‘कभी बड़े शीशे के सामने खुद को निहारना तब पता चलेगा आप कौन जात हो’

यही कोई चार-पांच साल पहले टीवी पर नौ बजे प्राइम टाइम में एक शॉ में नमस्कार मैं फलां कुमार आपके साथ अमुख विषय पर बात करने के लिए हाजिर हूं दिखता था। ऐसा लगता था मानो पत्रकारिता की दुनिया में पांडे जी जैसा कोई क्रन्तिकारी नहीं बचा है। 2014 के बाद तो निष्पक्ष पत्रकारिता का वाले ये घुटने पूरी तरह जवाब देना शुरू हो गए, इनमें जैसे गंठिया बाय लग गया हो।

हर खबर में ‘कौन जात हो’ एंगल ढूंढने वाले पत्रकार साहब खुद को किसी मसीहा से कम नहीं मानते, ये बात और है कि शॉ की टीआरपी नीचे से पहले पायदान पर है। गौरी लंकेश का मामला हो या रोहित वेमुला का, ये महोदय रवीश की रिपोर्ट वाले कैमरामैन को लेकर दौड़ पड़े, बाद में पता चला कि जो रिपोर्ट आपने की वह तथ्यों से अलग थी। यही बात टुकड़े-टुकड़े मसले में हुई, उस समय ये महोदय कन्हैया का साक्षात्कार करते हैं जैसे उसने दुनिया में देश का नाम रौशन किया हो। बाद में फॉरेंसिक रिपोर्ट आने पर दूध का दूध और पानी का पानी हो गया और क्रांतिकारी राजा रबीश ने अब तक माफी नहीं मांगी। सच परेशान हो सकता है लेकिन पराजित नहीं, तो एक बार एनडीटीवी के मनी लॉन्ड्रिंग केस पर भी भरे बाजार में प्राइम टाइम हो जाए।

बात प्रोपगेंडा की हो तो कथित आईटी सेल और व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी इनकी जुबान पर सबसे पहले रहता है। फेसबुक पर स्क्रीन शॉट चिपकाने का काम पहले करते हैं लेकिन पुलिस या अदालत में जाने का समय इनके पास नहीं होता। इसके साथ ही बीजेपी के किसी वार्ड मेंबर पर भी कोई आरोप लग जाए, तो ये अपने ताम तम्बू उठाकर वहां से प्राइम टाइम शूट करना शुरू कर देते हैं लेकिन बिहार में विधायक का चुनाव लड़ चुके अपने ही भाई के खिलाफ बलात्कार मामले में प्राइम टाइम तो क्या टिकर तक नहीं चलाते। इनको यह भी लगता है कि जनता को पता नहीं चलता लेकिन आप ही कहते हैं आईटी सेल वाले लोग, तो  पांडे बलात्कार मामले की जानकारी व्हाट्सएप्प पर देना उनका फर्ज बनता है ना, आखिर यही तो लोकतंत्र की खूबसूरती है। कौन जात है वाली पत्रकारिता के शिरोधार्य, कभी शांत चित मन से बड़े शीशे के सामने खड़े होकर खुद को निहारना तब पता चलेगा कि आप कौन जात हो।

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