बौद्धिक आतंकवाद का मूल हमारी शिक्षा नीति में निहित “भय का भाव” है

हम अपने जन्म से स्वतः ही जिज्ञासा जैसे विशेष गुण से अलंकृत होते हैं। पानी से आकर्षित होते हैं, आग की लपटों को पकड़ने की कोशिश करते हैं। हमारी कोमल ज्ञानेन्द्रियाँ कभी स्वादन से कभी छुअन से भेद करना सीख रही होती हैं। हम बोल नहीं सकते, प्रतिक्रिया नहीं कर सकते शायद समझ भी नहीं सकते? अर्थात बालक की बुद्धि और चेतना दोनों ही एक ऐसे कोरे कागज़ की भांति हैं जिस पर कोई साहित्यकार, कवी, ऋषि अपनी रचनाएं लिखे जो भविष्य में सामाजिक जीवन और संस्कृति के लिए एक छतनार वृक्ष बने। अज्ञात भय से बालक की क्रियाओं को सीमित करने का प्रयास होता है। “भूत” और कभी “हाउ” जैसे काल्पनिक बहुरूपियों के आगमन के लिए बालक को अनजाने में ही अपराधी बनाया जाता है।

हम सब ने अपने जीवन में ये अनुभव कभी न कभी किया है। इस काल्पनिक डर के अधीन कभी बालक की प्रतिक्रियाओं का अध्ययन किया जाए तो पाएंगे की विपरीत परिस्तिथियों में वही प्रतिक्रियाएं उसके जीवन में स्वतः ही प्रतिबिंबित होती हैं। यह होता है जबकि भारतीय सभ्यता और उसका दर्शन निर्भीक, भयमुक्त होने को परमावश्यक जीवन मूल्य मानता है। हमारी तो पहली सीढ़ी ही गलत हो गयी क्योंकि पराधीनता की पहली शर्त ही भयभीत होना है। भय ही भ्रष्टाचार की उभयलिंगी माता है। भय से ही काम उत्पन्न होता है और काम से लोभ, मोह  की श्रृंखला शुरू हो जाती है। भारतीय सभ्यता, जिसके उच्च जीवन मूल्य भारतीय को जन्म और मरण के बंधन से भी मुक्त करने में तत्पर हैं उस सभ्यता को देहात्मवाद की जन्मघुट्टी यह भय ही पीला देता है। छोटे बालक के संस्कार में ये भय स्वाभाविक नहीं है और ना ही में उनके माता-पिता और सम्बन्धियों को उत्तरदायी मानूंगा। यदि यह सच होता तो यहाँ कभी ७ और ९ साल के साहिबजादों ज़ोरावर सिंह, फ़तेह सिंह की न्यायिक हत्या करने की नौबत नहीं आती।

हम बालक ध्रुव, खुदीराम बोस को नहीं देख पाते। अपनी माताओं अस्थियों को जौहर के कुंडों की ग्रास बनते न देखते, वीर हकीकत राये को न जान पाते। प्रश्न ये उठता है की इस भय का कारण क्या है?

कारण साफ़ सुथरा है, हमारी सभ्यता में “मुक्तचिन्तन” की परंपरा का विस्थापन “आईडोलॉजिकल स्कूलिंग” नाम की बीमारी से हो गया है एक शब्द है “यूनिफार्म” जिसका मतलब है “एक जैसा, समान” जो सभ्यता अपनी विविधता में एकता के लिए जानी जाती हो वहाँ यूनिफार्म तो सभ्यता पर आक्रांता साबित हुई या यूँ कहिये एक बौद्धिक आक्रांता है जिसने हमे अपने अत्याचार के लिए स्वयं ही मना लिया ९० के दशक से पहले भारत में सरकारी स्कूलों का बोलबाला था शिक्षण किसी भौतिक बाने या गैरज़रूरी संसाधन का मोहताज नहीं था आर्थिक उदारीकरण आज की शिक्षा नीतियों का जिम्मेदार है जिसमे विदेशी और अंतर्राष्ट्रीय रुचियों का दखल है हमारी प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा मुख्य रूप से इस देश के नौनिहालों को “हुक्म का गुलाम” बनाए जाने के लिए ज़िम्मेदार है एक सर्वे रिपोर्ट से खुलासा हुआ है की कुछ प्रसिद्द भारतीय स्कूलों में बच्चों को “पनिशमेंट” देने के नए तरीके पर ज़ोर दिया जाता है जो बालक की मानसिक दशा पर चोट करे, जैसे उसे उसके सहपाठियों से अलग बिठाना, सामूहिक रूप से शर्मिंदा कर देना, शेम शेम जैसे नारे लगवाना बालक एक ऐसा साधन हो जाता है जिसे अनुशाशन के लिए उदाहरण बनाया जाता है बालक इन घटनाओ से आहत क्यों होता है क्योंकि वो जिस परिवेश से आता है वह माता पिता ,परिवार ऐसे समाज का हिस्सा हैं जहा अनजान पडोसी के लिए भी संवेदना है, जहा ये बताया जाता है की हमारे किसी कार्य से किसी को ठेस न पहुंचे, कोई काम बदनामी का कारन न बने यह स्कूल और समाज के बीच का भयंकर विरोधाभास है जहा बालक अपनेपन को खो देता है और क्या बन कर निकलता है वह भी नहीं जानता

