सती प्रथा: एक समग्र विश्लेषण

आज तक हिंदुओं के साथ भारतीय इतिहासकारों ने हमेशा छल किया है। वामपंथी विचारधारा से प्रभावित इतिहासकारों ने या तो हमें आधा अधूरा सच बताया या तोड़ मरोड़ कर। ऐसा ही कुछ सती प्रथा के संबंध में भी हुआ है। यह प्रचारित किया गया कि सती प्रथा हिंदू धर्म में प्रचलित एक कुरीति है और इसे राजा राम मोहन राय के प्रयासों से 1829 में विलियम बेंटिक ने रोक लगाया। क्या यह पूरा सच है? नहीं! आईए जानने का प्रयास करते हैं कि पूरा सच क्या है:

पूरा सच जानने के लिए हमें धर्मग्रंथों का अध्ययन सूक्ष्म विश्लेषण करना आवश्यक है और साथ ही साथ रामायण और महाभारत के कुछ पात्रों का उल्लेख करना नितांत आवश्यक है। रामायण के प्रमुख पात्रों में हैं दो सहोदर भाई बाली और सुग्रीव। बाली की पत्नी थीं तारा। बाली वध के पश्चात तारा का क्या हुआ? यह जानना बहुत ही आवश्यक है। बाली की मृत्यु के पश्चात तारा का विवाह हुआ सुग्रीव के साथ। अन्य दो प्रमुख पात्र हैं रावण और विभीषण। रावण की मृत्यु के पश्चात मंदोदरी का क्या हुआ? मंदोदरी का भी विवाह हुआ विभीषण के साथ। प्रभु श्रीराम के पिता दशरथ की मृत्यु के पश्चात क्या उनकी रानियों ने आत्मदाह किया या सती हुईं? नहीं! इसी प्रकार महाभारत के महत्वपूर्ण पात्र कुंती की चर्चा करना भी आवश्यक है। पांडवों की माता कुंती ने पांडू की मृत्यु के पश्चात क्या किया? क्या माता कुंती सती हुईं? नहीं! अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा ने अभिमन्यु के देहावसान के बाद क्या किया? क्या वो सती हुईं? नहीं! उत्तरा के गर्भ में उस समय एक शिशु पल रहा था जब अभिमन्यु की मृत्यु हुई और यह बालक ही आगे चलकर परीक्षित के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

इन उदाहरणों से स्पष्ट हो जाता है कि रामायण और महाभारत काल में विधवा विवाह प्रचलित था और यह महिला की स्वेच्छा पर निर्भर था। महिलाओं की इच्छा का इस काल में अच्छा खासा महत्व था। विवाह संबंध उनकी इच्छा से ही होता था जिसे हम स्वयंवर के नाम से जानते हैं। मनुस्मृति अध्याय 3 श्लोक नं. 56 में लिखा है, “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:।”

विधवा विवाह और सती प्रथा दो विपरीत प्रथाएँ हैं जिनका सह-अस्तित्व कभी भी संभव नहीं। अर्थात अगर विधवा विवाह प्रचलित है तो सती प्रथा का कोई औचित्य ही नहीं है। निस्संदेह सती प्रथा मूल हिंदू धर्म का कोई अंग नहीं था। फिर यह कुरीति समाज में कैसे शुरू हुई? इस प्रश्न का उत्तर ढूँढ़ना अत्यंत आवश्यक है।

परंतु हमारा इतिहास हमें इस बारे में कोई जानकारी नहीं देता। बल्कि यह इस कुरीति को, जो कि मूल हिंदू धर्म का कोई अंग ही नहीं, हिंदू धर्म का एक अंग बताता है। क्यों? क्या हमें यह प्रश्न नहीं उठाना चाहिए?

इस प्रश्न का उत्तर जानने का प्रयास करने से पहले हमें अरब सभ्यता के बारे में भी जानना आवश्यक है। अरबी सभ्यता मुख्यतः कबीलाई सभ्यता थी। चूँकि खाना-पानी की कमी रेगिस्तान में प्राकृतिक समस्या है, अतः इसके लिए वहाँ कबीलों के मध्य संघर्ष होते रहना एक आम बात थी। दो कबीलों के मध्य संघर्ष के पश्चात जब एक कबीला हार जाता था तो उस कबीले की महिलाओं पर कब्जा कर लिया जाता था और उनके साथ मनमाना आचरण किया जाता था और उन्हें ‘हरम’ में रखा जाता था।

सातवीं शताब्दी के पश्चात मुस्लिम आक्रांताओं ने ईस्लाम के प्रचार और लूटपाट के उद्देश्य से अन्य देशों पर आक्रमण करना शुरू किया। ऐसे ही उद्देश्यों के साथ वे भारत भी आए। भयानक मार काट व लूट-पाट के साथ-साथ उन्होंने महिलाओं के साथ भी बर्बरतापूर्ण आचरण करना शुरू किया। उनके इस अन्यायपूर्ण और जघन्य कृत्यों से बचने के लिए महिलाएँ आत्मदाह करने लगीं। जिसे की जौहर के नाम से जाना जाता है। कालांतर में यही प्रथा बिगड़ कर सती प्रथा में बदली होगी। इस संदर्भ में गहन शोध करने की आवश्यकता है।

इस दिशा में सोचने की आवश्यकता इस कारण से भी है कि गुप्त साम्राज्य तक कहीं पर भी सती प्रथा का कोई उल्लेख नहीं है। विभिन्न विदेशी यात्रियों जैसे मेगास्थनीज, ह्वेन सांग और फाह्यान ने अपने यात्रा वृत्तान्त में कहीं पर भी सती प्रथा का कोई उल्लेख नहीं किया है। अपनी तत्कालीन समाज का वर्णन करते हुए उन्होंने समाज को खुशहाल समाज लिखा और स्त्रियों की दशा अच्छी बताई। इससे भी स्पष्ट होता है कि सती प्रथा जैसी कोई कुरीति समाज में प्रचलित नहीं थी अन्यथा समाज को खुशहाल समाज की संज्ञा नहीं दिया जाता।

