उदारवादियों को क्यों खटकती है स्टेचू ऑफ़ यूनिटी?

विश्व की सबसे ऊँची आदरणीय सरदार पटेल की प्रतिमा, बहुत दिनों से उदारवादियों को खटक रही हैं। जब नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तभी उन्होंने विश्व की सबसे ऊँची प्रतिमा बनाने की घोषणा कर दी थी। सरदार पटेल की प्रतिमा का विरोध तभी से शुरू हो गया था। इसके लिए उदारवादियों के पास तरह तरह के तर्क थे। कभी यह हवाला दिया जाता था, कि देश में बहुत गरीबी हैं, उस पर ध्यान दिया जाए। कभी बताया जाता था, की ३०,००० करोड़ में कितने स्कूल, कॉलेज और अस्पताल खोले जा सकते हैं। कभी यह भी कहा गया कि स्टेचू ऑफ़ यूनिटी एक चाइनीज कंपनी बना रही हैं। जब स्टेचू ऑफ़ यूनिटी का अनावरण कर दिया गया, तो एक जाने माने भूतपूर्व संपादक और फिल्म मेकर ने तो यह कह कर कि सरदार पटेल की शकल सूरत चाइनीज लगते हैं, हिट जॉब भी करने का प्रयास किया। और उनकी हिमाकत देखिये, जब उनको अकाट्य प्रमाण दिए गए, कि ऐसा नहीं हैं, तब भी उन्होंने ट्विटर से अपना कमेंट हटाया नहीं।

लेकिन लाख टके का सवाल यह हैं, कि आखिर उदारवादियों को सरदार पटेल की प्रतिमा से क्या परेशानी हैं? क्यों कुतर्क दे कर उनकी प्रतिमा का विरोध किया जाता हैं? जहाँ तक स्कूल, अस्पताल और कॉलेज बनवाने की बात हैं, सभी इसका समर्थन करते हैं। इसके लिए बजट में अलग से प्रावधान किया जाता हैं। गरीब से गरीब देश भी कुछ पैसे अपने देश के महापुरुषों और प्रतीक चिन्हों के लिए अलग से रखता हैं। आप को दुनियाँ में कोई भी ऐसा देश नहीं मिलेगा, जहाँ कोई स्मारक न हो, प्रतिमा न हो, संग्रहालय न हो, म्यूजियम न हो। और उदारवादी तो पता नहीं कब से विदेशी दौरे कर रहें हैं, कभी कॉन्फ्रेंस के नाम पर, कभी सेमिनार के नाम पर। और वह इस चीज़ से भली भांति परिचित हैं। फिर उनके विरोध का कारण क्या हैं?

सबसे पहली बात जो बाहर निकल कर आती हैं, वह है, नेहरू गाँधी खानदान की महानता की जो गाथाए जो बड़ी मेहनत से बनायीं गयी हैं, और जनता के सामने एक छवि प्रस्तुत की गयी हैं, उस पर घनघोर खतरा हो उत्पन्न हो गया हैं। आज दुनिया में कही पर भी बैठा व्यक्ति टेक्नोलॉजी का भरपूर इस्तेमाल करता है। अगर कोई भी “दुनिया की सबसे ऊँची प्रतिमा” इंटरनेट पर खोजेगा, तो उसको, स्टेचू ऑफ़ यूनिटी और सरदार पटेल दोनों के नाम मिलेंगे। जिज्ञासा मनुष्य का सहज स्वाभाव है, और वह आदतन ही सरदार पटेल के बारे में कुछ और भी जानकारी हासिल करने की कोशिश करेगा। और उसको सरदार पटेल की महानता के बारे में कोई शक नहीं रहेगा। जैसे जर्मनी में बिस्मार्क एकीकरण के लिए याद किया जाता हैं, दुनियांसरदार पटेल को भी वैसे ही जानने और समझने लगेगी। और नरेंद्र मोदी ने यह सब ६०-७० साल से पाले पोसे गये एक इको-सिस्टम को धता बता कर किया हैं। उदारवादियों के बीच इसका दर्द बहुत गहरा हैं और छुपाये नहीं छुपता। कितनी लगन और चाटुकारिता से एक परिवार की छवि चमकायी गयी हैं। और एक झटके में उस पर कोई पानी फेर रहा हैं।

