेट करने लग जाता है.

ये कोई पहला मौका नहीं, जब अपनी दिमाग की उपज किसी दूसरे पर धर्म के नाम पर थोप दी जाती है. कभी कोई मुस्लिम महिला ज़ायरा वसीम के फिल्म में काम करना शुरू करती है या कभी मुस्लिम महिला निदा खान द्वारा तीन तलाक पर आवाज उठाई जाती है तो उसके खिलाफ फतवे जारी कर दिए जाते हैं. सलमान खान गणेश पूजा में प्रमुख रूप से हिस्सा लेते हैं, शाहरुख़ खान गणेश विसर्जन के साथ तस्वीर शेयर करते हैं तो उन्हें मुस्लिम ट्रोलर्स की ट्रोलिंग का शिकार होना पड़ता है.

सारा अली खान को गणेश चतुर्थी विश करने पर कट्टरपंथियों की खाली बैठी फौज टूट पड़ती है. क्रिकेटर इरफ़ान पठान को इसलिए मुस्लिम कटटरपंथियो द्वारा निशाने पर लिया जाता है कि उसने रक्षाबन्धन की शुभकामनायें दे दीं. क्रिकेटर मोहम्मद कैफ का इसलिए विरोध किया जाता है क्यूंकि वह सूर्या नमस्कार में हिस्सा ले लेता है और अब जब टीएमसी की लीडर और एक्ट्रेस नुसरत जहां जब दुर्गा पूजा में शामिल हो जाती है तो मौलानाओं के कान खड़े हो जाते हैं और बिना कोई समय गँवाए त्वरित प्रतिक्रिया आती है, कड़ी नाराजगी जाहिर कर दी जाती है.

अब यहाँ सवाल खड़ा होता है कि हर दूसरे दिन ऐसी स्थितियों को देखकर इस देश में ‘सेकुलरिज्म’ शब्द के लिए जगह कहाँ बचती है? अगर एक दूसरे के धर्म से इतनी नफरत की जा रही है तो आपस में मेल जोल बढ़ाने की गुंजाईश कहाँ बचती है? फिर किसी की व्यक्तिगत आजादी और स्वतंत्रता की जगह कहाँ बचती है? सेकुलरिज्म की आड़ में अपने अजेंडे सेट करने वालों के लिये यही सवाल खड़ा होता है कि क्या अब सभी को एक दूसरे के धार्मिक त्योहारों पर बधाई देना, उनकी ख़ुशी में शामिल होना, उनमे भाग लेना बंद कर देना चाहिए?

आपके अपने धर्म में अपनी सुविधा के हिसाब से काम न होते ही उसके खिलाफ खड़े हो जाते हैं तो आपको सीधा सिद्धांत बना देना चाहिए कि न हम किसी के घर में जाएंगे और न किसी को आने देंगे. हर दूसरे दिन मज़ारों पर जाकर माथा टेकने वालों, चादर चढाने वालों पर बैन लगा देना चाहिए. रमजान के दौरान किसी दूसरे धर्म के व्यक्ति द्वारा इफ्तारी के रूप में मिलने वाली मुर्गे की टांग का भी बहिष्कार करना चाहिए. ईद के भोज में भी दूसरे धर्म के लोगों को भी शामिल होने से रोकना चाहिए. माइक पर पढ़ी जाने वाली नमाज को भी बंद किया जाना चाहिए जिससे जबरदस्ती अन्य धर्म के लोगों को भी सुनाया जाता है.

मगर आपके साथ समस्या क्या है कि सब कुछ आपके हिसाब से सेट होना चाहिए. हलाला के नाम पर महिला का रेप सकते हैं. मस्जिद में बच्ची का बलात्कार कर सकते हैं. आतंकियों का समर्थन कर सकते हैं. मस्जिद में हथियार रख सकते हैं. टीवी देखने का विरोध कर टीवी पर डिबेट में बैठ सकते हैं. आप आजादी का झंडा बुलंद कर तीन तलाक का विरोध कर सकते हैं. आप अफजल के लिए शर्मिंदा हो सकते हैं, आप भारत के टुकड़े टुकड़े करने के लिए तैयार हो सकते हैं,आप पत्थरबाजों को मासूम बता सकते है, आर्मी को रेपिस्ट बता सकते हैं. आप ‘भगवा आतंकवाद’ जैसे शब्द गढ़ सकते हैं. इन सब कर्मों को वालों का जब सजा भुगतने का वक्त आता है तो आप मानवाधिकार और आजादी का रोना रो सकते हैं. मगर ऐसा करने वालों के खिलाफ न आप नाराजगी जाहिर कर सकते हैं न फतवा जारी..

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