उत्तर-दक्षिण के बीच की दूरियां मिटाती श्रद्धा सेतु एक्सप्रेस

भारतीय रेल भावनाओं की रेल है। लोगों को एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचाती, तीर्थों और त्योहारों को जोड़ती अनगिनत भावों से सजी है भारतीय रेल। करोड़ों लोगों की जरूरतें पूरी करने का माध्यम है, भारतीय रेल। कितने ही ऐसे किस्सों में एक किस्सा मेरा भी है जो मेरे ह्रदय के बहुत करीब है। ये किस्सा है “श्रद्धा सेतु” एक्सप्रेस का जो अयोध्या (फैज़ाबाद) से रामेश्वरम तक जाती है।

“यात्रीगण कृपया ध्यान दें फैज़ाबाद से चलकर रामेश्वरम जाने वाली गाडी नंबर 16794 श्रद्धा सेतु एक्सप्रेस कुछ ही समय में प्लेटफार्म क्रमांक एक पर आ रही है”। पहली बार मैं दक्षिण भारत की यात्रा पर जा रहा था, ऐसे में रेलवे की इस आइकॉनिक घोषणा ने मेरे भीतर के रोमांच को और भी बढ़ा दिया। चूँकि मैं मध्य प्रदेश के रीवा जिले का रहने वाला हूँ जो रेल जंक्शन नहीं है अपितु म.प्र. के आखिरी कोने में बसा होने के कारण यहाँ मात्र एक रेलवे स्टेशन है इसलिए मुझे सतना से ये ट्रेन मिली जो रीवा का पडोसी जिला है। खैर ट्रेन आई और मैं चला पड़ा अपनी तीर्थ यात्रा में।

भारत को एक करने का जो महान कार्य सरदार वल्लभभाई पटेल ने किया था वैसा ही महान कार्य भारतीय रेल भी कर रही है। चाहे सुदूर उत्तर में जम्मू से दक्षिणतम कन्याकुमारी तक जाने वाली हिमसागर एक्सप्रेस हो या पूर्वोत्तर में डिब्रूगढ़ से कन्याकुमारी के बीच चलने वाली विवेक एक्सप्रेस, जो भारत में सबसे लंबी दूरी तय करने वाली रेल है। ये केवल दो शहरों को नहीं जोड़ती अपितु तीर्थों, त्योहारों, खान-पान की आदतों, पहनावे के ढंग और भाषाई विविधताओं को जोड़ती हैं। जिस क्षेत्रवाद से भारत दशकों तक पीड़ित रहा जहाँ भाषाई विरोधाभासों को दूर करने के लिए आयोगों का गठन करना पड़ा वहां पूरे भारत के एकीकरण का कार्य भारतीय रेल कर रही है। ऐसे ही एकीकरण की अनुभूति मुझे श्रद्धा सेतु एक्सप्रेस में यात्रा करने के दौरान हुई।

अयोध्या से रामेश्वरम के बीच चलने के कारण इस ट्रेन का एक विशेष महत्व है। दोनों ही स्थान रामायण काल से हिंदुओं के लिए पूज्य रहे हैं। अयोध्या जहाँ भगवान राम की जन्मस्थली रही है वही रामेश्वरम में उनके द्वारा स्थापित शिवलिंग है जो द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक है। कई तीर्थयात्री दोनों दिशाओं से दोनों ही तीर्थों की यात्रा करने के लिए इस ट्रेन का उपयोग करते हैं। ऐसे ही कुछ यात्रियों का एक समूह अयोध्या से रामेश्वरम वापस जा रहा था। काफी देर तक मैं उन पर गौर करता रहा। उनमें से कुछ लोग कला एवं साहित्य के अनुरागी लग रहे थे क्योंकि वो आपस में तमिल, कर्नाटिक या मलयालम संगीत (मैं कन्फर्म नहीं हूँ क्योंकि मुझे हिंदी संगीत का ही थोड़ा भी ज्ञान नहीं है) एक दूसरे को सुना रहे थे। अब मैं ठहरा विश्लेषक तो मेरे भीतर की जिज्ञासा बढ़ने लगी। मुझे लगा कि इनसे इनकी यात्रा के विषय में पूछना चाहिए।

तो मैं अपने बाल बनाते हुए पहुंचे उनके पास और उनका अभिवादन किया। मैंने एक सज्जन से पूछा कि “वेयर आर यू कमिंग फ्रॉम” तो मेरी हिंदी एक्सेंट वाली अंग्रेजी सुनकर उनमें से एक सज्जन बोले कि “हम इंदी जानते नो प्राब्लम”। मेरी सांस में सांस आई। फिर मेरे प्रश्न का उत्तर इंन्दी में देते हुए बोले की “हम श्री राम और हनुमान के दर्शन करके अयोध्या से वापस आ रहे”। उन्होंने ये भी कहा कि वो प्रयागराज से वाराणसी भी गए जहाँ उन्होंने कई बार गंगा स्नान किया और बाबा विश्वनाथ के दर्शन किये। बीच-बीच में अपने आपको इंटेलेक्चुअल टाइप दर्शाने के लिए मैं आंग्ल भाषा का उपयोग भी कर लेता लेकिन अपनी सीमा में ही।