अब अगला प्रश्न उठता है कि, चाहे किसी भी कारण से यह प्रथा प्रारंभ हुई हो, इसे किसने समाप्त किया? हमें आज तक इस विषय पर दो ही महापुरुषों का उल्लेख मिलता है – राजा राममोहन राय और ईश्वर चंद बंदोपाध्याय (विद्यासागर)। इन दोनों में भी राजा राममोहन राय को इतिहास ने ज्यादा तरजीह दी। परंतु यह अधूरा सच है। निस्संदेह राजा राममोहन राय ने सती प्रथा अंत करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया परंतु केवल उन्होंने योगदान दिया यह संपूर्ण सत्य नहीं। स्वामीनारायण ने इसके लिए विशेष प्रयास किया परंतु कभी भी उनका जिक्र सती प्रथा के विरुद्ध आंदोलनकर्ताओं की सूची में शामिल नहीं किया गया। सन 1800 में ही मराठा पेशवाओं ने सती प्रथा को अपने साम्राज्य में वर्जित कर दिया था परंतु पेशवाओं को इतिहास ने सदा से ही क्रूर और ऐय्याश की तरह पेश किया। इन सभी के बारे में अरविंद शर्मा और केथेरिन यंग ने विस्तार से अपनी किताब ‘Sati: A Historical and Phenomenological Essays” (1988) में लिखा है।

इन सबके अलावा एक और महत्वपूर्ण, अतिमहत्वपूर्ण, व्यक्ति का उल्लेख किया गया है इस किताब में – मृत्युंजय विद्यालंकार। बंगाली ब्राह्मण परिवार में जन्मे मृत्युंजय इस कारण से अतिमहत्वपूर्ण हैं कि उनके ही सटीक विश्लेषण और वक्तव्यों के आधार पर कलकत्ता कोर्ट ने सन् 1829 में अपने ऐतिहासिक फैसले में सती प्रथा पर हमेशा के लिए पाबंदी लगाई। क्या था विद्यालंकार का विश्लेषण और वक्तव्य? हिंदू धर्मग्रंथों का विश्लेषण कर और अपने अकाट्य तर्कों के माध्यम से मृत्युंजय विद्यालंकार ने साबित किया कि सती प्रथा मूल हिंदू धर्म का हिस्सा नहीं है। जिस विद्यालंकार को सबसे महत्वपूर्ण स्थान मिलना चाहिए था उनके नाम से लगभग 95% भारतीय जनता अनभिज्ञ होगी। मुझे तो ऐसा लगता है कि 99% कहना भी अतिशयोक्ति नहीं होगा। विद्यालंकार के विश्लेषण में यह साबित किया गया कि सती प्रथा मूल हिंदू धर्म का हिस्सा नहीं है। फिर क्यों हमें बारंबार यही पढ़ाया गया कि यह प्रथा हिंदू धर्म की कुरीति है।

समाज में किसी तात्कालिक समस्या के समाधान हेतु प्रचलित किसी परंपरा को धर्म से जोड़ कर धर्म को कलंकित करने का कुचक्र किसने किया और क्यों किया? विद्यालंकार को क्यों तरजीह नहीं दी गई और केवल राजा राममोहन राय को ही महत्व दिया गया। कहीं इसके पीछे राजा राममोहन राय का ईसाई होना तो एक कारण नहीं है?! चौंक गए!! बिलकुल मत चौंकिए। आपने सही पढ़ा। राजा राममोहन राय ने ईसाई धर्म अपना लिया था जिसकी वजह से उनकी माताजी ने उनकी काफी भर्त्सना की थी। यहाँ यह तथ्य उजागर करने का उद्देश्य राम मोहन के प्रयासों को कमतर करने का नहीं है। निस्संदेह उनका प्रयास सराहनीय था और भारतीय समाज हमेशा कृतज्ञ रहेगा। परंतु इस तथ्य को उजागर कर मैंने यह बताने का प्रयास किया है कि इतिहास लिखने वाला इतिहासकार कलुषित मानसिकता से ग्रस्त एक कपटी व्यक्ति था जिसने केवल राजा राममोहन राय को ही तरजीह दी और अन्य महापुरुषों के नाम तक छुपा दिए। मृत्युंजय विद्यालंकार को जो महत्व मिलना चाहिए था वह मिला नहीं।

इसके पीछे एक ही कारण हो सकता है कि समाज को उसके ऐतिहासिक गौरव और संस्कृति से दूर कर दो। इतिहास और संस्कृति से विस्मृत हुआ समाज अधिक समय तक अपना अस्तित्व नहीं बचा सकता।निस्संदेह यह एक गहरी साजिश के तहत किया गया है संभवतः मैकाले के योजना के तहत। मैकाले ने 1835 में ब्रिटेन की महारानी को अपने पत्र में लिखा था कि इस देश को तब तक ध्वस्त नहीं किया जा सकता जब तक कि इसके शिक्षा पद्धति पर, संस्कृति पर आघात न किया जाए।

anantpurohit: Self from a small village Khatkhati of Chhattisgarh. I have completed my Graduation in Mechanical Engineering from GEC, Bilaspur. Now, I am working as a General Manager in a Power Plant. I have much interested in spirituality and religious activity. Reading and writing are my hobbies apart from playing chess. From past 2 years I am doing research on "Science in Hindu Scriptures".
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