काश, इस कुम्भ के बहाने ही इंडियन स्टेट को विविधता की समझ आ जाती

ब्रिटिश इंडिया के जमाने की बात है। प्रयागराज में कुंभ पर्व की धूम थी। भारत के वायसराय गवर्नर जनरल लॉर्ड लिनलिथगो कुंभ के इस अनूठे मेले का अवलोकन करने महामना पंडित मदनमोहन मालवीय जी के साथ प्रयाग के तट पर पहुंचे। उन्होंने कुंभ क्षेत्र में देश के विभिन्न क्षेत्रों से अपनी-अपनी वेशभूषा में आए लाखों लोगों को एक साथ त्रिवेणी संगम स्नान, भजन-पूजन करते देखा, तो आश्चर्यचकित हो उठे। ऐसा दृश्य उनके लिए अभूतपूर्व था। इससे पूर्व उन्होंने इतनी विशाल और व्यवस्थित भीड़ अपने जीवन मे कभी नहीं देखी थी। उनकी पश्चिमी नजरिए वाली आँखें हैरानी से फटी जा रही थीं।

उन्होंने मालवीय जी से पूछा- “इस मेले में इतने सारे लोगों को इकट्ठा करने के लिए प्रचार और आयोजन पर अथाह रुपया खर्च हो हुआ होगा न?

“ज्यादा नहीं। बस केवल दो पैसे।” मालवीय जी ने मुस्कुराकर उत्तर दिया।

वायसराय ने चौंककर पूछा- “क्या कहा आपने! केवल दो पैसे? यह कैसे संभव है?”

मालवीय जी ने अपनी जेब से पंचांग निकाला तथा उसे दिखाते हुए बोले- “इस दो पैसे मूल्य के पंचांग से देश भर के हिंदू श्रद्धालु यह पता लगते ही कि हमारा कौन-सा पर्व कब है, स्वयं श्रद्धा के वशीभूत होकर तीर्थयात्रा को निकल पड़ते हैं।”

कहने की जरूरत नहीं कि वायसराय की भाव-भंगिमाएं नतमस्तक हो चुकी थीं।

यह केवल एक उदाहरण है। सनातन धर्म और भारत भूमि ऐसे ही अनगिनत आश्चर्यों और विविधताओं से भरे पड़े हैं। विश्व के लिए आज भी यह हैरानी की बात है कि चाहे कितनी भी सक्षम सरकारें क्यों न हों परन्तु करोड़ों लोगों को कुछ वर्ग किलोमीटर के दायरे में डेढ़ महीने तक इस कुंभ रूपी जनसंगम में कैसे सम्भालती हैं! वास्तव में कुम्भ जैसे आयोजन सरकारें नहीं, धर्म करता है। जब सरकारें नहीं थीं तब भी आपवादिक घटनाओं को छोड़कर हजारों वर्षों से ये धार्मिक आयोजन इतने ही सुचारू और व्यवस्थित ढंग से होते आ रहे हैं।

यदि इंडियन स्टेट के कर्ताधर्ताओं (चाहे नेता हों या प्रशासन या न्यायालय) को हिंदुत्व की इन विविध सुंदरताओं की रत्ती भर भी समझ होती तो सबरीमाला जैसे मूर्खतापूर्ण निर्णय न आते। ये वो धर्मकुम्भ है जिसे कभी प्रचार की आवश्यकता न पड़ी, न निमंत्रण या आमंत्रण पत्र भेजने की। यहाँ पुरुष साधु भी हैं, महिला साध्वी भी और किन्नर सन्यासी अखाड़े भी। इतने जाति, सम्प्रदाय, उप-सम्प्रदाय, पन्थों, दर्शनों की अलग-अलग समृद्ध परम्पराएँ कोई भेदभाव नहीं अपितु विविधता हैं इस गौरवशाली हिंदुत्व की। सरकारें, प्रशासन, अदालतें अगर वाकई इस देश का कुछ भला चाहते हों तो बस इस धर्म को अपने मूर्खतापूर्ण प्रयोगों से दूर रखें।

मिस्टर इंडियन स्टेट जी! आप चौकीदार हैं, बस चौकीदारी ही करिए। हमारा धर्म आपके बिना कहीं ज्यादा समृद्ध, समावेशी, प्रगतिशील और सुंदर है। इसे ऐसे ही रहने दीजिए।

Saurabh Bhaarat: सौरभ भारत
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