लेकिन मैं तो कुछ और ही चाहता था। अयोध्या नाम सुनकर मैं उनसे राम मंदिर के विषय में चर्चा करना चाहता था लेकिन मैंने पहले उनकी विचारधारा को टटोलना चाहा। मैंने कहा कि “आपके यहाँ रामेश्वरम में श्री राम ने ही वो माइथोलॉजिकल सेतु बनाया था जो रामेश्वरम को लंका से जोड़ता था”। इतना सुनते ही उन्होंने तत्परता से कहा “था” नहीं “है” एंड नॉट “माइथोलॉजिकल”, “माइथोलॉजिकल” तो वेस्ट का इनवेंटेड वर्ड है। इसका मीनिंग “कहानी” एंड श्रीराम, रामायण, श्रीकृष्णा, पुराण आर नॉट कहानी बट हमारा “पास्ट” है जिसे “वेस्ट” ने कुछ “लेफ्ट” का हेल्प से माइथोलॉजिकल बना दिया। तुम यंग जनरेशन को या तो पता नहीं होता या तुम लोग ऐसा फैशन में बोलते। उनकी डांट खा के मुझे खुशी हो रही थी क्योंकि मैं जो सुनना चाहता था वो बिना एफर्ट के उन लोगों ने बोल दिया। इसके बाद उनसे राम मंदिर को लेकर बहुत समय तक चर्चा हुई और उन लोगों ने एक स्वर में उसके निर्माण की इच्छा प्रकट की। अब बारी कुछ और लोगों को टटोलने की थी। तो उनके पास से जो खाने के लिए मिला वो खा के मैं निकल पड़ा ट्रेन में दूसरे कुछ बुद्धजीवियों की तलाश में।

मेरे डिस्कशन के लिए दूसरा बुद्धजीवी मेरी बर्थ के पास ही मिल गया। वो अधेड़ उम्र की एक महिला थीं जो तंजावुर में एक विद्यालय में गणित की शिक्षिका थीं। उन्होंने मुझसे रामेश्वरम जाने का विशेष कारण पूछा तो मैंने बताया कि यू.पी. के दक्षिण भाग और बुंदेलखंड के कुछ क्षेत्रों और पूरे बघेलखण्ड में एक मान्यता है कि चारों धामों की यात्रा करने वाले की तीर्थयात्रा तब तक पूरी नहीं होती जब तक गंगोत्री से लाया गया माँ गंगा के उद्गम का जल रामेश्वरम में श्रीरामनाथस्वामी को न अर्पित कर दिया जाए (इनके अलावा और कहाँ ऐसी मान्यता है मुझे नहीं पता) और मैं अपनी दादी के लिए ये कार्य पूरा करने जा रहा हूँ जो अस्वस्थता के कारण नहीं जा पाईं (हालाँकि न तो मैं चेन्नई एक्सप्रेस में था और न ही मुझे कोई मीनम्मा मिली)।

मैंने उन्हें बताया कि ये मान्यता इसलिए भी बनाई गई होगी जिससे उत्तर और दक्षिण के बीच संस्कृतियों का आदान प्रदान हो सके। इस उत्तर-दक्षिण की बात में मैंने बड़ी ही चतुराई से उनसे “आर्य” और “द्रविड़” की संकल्पना के बारे में पूछ लिया। उन्होंने इसे “राजनैतिक ढकोसला” कह कर अपना पल्ला झाड़ लिया और कहा कि इसके बारे में उन्हें ज्यादा ज्ञान नहीं है और जो ज्ञान है उसके अनुसार उन्हें सिर्फ “द्रविड़ वास्तुकला” के बारे में ही पता है। हालाँकि हमारी बात सुनकर वही पास में बैठे एक उत्तर भारतीय सज्जन ने हमसे चर्चा की और बिलकुल सीधे शब्दों में बताया कि हम “भारतीय” हैं। उत्तर, दक्षिण, पूरब, पश्चिम तो मात्र भौगोलिक दिशाएँ हैं। हमारे राज्य हमें प्रशासनिक पहचान देते हैं किन्तु हमारा मूल एक ही है ये राष्ट्र भारत। ऐसे ही कई किस्से हैं जो ऐसी लम्बी दूरी की ट्रेनों में होते रहते हैं। मुझे ऐसा अवसर नहीं मिला कि मुझे किसी से बहस करनी पड़ी हो। इससे पता चलता है कि क्षेत्रवाद की सुप्रीमेसी से जूझ रहे राजनैतिक दलों और नेताओं को छोड़ दें तो आम जनता के विचार सामान्य ही होते हैं अन्यथा राजनैतिक लालसाएं तो भारत को खंड खंड में विभाजित करने की भी हैं।

भारतीय रेल वाकई में वो महान कार्य कर रही है जिसकी संकल्पना में हमारे पूर्वजों ने तीर्थों और धर्म केन्द्रों की स्थापना भारत के कोने कोने में की। तीर्थयात्री कर्नाटक और तमिलनाडु जैसे राज्यों से यू.पी. और बिहार जैसे राज्यों में आते हैं और यहाँ के खान पान, पहनावे से परिचित होते हैं, वैसे ही गुजरात, म.प्र. और बिहार जैसे राज्यों से लोग पद्मनाभस्वामी और तिरुपति के दर्शन के लिए दक्षिण दिशा की ओर यात्रा करते हैं। भारतीय रेल इस तीर्थयात्रा का एक अभूतपूर्व पहलू है। मैंने भी कन्याकुमारी में एक एम्पोरियम से धोती खरीदी थी जिसे पहन के मैं लुंगी डांस कर सकता हूँ।

मेरा सहयात्री अभी भी इयर फ़ोन लगाकर किसी अन्य चर्चा में किसी अन्य व्यक्ति के साथ व्यस्त था। इसी राष्ट्र चिन्तन में कब पंबन सेतु आ गया पता ही नहीं चला। मेरा छायावाद जाग गया और मेरा फ़ोन अनायास ही मेरी जेब से निकल कर बाहर झाँकने लगा और हिन्द महासागर की अनंत सीमाओं को नापने लगा।

ओम द्विवेदी: Writer. Part time poet and photographer.
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