दूसरी खटकने वाली बात है, पता नहीं क्यों, नरेंद्र मोदी को विश्व की सबसे ऊँची प्रतिमा बनवानी थी। अगर कोई छोटी मोती साधारण सी कोई प्रतिमा बनवाने की बात होती, तो किसी को भी जेड कष्ट नहीं होता। एक टोकन विरोध करके उसको भुला दिया गया होता। आप स्टेचू ऑफ़ यूनिटी देखने जाइये, तो आप को नीचे संग्रहालय मिलेगा। आप कहेंगे, इसमें क्या बड़ी बात है। हमारे देश में कई संग्रहालय हैं। सरदार पटेल का भी एक हैं तो क्या हुआ? हुआ हुज़ूर, हुआ। आप जा कर देखिये तो सही। संग्रहालय और प्रतिमा, दोनों विश्व मानकों के अनुसार बने हैं। अन्यथा सक्षम जिनको डिफरेंटली एबल्ड भी कहते हैं, व्हीलचेयर धारको और बुजुर्गो के लिए एस्कलेटर, वाकलेटर, लिफ्ट सब हैं। नरेंद्र मोदी ने रैंप बनाने के लिए एक स्टीफन हॉकिंग का इंतज़ार नहीं किया। याद रहे ताजमहल पर व्हीलचेयर धरक के लिए रैंप तभी बना जब विश्व प्रसिद्ध ब्रितानी भौतिक वैज्ञानिक स्टीफन हॉकिंग भारत यात्रा पर आये। इससे पहले शायद कोई विकलांग ताज महल की सुंदरता से कोई वास्ता नहीं रखना चाहता था। साथ ही कुछ मिनट का ऑडियो-विसुअल प्रस्तुतिकरण भी दिया जाता हैं। वह भी वैश्विक मनको के अनुसार। इसमें समझौता नहीं किया गया हैं।

अब उदारवादियों को इससे क्या दिक्कत हो सकती हैं ? दिक्कत हैं, बहुत दिक्कत है। स्टेचू ऑफ़ यूनिटी देखने गुजरात के सरकारी विद्यालयों से छोटे छोटे बच्चे भी आते हैं। उनके साथ माध्यम वर्ग के अध्यापक आते हैं। उनका आना बंद कर दिया जाए जाये तो उदारवादियों को कोई दिक्कत नहीं होगी। उनके हिसाब से दबे, कुचले, पिछड़े, शोषित, वंचित और गरीब जब अपने घर के आँगन में ही कुछ वर्ल्ड क्लास देखेगा, तो उसकी आशाएं, आकांक्षाएं खुद से भी और सरकार से भी, दोनों से बढ़ जाएँगी। फिर आधी रोटी खाएंगे, फलाना पार्टी को लाएंगे या पूरी रोटी खाएंगे, फलाना पार्टी को लाएंगे का झुनझुना राजनितिज्ञों के लिए बजाना आसान नहीं होगा। ऐसा वर्ग जब मतदाता बनेगा, तो समझोतावादी दृश्टिकोड कैसे अपनाएगा? वह तो वही चमचमाती विश्व स्तर की सुविधाएं और स्मारक मांगेगा। उसकी आकांक्षाओं को ये मोदी हवा क्यों देता हैं? जैसा चला आ रहा हैं, वैसा ही करने में क्या हर्ज़ हैं?

यथा स्थिति बानी रहे, यह इको-सिस्टम, प्रसाशनिक वर्ग और राजनीतिज्ञों सभी के लिए फलदायी हैं। सामान्य जनता के अभिलाषाओं और आकांक्षओं के सोते शेर को सोता रहने देने में ही भलाई हैं। उसको जगा कर मुसीबत क्यों मोल लेना?

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