पुलवामा: एक परिप्रेक्ष्य

पुलवामा आतंकी हमले कि खबर आनी शुरु हुई, पहले यह 8 था फिर 13 और फिर धीरे-धीरे इस नृशंस हमले की घिनौनी वास्तविकता सामने आई। कश्मीर में हुए अब तक के सबसे घातक आतंकी हमले में सीआरपीएफ के 44 जवान शहीद। राष्ट्र स्तब्ध और मौन था और टीवी चैनलों के टीआरपी के खेल शुरू हो गए, उनमें से एक ने तो बदला लेने के लिए एक टाइमर चला रखा था जैसे कि बदला बाज़ार में खरीदा जा सकता है जाइये और जब दिल किया ले आइये।

अंग्रेज़ी में एक कहावत है कि Revenge is a dish better served cold यानी बदला बिल्कुल ठंडे दिमाग से लिया जाता है, बिल्कुल शांति से सोच समझकर और इस हद तक कि अपराधी सोच भी ना पायें और बदले का रूप, समय और स्थान सब बदला लेने वाला तय करता है, ना कि समाचार चैनल के भौंकते हुए एंकर।

लेकिन इस त्रासदी का एक और पह्लू है और वो फिर सामने है, कुछ राजनेता, पत्रकार और तथाकथित बुद्धिजीवी जो अपने आकाओं का नमक का हक साबित करने में लगे हुए हैं। हम पुलवामा हमले की रिपोर्टिंग करने वाले टाइम्स ऑफ इंडिया की सुर्खियां पढ़ सकते हैं या हम समाचार चैनलों को देख सकते हैं जो उस आतंकवादी के पिता को अपने चैनल पे जगह दे रहे हैं। लेकिन एक बात साफ है कि आम लोग इन सर्पों के खिलाफ अपनी राय व्यक्त कर पा रहे हैं और कर भी रहे हैं।

इस हमले ने निश्चित रूप से सभी को हिला दिया है लेकिन मैं अभी भी एक विसंगति को नहीं समझ पा रहा हूं। इस देश में सबसे घातक नक्सली हमले में 2010 में दंतेवाडा में 76 सीआरपीएफ जवान शहीद हुए थे और जेएनयू के वामपंथी छात्रों ने तब इसका जश्न मनाया था, उन्ही संगठनों के छात्र जो कि भारत तेरे टुकडे होंगें के नारे लगाते हुए मिलते हैं। उन्ही संगठनों के छात्र नेता जिनको एनडीटीवी जैसे वामपंथी समाचार चैनल भारत की नई आशा के रूप में हमारे टीवी स्क्रीन पर गाहे बगाहे परोसते रहते हैं। जब हमारे पीएम की हत्या की साजिश रचने वाले नक्सलिओं की मदद करने वाले शहरी नक्सलियों को गिरफ्तार किया जाता है, तो कुछ बहुत ही प्रमुख वकील सुप्रीम कोर्ट तक जाते हैं और एक झटके में बेल प्राप्त कर लेते हैं। नक्सल आतंक के लिए काम करने वाले इन शहरी नक्सलियों को वामपंथी समाचार चैनल सामाजिक कार्यकर्ताओं के रूप में दिखाते है और इन आतंक समर्थकों को होने वाली किसी भी असुविधा के लिए न्यूज़ एंकर ये सब गला फाड फाड कर पर रोते हैं कि अभिव्यक्ति की आज़ादी गला घोंटा जा रहा है।

वामपंथी मीडिया, शिक्षाविद, मीडिया, रंगमंच, बॉलीवुड जिनपर वामपंथियों क आधिपत्य है, इन शहरी नक्सलियों को धीरे-धीरे हमारे बीच संघर्ष के प्रतीकों के रूप मे उतारते है और हम इसे फिल्मों, समाचार चैनलों (कह्ते तो खुद को समचार चैनल ही हैं) की काली की हुई स्क्रीन के ड्रामे में या मूक अभिनय के ड्रामे में देखते आये हैं। बडी सफाई से ये सारा प्रोपैगैंडा हमारे टीवी स्क्रीन के माध्यम से हमारे घरों मे परोसा जाता है और जब यह सब रोज़ रोज़ होता है तो लोग इसे सच भी मानने लगते हैं। और इसी चाशनी में लिपटे हुए प्रोपैगैंडा के कारण पुलवामा को लेकर रोष और नक्सली हमलों पर हमारी चुप्पी के बीच हमने अपने राष्ट्र और खुद को विफल कर दिया है।

क्या कभी भी हमने हमारे बीच रह रहे शहरी नक्सलियों के इन आतंकी सहायता समूहों को, इन स्लीपर सेल्स को जवाबदेह ठहराया है जो हमारी शिक्षा, मीडिया, मनोरंजन, राजनीति, कानून, न्यायपालिका में घर कर चुके हैं और उन्हें भीतर ही भीतर दीमक कि तरह खाये जा रहे हैं। अगर जवाबदेह ठहराया होत तो बार-बार अपने शहीदों के लिए मोमबत्तियाँ नहीं पकड़नी होती। हमारे बाहर और भीतर दोनों तरफ दुश्मन हैं। जब हम बाहरी दुश्मनों के विरोध में इतने जोरशोर से प्रदर्शन कर रहे हैं तो क्या इन अंदरुनी दुश्मनों को उनकी जगह दिखाने का समय नहीं आ गया है?

योगी आदित्यनाथ: मुख्यमंत्री (उत्तर प्रदेश); गोरक्षपीठाधीश्वर, श्री गोरक्षपीठ; सदस्य, विधान परिषद, उत्तर प्रदेश
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