यहाँ से उसकी अपनी संस्कृति से घृणा की शुरुआत होती है जिसके फलस्वरूप वह कल अपने बच्चों को भी डर से ही नियंत्रित करता है भारत में इतने स्कूल ऑफ़ थॉट हैं की हमारी सरकार भी “RTI” में जवाब नहीं दे सकती कल्पना कीजिये एक माता पिता की चार संतान अलग अलग स्कूल में पढ़ने जाए जो State-Board, सीबीएसई , ICSE, मिशनरी (catholic, protestant, Scottish) आदि हों क्या उनके विचार मिल पाएंगे वो कभी एकमत नहीं हो पाएंगे किसी भी मुद्दे पर चाहे वह सामाजिक हो या राष्ट्रिय यही हमारे देश और समाज की विडम्बना है सबकी अपनी व्याख्याएं हैं अपने अलग सन्दर्भ हैं उधारणार्थ कुछ पढ़ते हैं की १८५७ सिपाही विद्रोह था और कुछ ग़दर, कही भारतीय त्योहारों को हर्षोल्लास के साथ मनाया जाएगा कही राखी और मेहँदी पर स्कूल से निकाल दिया जाता है भ्रमित बुद्धि के मूल की इतनी व्याख्या को बस करके हम ५००० वर्ष पूर्व महाभारत के रण में चलते हैं गीता का अध्याय २ श्लोक ६३

क्रोधाद्भवति सम्मोह: सम्मोहात्स्मृतिविभ्रम:।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।

यहाँ बताया गया है की किस प्रकार स्मृति भ्रमित होने से बुद्धि का विनाश और बुद्धि के विनाश से व्यक्ति का विनाश हो जाता है। हमारी शिक्षा नीति को स्मृतिभ्रंशामक रोग लग गया है जिसके कारन जो भी घटित हो रहा है स्वाभाविक प्रिक्रिया है।

भारतीय ज्ञान परंपरा, संस्कृति, जीवन शैली को राष्ट्र रुपी व्यक्ति की बुद्धि भी समझ लिया जाए तो राष्ट्र का पतन उसी प्रकार हो जाएगा घुन लगा छतनार वृक्ष अपनी जीवित अवस्था में लक्कड़हारों द्वारा लूट लिया जाता है। हमारी समस्या है की हम एक ही आचरण के माध्यम से सभी प्राकृतिक ओर अप्राकृतिक समस्याओं का समाधान खोजते हैं। हमारे सदाचरण की पराकाष्ठा है की हरिश्चंद्र सम्राट होकर भी अपने सपने में देखे गए राज्य दान के वचन को जागृत अवस्था में विश्वामित्र को दान कर देता है और दारुण दुःख भोगने को मजबूर होता है। यह भ्रमित बुद्धि ही थी जो हज़ारो वर्ष पूर्व के सिद्धांत पर चीन जैसे देश से युद्ध लड़ी और बड़ा भूभाग मनौती में दे आयी। हज़ारों वर्ष पूर्व के भारतीय सिद्धांतों के पीछे अपनी कम अक़्ल पर पर्दा डालने वाले व्यक्ति भारत से सेना को ख़त्म करने की शिफारिश कर रहे थे। मुझे समझ नहीं आता १९४७ के बंटवारे में हुए वीभत्स नरसंहार से भी इनकी बुद्धि चेतन न हुई जो स्वयं को “भारत एक खोज” का लेखक मानते हैं।

