प्रिय हिंदी

प्रिय हिंदी सुना हैं इस वर्ष तुम्हे भी सांप्रदायिक व दलित विरोधी करार दिया गया। सुनकर बुरा लगा, सोचा नही था की इस वर्तमान वातावरण में तुम्हे भी यह दिन भी देखना पड़ेगा, तुम्हे भी इस धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता के तराज़ू में तौला जाऐगा, तुम पर भी ऐसे बेतुके आरोप लगाए जाएंगे। अब इस बदलते परिवेश में अब भला तुम भी बुद्धिजीवियों के निशाने पर आने लगी हो, अब इन्हें कौन समझाए की भाषा तो उसे बोलने वाले व्यक्तियों के विचारो का  प्रतिबिम्ब होती हैं। जैसे उनके विचार वैसे ही रूप में भाषा ढल जाती हैं। पर प्रिय हिंदी तुम किंचित भी भयभीत न होना क्योकि तुम्हारी ममता पर प्रश्नचिह्न खड़े किये गए हैं और ऐसे व्यक्तियो को सरल सुसंस्कृत शब्दो में उत्तर देना तो बनता हैं, तो सुनो आरव (कर्कश ध्वनि) करते बुद्धिजीवियों।

हिंदी में अपनापन का भाव हैं, वह ममता से परिपूर्ण है। वह जिन प्रदेशो की मातृभाषा हैं उन प्रदेशो के वातावरण के अनुसार उसने स्वयं को ढाला, सारे उच्चारणों को अपनी देवनागरी लिपि और विभिन्न बोलियों में सहेजकर रखा, श्रेष्ठ तम साहित्य को जन्म दिया। हिंदी ने भारतीय सिनेमा के एक भाग को ऊँचाइयों के नए आदर्शो तक पहुँचा दिया, उत्तम गीत और संगीत रचकर सबको मंत्रमुग्ध किया, भारत की आधिकारिक भाषा के पद का मान रखते हुए हिंदी भाषा ने पूरे देश को एक सूत्र में बाँधने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, एक प्रदेश को दूसरे प्रदेश से जोड़ा। माना की वह पूरे देश की मातृभाषा नही पर वह तो यशोदा माँ सी सदैव ममता से परिपूर्ण है उसने फ़ारसी, अरबी और अंग्रेजी के शब्दो को बड़ी सहजता से अपना लिया। वह उर्दू के संग इस प्रकार पली बड़ी और घुल मिल गयी की दोनों भाषा में भेद कर पाना किसी आम भारतीय के बस में नही, परंतु हिंदी भाषा के इसी सरल स्वभाव के कारण दूसरी भाषा के कुछ आपत्तिजनक शब्द भी आम बोलचाल में आ गए (उदाहरण के लिए अरबी मूल का शब्द “औरत” जिसका वास्तविक अर्थ बहुत अपमानजनक हैं और यहाँ इस शब्द के अर्थ का वर्णन करना भी उचित नही होगा) किंतु हिंदी स्वयं ही 56 अक्षरों व असंख्य शब्दो से परिपूर्ण हैं।

भारत के लगभग लगभग सभी उच्चारण देवनागरी लिपि में समाहित हैं इसलिए अब समय आ गया है की हर एक नई खोज, अभिव्यक्ति, अनुभाव, अविष्कार को हिंदी के शब्दो में भी परिभाषित किया जाए,और हिंदी की शब्दावली एवं शब्दकोश का निरंतर आधुनिकरण किया जाए। हालांकि आशा है की हिंदी शब्दकोश में नए शब्दो को जोड़ने व शब्दावली के निरंतर आधुनिकरण हेतु भारत सरकार द्वारा वर्तमान में कोई न कोई केंद्र स्थापित होगा। परन्तु अगर ऐसा नही है तो केंद्र सरकार व हिंदी भाषित राज्यो को इस ओर ध्यान देने की आवश्यकता हैं, और शीघ्र अति शीघ्र ही ऐसे किसी केन्द्र को स्थापित करना चाहिए साथ ही साथ हिंदी के मैत्रीपूर्ण स्वभाव का मान रखते हुए व देश की अखंडता को पुरज़ोर बनाने के लिए अन्य भारतीय भाषाओ के शब्दों को भी हिंदी भाषा के शब्दकोष में सम्मिलित करना चाहिए।

अब रही बात हिंदी की सांप्रदायिक व दलित विरोधी होने की तो क्या हिंदी शब्दो में “विश्व का कल्याण हो” “प्राणियों में सद्भावना हो” का उद्घोष सांप्रदायिकता हैं, क्या विश्व के कल्याण की कामना करना सांप्रदायिक हैं? प्राणियों में सद्भावना हो ऐसी आशा करना क्या यह सांप्रदायिकता हैं? क्या यह दलित विरोध हैं? क्या देश के वीर जवानों को समर्पित माखनलाल चतुर्वेदी की हिंदी कविता “पुष्प की अभिलाषा” सांप्रदायिक हैं? क्या कबीर के नीतिपरक दोहे सांप्रदायिक, दलित विरोधी हैं?क्या हरिशंकर परसाई के समाज पर कटाक्ष करते व्यंग सांप्रदायिक हैं? क्या मुंशी प्रेमचंद की हिंदी में रचित ईदगाह व पंच परमेश्वर जैसी कहानियां सांप्रदायिक हैं?

आजकल के बुद्धिजीवी छद्म धर्मनिरपेक्षता के रथ पर सवार होकर सांप्रदायिकता की ऐसी अंधाधुन तलवार लहराते हैं की जिसके वार से बच पाना अब व्यक्तियो के लिए तो क्या भाषा के लिए भी संभव नही हैं। हालांकि इनके कुतर्कों का तो सामना किया जा सकता हैं परन्तु इनके अल्पज्ञान का क्या जब ये “पुरुषार्थ” जैसे शब्दों का अर्थ नही जानते और अपने मन से अर्थ का अनर्थ करते रहते हैं।

हिंदी भाषा के प्रति इन बुद्धिजीवियों की अरुचि एवं आम भारतीयों का अंग्रेजी के प्रति मोह कही हम पर भारी न पड़ जाए । हिंदी के सरल मौखिक स्वरूप पर तो वर्तमान में कोई संकट प्रतीत नही होता, परन्तु साहित्यिक स्वरूप पर संकट के बादल छाये प्रतीत होते हैं। क्योकि आज की युवा पीढ़ी हिंदी साहित्य से कही अधिक अंग्रेजी साहित्य को महत्व देती हैं। हिंदी साहित्य में रूचि रखने वाले व्यक्तियों की संख्या भी धीरे धीरे कम होती जा रही हैं। भाषा में कहावत और मुहावरों का प्रयोग सीमित होता जा रहा हैं। इसके अतिरिक्त देवनागरी लिपि का उपयोग भी सीमित होता जा रहा हैं, क्योंकि अधिकतर विद्यालयों में आजकल भाषा का माध्यम अंग्रेजी हैं और केवल हिंदी विषय की पढाई के लिए ही देवनागरी लिपि का उपयोग होता हैं। साथ ही साथ अधिकतर गैर सरकारी संस्थानों में भी अंग्रेजी भाषा का ही प्रमुखता से उपयोग किया जाता हैं। इसलिए देवनागरी लिपि के प्रचार प्रसार पर भी प्रमुखता से ध्यान देने की आवश्यकता हैं, क्योंकि “किसी भी राष्ट्र की संस्कृति व संस्कारो के पालन पोषण में भाषा नमक माँ की ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका होती हैं”।

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