लुटियंस दिल्ली को समझ में न आने वाली फिल्म- कबीर सिंह

हम पैदा होते हैं प्यार करते हैं और मर जाते है लाइफ का ये ही 10% हिस्सा सबसे जरुरी होता है बाकी 90% तो इन्ही का रिफ्लेक्शन है।

पिछले शुक्रवार से एक नयी चरस मार्किट में आयी हुई है misogynist टाइप की या यूँ कहें कि the fucking patriarchal Society वाली सोच के साथ कबीर सिंह (ऐसा रिव्यु आया है)। तो कल जब पेपर ख़त्म हुआ तो सोचा नयी चरस है try तो करना बनता है इसलिए पहुँच गये टाकीज। और दो बार गया कि हो सकता है अपने male ego के चक्कर में सिमोन दी बुआ (फेमिनिस्ट चाची- आखिरी वाला नाम याद नहीं रहता) का कांसेप्ट भूल जाऊं इसलिए दो बार देखनी चाहिए। पहली बार सोसाइटी के सबसे असभ्य टाकीज (ऐसा दिल्ली वाले कहते हैं) में और दूसरी बार वहां जहाँ सामने होता किस देखकर तुम्हारे पड़ोस में लाइव हो जाता है। But we can’t judge anyone because u born with fucking patriarchal mindset.

Movie कबीर सिंह दक्षिण की अर्जुन रेड्डी की रीमेक है। एक फिल्म के तौर पर किसी को जब देखा जाता है तो उसके सभी पक्षों को देखना पड़ता है। जैसे म्यूजिक, movie आने से पहले ही बेख्याली, मेरे सोनेया लोगों की जुबान पर था। और सबसे खास बात कि अन्य movie की तरह गानों को 5 मिनट अलग से नहीं दिया गया है। डायरेक्शन और सिनेमोटोग्राफ़ी भी कमाल की थी। बाकी स्क्रिप्ट थोड़ी ढीली है।

शाहिद अपने हर रोल के साथ बेहतर होते जा रहें है हैदर, उड़ता पंजाब और अब कबीर सिंह जितना नेगेटिव शेड और उतना बंदे में दम। कियारा को सबसे कमजोर कड़ी भी कह सकते हो क्यूंकि शुरुआत में ऐसा कौन होता है वो भी मेडिकल में। लास्ट में जब वह रोती है तो शायद वह एक्टिंग का सबसे गन्दा पार्ट था। शिव (सोहम मजूमदार) पूरी फिल्म में एक अच्छे दोस्त की तरह पीछे ही रहा। ये राँझणा के मुरारी, संजू के कमली से बिल्कुल भी कम नहीं है और एक्टिंग उसको जज कर सकूं इतनी औकात ही नहीं है (क्यूंकि वो थियेटर वाला आदमी है)। बाकी लोग जिया (निकिता दत्ता), सुरेश ओबरॉय, दादी सब अपने छोटे छोटे स्लॉट में कभी बोझिल नहीं लगे।

The Hindu के दो कैप्शन

अब आते स्क्रिप्ट पर जिस पर हंगामा तो ऐसा मच रहा है जैसे कबीर सिंह देखने के बाद हर बंदा अपनी गर्लफ्रेंड को ऐसे ही ट्रीट करेगा। भाई वो बंदी है तुम्हारी जो कभी भी तुमको छोड़ सकती है इसलिए लड़के बाबू तुमने थाना थाया ऐसा ही बोल पायेंगे उससे ज्यादा तो दिल्ली का मातृ शब्द भेन्चों भी नहीं।

कोई भी movie समय काल परिस्थिति को देख के ही बनती है। गाली देना कोई अपराध तो नहीं और अगर इसको देखकर ही जज करते हो गैंग्स ऑफ़ वासेपुर के बाद movie बनना ही बंद हो चुकी होती। पद्मावती के जौहर के बाद ही पद्मावत बनी थी या तेरे नाम का राधे कोई movie देखने के बाद नहीं हुआ था। ऐसे लोगों को देखने के बाद movie बनी थी। हमें ये समझाना होगा खुद को कि ऐसा समाज में होता है। कबीर सिर्फ प्रीती के साथ ऐसा नहीं कर रहा था उसने अपने आस पास रहने वाले हर इन्सान से वैसा ही व्यवहार किया था। यहाँ तक कि भाई को भी माँ की गाली दी। और क्या तुम्हारी गर्लफ्रेंड को कोई छेड़ेगा तो तुम हाइपर नहीं होगे। क्यूँ जलन है उस व्यक्ति से तुम्हें वो उनका आपसी consent है दोनों ने बराबर थप्पड़ मारे है। जो लड़का अपनी गर्लफ्रेंड को कंधे पर बैग इसलिए नही रखने देता कि उसके कंधे पर निशान पड जायेगा तो उसका गुस्सा होना जायज भी है।

और हाँ सारी चीजें रीयलिस्टिक है दिल्ली में कौन नहीं पीता यहाँ तक कि जिन्होंने ये रिव्यू लिखें है न वो भी हो सकता है कि शराब के नशें में लिखें हो। तो क्यूँ दर्द हो रहा है movie देख के। कोई नहीं बिगड़ता और हाँ बंद ही करवाना है न तो पहले क्राइम पैट्रोल जैसा हद बकलोल कांसेप्ट बंद करवाओ, जिससे ज्यादातर लोगों को मारने का आईडिया मिलता है।

अरे हाँ एक बात कहना भूल गया कि मैं पितृसत्तामक का सबसे बड़ा समर्थक हूँ क्यूंकि मेरे घर का राशन कार्ड भी माँ के नाम पर है। वैसे सभ्य टाकीज में सबसे ज्यादा तालियाँ सेक्स scene पर बजी थी।

वैसे सोफे पे बैठने वाले सरस शराबी लोग कबीर सिंह का कहीं सिर्फ इसलिए तो विरोध नहीं कर रहे कि बॉलीवुड धीरे-धीरे मोदी के समर्थन में आ रहा है और शाहिद भी मोदी को पसंद करते हैं और ऐसा अर्जुन रेड्डी और कबीर सिंह के रिव्यू को देखकर भी लग सकता है।

AKASH: दर्शनशास्त्र स्नातक, बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी परास्नातक, दिल्ली विश्वविद्यालय PhD, लखनऊ विश्वविद्यालय
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