‘भारत एक खोज’ पर तंज़ इस लिए क्योंकि ऐसी किताब जिसका लिहाज़ा आलोचनात्मक भी है, को लिखने वाले की एक सतत स्मृति होनी चाहिए की हमारी पहचान क्या है, हम कौन हैं, हमारी सामरिक गलतियां क्या रही है और सबसे महत्वपूर्ण की राष्ट्र के रूप में हमारी रक्षा प्रार्थमिकताएँ क्या है। केवल सुरक्षित राष्ट्र में ही कला, ज्ञान, समृद्धि का विकास हो सकता है। गुलाम मानसिकता हमारे समाज में कैसे अनुप्राणित हो रही है ये चिंता का विषय है। आधुनिक शिक्षा के आवरण में बौद्धिक भ्रम कैसे हमारे द्वार तक आ गया हम समझ नहीं पाए। सम्पूर्ण विश्व के किसी भी देश में उसकी धार्मिक चेतना उसकी शिक्षा और न्यायव्यवस्था के प्राण होते हैं। भारत एक अकेला ऐसा देश बन गया है जिसके प्राण तो आध्यात्मिक परम्पराओं के हैं लेकिन शिक्षा और न्यायव्यवस्था देहात्म हैं। यहाँ की न्याय व्यवस्था के हाथ किसी भी इंस्टीटूशन ने तब मजबूत नहीं किये जब सगोत्र विवाह के खिलाफ कानून लाया जा रहा था। बहस हो रही थी, किसी ने उस परम्परों की वैज्ञानिक व्याख्या नहीं की जहा सगोत्र जोड़ा भाई बहिन की श्रेणी में आता है इसी कारन विवाह संस्कार में गोत्र पूछने का चलन है। कानून व्याख्यान को मानता है और देहात्मवाद में भाई बहिन भी नर नारी की श्रेणी में आए जाते हैं। ये शिक्षा स्वतः ही पीढ़ियों की रगों में चला गया।

९० के दशक में दो विश्वसुन्दरियाँ भारत के हिस्से में आयी और Loreal, Lakme जैसी कास्मेटिक की भारत में बाढ़ आ गयी इस बाजार के दरवाज़े उनके लिए खुल गए। २०११ में सनी लियॉन भारत आ गयी, अश्लीलता आपके थाली में परोसी जा चुकी है। सनी और डेनियल क्रिस्चियन परंपरा से पति पत्नी हैं ये जो कार्य सिल्वर स्क्रीन पर करते हैं अब्ब भारतीय निजी जीवन में दिखाई देंगे क्योंकि कानूनन विवाहेतर संबंधों के लिए पुरुष भी अपराधी नहीं रह गए। भारत में आकर ये महोदया करेनजीत कौर क्यों प्रस्तुत की जा रही हैं? इनका बयां की “पोर्न स्टार और सेक्स वर्कर में क्लास का अंतर होता है” समाज के कौन से  तबके को प्रेरित कर रहा है। हमारे शैक्षिक, पारिवारिक और राष्ट्रिय चरित्र पर इस प्रकार के बौद्धिक षड्यंत्र जारी हैं। इन्ही हमलावरों को बौद्धिक आतंकवादी की संज्ञा दी जाती है।

एक बौद्धिक आतंकवादी और सामान्य नागरिक में प्रार्थमिक रूप से गुणों का अंतर होता है, दोनों एक ही शिक्षानीति, समान पात्रता एवम समान ही सामाजिक पृष्ठभूमि का हिस्सा होते हैं परन्तु कार्य का ध्येय और अंतःकरण दोनों नकारात्मक और विध्वंसकारी होते हैं। हमारी शिक्षा नीतियों में निहित इस षड़यत्र का आलम यह है की नौकर तो भारतीय परंपरा से हरिश्चंद्र चाहिए जो हुक्म का गुलाम हों लेकिन हरिश्चन्द्रों पर अफसरशाही  मार्क्स-लेनिन की हो और शाशन औरंगज़ेब का। इसी व्यवस्था को बिठाने का सारा खेल चल रहा है। आज भारत में प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से यह आतंकवाद हावी है जो दरिंदों के पक्ष में रातों को सुप्रीम कोर्ट खुलवाता है। देश को शर्मिंदा करने और व्यवस्था को झुकाने में समर्थ है। बिना किसी संवैधानिक प्रिक्रिया और पदों के Power Enjoy करता है। हमे चाहिए की हम इनके द्वारा अपहृत संस्थानों को कैसे छुड़ाएं चाहे न्याय हो या शिक्षा हमे ये तय करना होगा की हम अपनी नस्लों से क्या चाहते हैं? हमे तय ही करना है क्यूंकि यह चुनाव हमारे हाथ में कभी नहीं रहा है।

लवी त्यागीशोध छात्र

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